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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
पारुल पुखराज की कहानी— 'झूला पड़ा कदंब की डारी'


फोन जमशेदपुर से था नरेन का-
"हमें लॉन वाला फ्लैट मिल गया है नीता, जल्दी आ जाओ फ़र्निश कराने का बजट भी दो चार दिन में मिल जाएगा।" -मानो पंख लग गए थे मेरी आत्मा को, कैसे तो जा पहुँचूँ और हरियाले टुकड़े को किस तरह अपनी बाहों में समेट लूँ।

छुट्टियों में मायके आई थी दो हफ्ते के लिए लेकिन चार दिन में ही वापस भागी।  तीन साल से हम तिमंज़ले पर अटके थे और कंपनी के लॉनवाले पहली मंज़िल के फ्लैटों की ओर तरसती निगाहों से देखते। नया घर नए ब्लॉक में था यानि दो मंज़िल के खुले-खुले बंगलेनुमा दुमंज़िले मकानों की कतार और घने पेड़ों की छाया वाली चौड़ी सड़कों का वह दृश्य बार-बार आँखों के सामने घूम जाता जो तीन साल के लंबे इंतज़ार के बाद अपना होने वाला था।

घर पहुँची तो ठगी-सी रह गई। कार सड़क पर नहीं, चमेली से छाए नन्हें से पोर्टिको में जाकर रुकी। क्यारियों भर फूल और लॉन के गदबदे सौदर्य ने मन मोह लिया। बरामदे के गमलों से झूलते पिटूनिया मुस्कुराते हुए 'हाइ' कह रहे थे।
"मैं गमलों में पानी डाल दूँ।'' अप्पू तेज़ी से भीतर दौड़ा।
''नहीं अप्पू बाहर आकर देखों यहाँ कोने में बगीचे को पानी देने का नल है,'' नरेन ने उसे पुकारा।

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