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''क्यों?''
''इस बस-स्टॉप से ऑफिस के कई लोग बस चेंज करते हैं।''
सामने रेड-लाइट आ गई थी। रुकना पड़ा। लड़के ने मुँह घुमाकर लड़की की ओर देखा। उसकी आँखों में चमक और होंठों पर मुस्कराहट थी। उसने पूछा, ''फिर कहाँ मिला करूँ?''
''ऊँ...'' लड़की ने होंठों को गोल करते हुए कुछ देर सोचा और बोली, ''मदरसे के बस-स्टॉप... पर तुम स्टॉप से कुछ दूर हटकर खड़े हुआ करो।''
हरी बत्ती होते ही लड़के ने बाइक गियर में लेकर एक्सीलेटर दबाया और वाहनों के बीच से लहराते हुए बाइक को निकालने लगा।
''क्या करते हो?... ठीक से चलाओ।''
लड़का मस्ती में था। उसने बाइक और तेज़ कर दी। इस पर लड़की ने उसकी पीठ में चुकोटी काटी और बोली, ''बहुत मस्ती आ रही है?... हैं!''

पुराने किले के बाहर पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर वे दोनों झील के साथ वाले पॉर्क की ओर बढ़ गए।
झील का पानी सर्दियों की सुनहरी खिली धूप में चमक रहा था और उसमें बोटिंग करते लोगों से झील जैसे जीवंत हो उठी थी। वे झील के किनारे ढलान पर एक झाड़ी की ओट में बैठ गए। उनके बैठते ही बत्तखों का एक झुण्ड जाने किधर से आया और उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगा। लड़की लड़के को भूलकर बत्तखों से खेलने लगी। अब लड़की अपने आसपास की घास तोड़कर बत्तखों पर फेंक रही थी और हाथ बढ़ाकर उन्हें अपने पास बुला रही थी। जब कोई बत्तख उसके बहुत निकट आ जाती, वह डर कर उठ खड़ी होती। लड़की का जब यह खेल लम्बा खिंचने लगा तो लड़का उखड़ गया।
''छोड़ो भी अब...।''
लड़की लड़के की रुखाई देख हँस दी और तोड़ी हुई घास की बरखा लड़के पर करने लगी। लड़का फिर झुंझलाया, ''क्या करती हो?'' और अपने कपड़े झाड़ने लगा। लड़की उसके समीप बैठते हुए बोली, ''गुस्से में तुम अधिक सुंदर लगते हो।''

लड़के ने लड़की की बाईं हथेली पर अपनी दाईं हथेली रख दी। लड़की ने इधर-उधर देखा और लड़के की फैली हुई टांगों को सिरहाना बनाकर अधलेटी हो गई। अब लड़का रोमांचित हो रहा था। उसने घास के तिनके तोड़े और उन्हें लड़की के कान, नाक, गाल और गले पर फिराने लगा। लड़की को गुदगुदी होती तो वह हँसती हुई दोहरी हो जाती।
ढलान के ऊपर पटरी पर लोग आ-जा रहे थे। आरंभ में आते-जाते लोगों से लड़का-लड़की घबरा उठते थे और प्यार-भरी हरकतें करना बन्द कर देते थे। अब ऐसा नहीं करते। बस, लड़की चौकन्ना रहती है। कहीं आते-जाते लोगों में कोई परिचित चेहरा न निकल आए।

''चलो, किले के अंदर चलते हैं। बहुत दिन हो गए उधर गए।'' लड़के ने एकाएक कहा। लड़की समझ गई, लड़के का आशय। एकांत वह भी चाहती थी। वह तुरन्त खड़ी हो गई।
किले के अंदर अपनी पुरानी जगह पर वे बैठ गए- एक टूटी दीवार से पीठ टिका कर। उनकी आँखों के ठीक सामने एक लम्बा लॉन था जिसकी मखमल-सी घास धूप में चमक रही थी। एक मालगाड़ी धीमी गति से निजामुद्दीन की ओर से आ रही थी, तिलक ब्रिज की ओर। लड़की ने कुछ देर गाड़ी के डिब्बे गिनने की कोशिश की, किन्तु ना-कामयाब रही।
''तुमने बताया नहीं, आज तुम देर से क्यों आई?'' लड़के ने लड़की की गोद में सिर छिपाते हुए पूछा। लड़की ने झुक कर लड़के का माथा चूमा और बोली, ''बस, यों ही देर हो गई। दरअसल...।''
''दरअसल क्या?''
''डिस्पेंसरी गई थी।''
''डिस्पेंसरी?...'' लड़का चौंका, ''क्यों? कौन बीमार है? घर पर सब ठीक तो है?'' लड़के ने एक साथ कई सवाल कर डाले।
''सब ठीक है।''
''फिर, डिस्पेंसरी क्यों गई थीं?''
''अपनी दवा लेने।''
''क्यों, क्या हुआ तुम्हें?''
''कुछ नहीं।''
''यह 'कुछ नहीं' कौन-सा रोग है?'' लड़के ने लड़की का दायाँ हाथ अपने सीने पर रख लिया।
''है...तुम्हें नहीं मालूम?'' लड़की ने शरारत में उसकी नाक को पकड़ कर खींचा।
''ठीक-ठीक बताओ। मुझे तो चिंता हो रही है।''
''अच्छा!'' लड़की आश्चर्य में मुस्कराई।
''बताओ न, क्या हुआ है तुम्हें?''
''कहा न, कुछ नहीं। वो मेरा बॉस है न, कह रहा था कि तुम आए दिन गोल हो जाती हो। कल ऑफिस जाऊँगी तो पूछेगा- क्यों, क्या हुआ मैडम?... उसे डिस्पेंसरी की स्लिप दिखाऊँगी और कहूँगी- तबीयत खराब थी इसलिए नहीं आई। और एप्लीकेशन दे दूँगी।'' पर्स खोल कर उसने पर्ची दिखाई और दवा भी, ''डिस्पेंसरी में क्या है, कुछ भी जाकर कह दो, चक्कर आ रहे हैं... पेट में दर्द है या फिर रात में बुखार हो गया था, बस।''

लड़का लड़की की चालाकी पर मुस्कराया और उठ कर बैठ गया। ''तो तुम बीमार हो...'' कहते हुए उसने लड़की के होंठ चूम लिए। लड़की का चेहरा रक्तिम हो उठा।
सहसा, कहकहों और हँसी के फव्वारों ने उन दोनों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचा। कुछ युवा जोड़े बाई ओर की इमारत की दीवारों पर अपना नाम गोद रहे थे। 'आई लव यू', 'माई स्वीट हार्ट', 'लव इज़ गॉड' जाने कितनी ही ऐसी उक्तियों से यहाँ की हर दीवार भरी पड़ी थी। लड़का-लड़की अपने अतीत में खो गए। उन्हें अपने वे प्रारंभिक दिन याद हो आए जब वे भी ऐसे ही, इमारतों की दीवारों पर, दरख़्तों के तनों पर अपने नाम गोदा करते थे।

लड़की को याद आया, लोदी गार्डन में यूकलिप्टस के तने पर लड़के ने उसके लिए एक कविता ही गोद डाली थी, उसका हेयर-पिन लेकर। वह कविता उसने लड़के की डायरी में भी देखी। डायरी का वह पन्ना ही उसने ले लिया था और कई दिनों तक उन पंक्तियों को एकांत में पढ़-पढ़कर अभिभूत होती रही थी।

लड़की ने कविता की पंक्तियाँ याद करने की कोशिश की। फिर सोचा, लड़के को अभी भी याद होंगी। उसका मन हुआ, वह लड़के को आज फिर से वे पंक्तियाँ दोहराने को कहे। उसने लड़के को प्यार भरी नज़रों से देखा। लड़का न जाने किन हसीन ख़यालों में खोया था, आँखें मूँदे, उसकी उँगलियों से खेलता हुआ। एकाएक लड़की को एक पंक्ति याद हो आई और धीरे-धीरे अन्य पंक्तियाँ भी। वह अंदर-ही-अंदर बुदबुदाने लगी- ''कैसे बताऊँ, क्या है, मेरे लिए तुम्हारा नाम... मायूसियों के गहन अंधेरों में जैसे उम्मीद की कोई किरण... हाँ, वैसे तुम्हारा नाम।'' आगे की पंक्तियाँ जेहन में गड्ड-मड्ड होने लगीं। थोड़ा ज़ोर देने पर बीच की कुछ पंक्तियाँ पकड़ में आईं - ''मेरा दिल, समुद्र-तट की रेत तो नहीं, कि जिस पर गोदा गया नाम, पानी की लहरें आएँ और मिटा कर चली जाएँ...।'' इससे आगे की पंक्तियाँ स्मृति की पकड़ से बाहर थीं।

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