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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से मनोहर पुरी की कहानी— 'क्रेडिट कार्ड'


''मम्मी देखो तो दरवाज़े पर कोई हैं। कितनी देर से घंटी बजा रहा है।'' रेणू ने खीज भरे स्वर में अपनी माँ को आवाज़ देते हुए कहा।
''तुम भी तो सुन रही हो कि घंटी बज रही है। क्यों नहीं खोल देती दरवाज़ा।'' माँ ने फोन के रिसीवर को अपने कान से थोड़ा दूर हटाते हुए उत्तर दिया। फिर कहा, ''देखती नहीं मैं किसी से फोन पर ज़रूरी बात कर रही हूँ।''
''मैं क्यों देखूँ। होगा कोई तुम्हारा डिलीवरी मैन या फिर कूरियर वाला। मेरा तो कोई कूरियर आता नहीं है। जब देखो कोई न कोई दरवाज़े पर खड़ा रहता है।'' रेणू ने अपने कानों से हैड़ फोन हटाया और पैर पटकती हुई दरवाज़े की ओर चली। वह बुड़बुड़ा रही थी, ''कमबख्त इतनी ज़ोर से घंटी बजाते हैं कि पूरी तरह से ढके होने के बाद भी कान के पर्दे फटने लगते हैं।''
तभी फिर से घंटी बजी तो उसके सब्र का बांध टूट गया। वह ज़ोर से बोली, ''आ रहे हैं भाई, खोलते हैं। थोड़ा भी सब्र नहीं है।''

दरवाज़ा खोला तो आशा के अनुरूप एक लड़का हाथ में एक पैकेट लिए खड़ा था। उसे देखते ही बोला, ''अब तो मैं लौटने ही वाला था। मुझे लगा घर पर कोई नहीं है। कितनी देर से घंटी बजा रहा हूँ। पर टी.वी. की आवाज़ सुन कर रुक गया।'' उसने पैकेट के साथ एक काग़ज़ रेणू को पकड़ाते हुए कहा, ''जल्दी से इस पर साईन कर दें। अभी कितने ही घरों में जाना है। हाँ अपना फोन नम्बर अवश्य ही लिख देना।''

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