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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से राजेंद्र त्यागी की कहानी— 'परमा - परमजीत'


फैक्टरी के सायरन ने मुँह आकाश की तरफ़ उठाया और भौ-भौं कर चिल्लाने लगा। मशीनों के चक्के कुछ देर के लिए थम गए। हाथ के औज़ार रख मज़दूरों ने खाने के डिब्बे उठाए और गेट की तरफ़ चल दिए। यह पाली समाप्त होने का सायरन था।

मुन्नालाल ने भी टाट के टुकड़े से चीकट हाथ रगड़े और थके-थके से अपने कदम गेट की तरफ़ बढ़ा दिए। मगर उसकी चाल में आज पहले जैसी वह गति नहीं थी। सायरन की आवाज़ आज उसे वैसा सुकून नहीं दे रही थी। जैसी की सात आठ घंटे मशक्कत करने के बाद किसी मज़दूर को देती है। सायरन की भौं-भौं उसे आज आसमान की तरफ़ मुँह उठा कर रोते किसी कुत्ते की तरह लग रही थीं। बाईं आँख भी यकायक हरकत करने लगी थी। इन अपशकुन संकेतों ने अजीब-सी एक आशंका उसके मन में ला धरी। उसे लगा कहीं माँ तो...!
बहुत दिन से उसका कोई खत भी नहीं आया।

अशुभ आशंकाओं का बोझ मन में लिए वह फैक्टरी के गेट पर पहुँचा। उसका साथी कुंदन वहाँ सिक्यूरिटी जाँच करा रहा था। मुन्नालाल भी जाँच के लिए रुक गया। मुन्नालाल का बुझा-बुझा-सा चेहरा देख कुंदन ने उससे पूछा, ''अब्बे क्या यार! फिर धूप खाए आमरूद की सी सकल बना ली। तू कुछ बताता क्यों नी।

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