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बस्ती में खुली जगह कोई थी नहीं। ले देकर पीपल के पेड़ के नीचे वाला बड़ा-सा चबूतरा था जो बस्ती के शुरुआती दिनों में किसी ने बनाना शुरू किया। उसमें धीरे-धीरे हर साल कुछ न कुछ जुड़ता रहा। शुरू में किसी ने मिट्टी के दो-चार ओटले बनाए। फिर धीरे-धीरे वहाँ एक चबूतरा बन गया। बस्ती में हैंड पंप लगा तो पत्थर की चीपों के टुकड़े बटोरकर उसमें लगा दिए गए। फिर पिछले गणेशोत्सव में जब तय हुआ कि बस्ती के सार्वजनिक गणेश वहीं बिठाए जाएँगे तो आनन-फानन चंदा इकठ्ठा हुआ और गणेश जी की स्थापना के पहले ही एक पक्का चबूतरा बन कर तैयार हो गया। वह वही चबूतरा बस्ती के सार्वजनिक स्वप्नों की शरण स्थली था। वहीं बैठकर बड़े बूढ़े लड़के लड़कियों के विवाह संबंध तय करते, वही बिरादरी के झगड़े निपटते और वहीं आज के कार्यक्रम की तरह के सार्वजनिक कार्यक्रम होते।

चबूतरे की सफ़ाई हो गई थी। उस पर मेज और कुर्सियाँ लाकर रखी जा चुकी थीं। इस समय मेज़ पर एक धुला हुआ कपड़ा मेज़पोश की तरह बिछाया जा रहा था। उसने संतुष्ट नज़रों से इस गतिविधि को देखा फिर वह गली के मुहाने पर रखी झाडुओं, टोकरियों और फावड़ों की तरफ़ बढ़ गया। दरअसल मंत्री जी अपने भाषण के बाद यहीं आकर सफ़ाई अभियान की शुरुआत करने वाले थे। गली बहुत संकरी थी इसलिए नगर निगम के प्रशासक के सुझाव के मुताबिक गली के मुहाने पर एक तरफ़ कचरे का एक ढेर इकट्ठा कर दिया गया था। बस्ती में कचरे के ढेर के लिए कोई नियत जगह नहीं थी, पूरी बस्ती ही, कूड़े का एक बड़ा-सा ढेर थी। अब भला यह उम्मीद कैसे की जाती कि मंत्री जी और उनके साथी सचमुच कूड़ा साफ़ करें इसलिए बस्ती के ही कुछ लोगों ने उसमें से कूड़ा इकट्ठा किया और गली के मुहाने पर एक ढेर की शक्ल में सजा दिया। कूड़े के संदर्भ में 'सजा दिया'  कहना इस मौके पर ग़लत नहीं था क्यों कि उस ढेर में से ही मंत्री जी द्वारा फावड़े के सहारे कूड़ा इकट्ठा कर कचरा पेटी में डालना आज के आयोजन का 'स्टार आयटम' था।

मंत्री जी के साथ बस्ती के वार्ड सदस्य और युवा प्रकोष्ठ के प्रमुख अनिल भाई भी सफ़ाई अभियान में भाग लेने वाले थे। युवा प्रकोष्ठ के प्रमुख यानी उसके 'इमीडियेट' बॉस।

शंकर किस तरह भीड़ जुटाने की अगुआई करते-करते एक राजनैतिक पार्टी के युवा प्रकोष्ठ प्रमुख अनिल भाई का चमचा बन गया और कैसे उसने उनके ही ज़रिए आज का यह कार्यक्रम तय करवाया यह एक अलग कहानी है। अनिल भाई खुद अपने लिए इसे एक बढ़िया अवसर मान रहे थे। सोचो तो कितनी 'पब्लिसिटी' मिलेगी। समाचार पत्रों की सुर्खियों में ख़बर होगी- 'युवा प्रकोष्ठ के अनिल भाई के अथक प्रयास सफल। मंत्री जी द्वारा सफ़ाई वालों की बस्ती में स्वच्छता अभियान का शुभारंभ' भाई वाह!! खुद सफ़ाई वालों की बस्ती का पूरा सपोर्ट मिले इसलिए अनिल भाई ने शंकर से भी कह रखा था- 'देखता जा। इधर कार्यक्रम सफल हुआ और उधर युवा प्रकोष्ठ में तेरे लिए एक जगह तय।' उसने अपनी तरफ़ से जी भर कर भागदौड़ की थी। बड़े बूढ़ों में कहता फिरा था- मुझे हमेशा डाँटते डपटते थे न काका। मंच के ऊपर मंत्री जी की बगल में बैठूँगा तब देखना। अतिरिक्त उत्साह में एकाध बार उसने यह भी जोड़ा- मंत्री जी बस्ती से ए. बी. रोड तक पक्की सड़क की घोषणा भी करने वाले हैं। आख़िर इतने बड़े नेता हैं, बस्ती को क्या इतना भी न देंगे? जो बात वह कह नहीं पाता था लेकिन जो इन दिनों एक मोहक सपने की तरह उसके जेहन में शक्ल अख़्तियार कर रही थी यह थी कि एक न एक दिन सियासत में उसका भी बड़ा-सा कद होगा- लोग उसे भी इसी तरह उद्घाटन और शिलान्यास के लिए बुलाया करेंगे और उसके पास भी नारों से उसका जयजयकार करने वाले समर्थकों का एक हुजूम होगा।

भैया जी, ज़रा देख लें। बस कि रोलर और चलाएँ। रोड़ रोलर का ड्रायवर उससे पूछ रहा था। वह मानो सपने से वापस लौटा इस रोड-रोलर वाले पर झुंझला भी नहीं सकता था। इतना वक़्त था भी नहीं। उसने ए. बी. रोड से बस्ती तक के कच्चे रास्ते पर नज़र डाली। हाल की ही बारिश से उसमें कीचड़ ही कीचड़ हो गया था। आज के कार्यक्रम के मद्देनज़र पूरी बस्ती के लोग उसे ठीक-ठाक करने में लगे थे। निगम प्रशासक ने रोड रोलर भिजवा दिया था एक ट्रक गिट्टी भी पड़ गई थी। सुबह से उस पर रोड रोलर चल रहा था। लेकिन कच्ची सड़कें क्या इस तरह एक दो दिन में ठीक होती हैं। कोशिश थी कि सड़क कम से कम इस लायक हो जाए कि नेताजी के पैर कीचड़ में न धँसें। पाँव पैदल, टखने तक कीचड़ में धँसकर भला वे कैसे आएँगे?

हाथ घड़ी में समय देखकर उसकी हड़बड़ी थोड़ी बढ़ गई। अरे कहाँ हैं कलश सिर पर धरे अगवानी के लिए तैयार लड़कियाँ और कहाँ हैं हार फूल वाले? वह अपने लग्गू भग्गुओं पर चीखा।

मंत्री जी की अगवानी मुख्य सड़क के उस मोड़ पर की जाना तय हुआ था जहाँ से बस्ती का कच्चा रास्ता शुरू होता है। अगवानी कौन-कौन करेंगे इसकी सूची दो दिन पहले ही तय हो गई थी। इस समय वे सब पीपल वाले चबूतरे पर नेताजी की अगवानी के टाइम का इंतज़ार कर रहे थे। उनके चाय पानी का प्रबंध वहीं कर लिया गया था। पार्टी फंड से शंकर को कुछ एडवांस मिला था और बाकी राशि चंदे से इकट्ठी कर ली गई थी। मंच स्थल के पास मंत्री जी अगवानी में 'ज़िंदाबाद! ज़िंदाबाद!' करने के लिए तैयार मोहल्ले के निठल्ले छोकरों की टोली भी तैयार खड़ी थी। स्कूल का वक़्त था वरना स्कूली छोकरी को भी शामिल कर लिया जाता। हाँ, जो छोकरे स्कूल न जाकर गली में कंचे या गुल्ली डंडा खेलते रहते हैं, उन्हें अवश्य ढंग के कपड़े पहनाकर इस स्वागत दल में शामिल कर लिया गया था। इस तरह तीस चालीस जनों की अच्छी ख़ासी टोली अगवानी के लिए तैयार थी। उन्हें बस इशारे की देर थी। वे दो मिनट में ही कूदते-फाँदते दौड़ लगाते अगवानी स्थल वाले मोड़ पर उपस्थित हो सकते थे।

मंच के सामने अब श्रोतागण आ-आ कर बैठने लगे थे। कुछ देर पहले ही रामू पहलवान को भीड़ इकट्ठा करने का काम सौंपा गया था। उसने घर-घर जाकर हाँक लगाई थी। भला किसमें हिम्मत थी कि उसका हुक्म टालता। महिलाएँ ख़ास मौकों के लिए सहेजकर रखे चमकदार रंगों वाली साड़ियों में थीं। पुरुषों के पास जो भी ड्रेस ठीक-ठाक हालत में थी उसे ही धो-धो कर, इस्तरी करवा के पहना गया था। उसने घड़ी देखी, अगवानी करने वाले बुजुर्गों को साथ लिया और अगवानी स्थल की तरफ़ कदम बढ़ाए।

उसके इशारे पर जयकार करने वालों की भीड़ भी पीछे-पीछे चल दी। सामने की पंक्ति में सर पर कलश लिए सीता, श्यामा और आशा थीं और फूल मालाएँ लिए दगडू। आज के आयोजन में इतना महत्वपूर्ण स्थान पाकर वे सब प्रसन्न थे. . .ख़ासकर दगडू। वह एक डंडे में मालाएँ टाँगे हुए उन्हें. . . धक्कम धुक्का से बचाते हुए तन कर चल रहा था और उसके चेहरे पर एक स्थायी-सी मुस्कुराहट चिपकी हुई थी. . .जो थोड़ी बेतुकी-सी थी लेकिन उसके भीतर अचानक आ चुकी इतनी सारी खुशी का सशक्त परिचय देती थी। सभा स्थल पर गौरी, कमली, और रघु की नई-नवेली बहू को हारमोनियम और पुंडरीक को तबले के साथ तैयार रहने के लिए पहिले ही कह दिया गया था। उन पर स्वागत गान की ज़िम्मेदारी थी। लाउडस्पीकर वाला बार-बार लता मंगेशकर का 'ओ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँखों में भर लो पानी' वाला गीत बजाए जा रहा था जो इधर ऐसे अवसरों के लिए बेहद चलन में था- हालाँकि सचाई यह थी कि आज़ादी के इन पचास सालों में आँख का पानी यो तो लगभग सूख चुका था या मर चुका था। आँखे भर लेने की तो बात ही बेमानी थी।

ग्यारह बजने ही वाले थे। उन्हें तो कभी का अगवानी स्थल पर पहुँच जाना चाहिए था। आसपास की बस्तियों के लोग देखें ऐसा कुछ समाँ भी बाँधना था न। 'जल्दी चलो भाइयों बहनों, हमें देर हो रही है' उसने चिल्लाकर कहा। भीड़ की चाल में कुछ तेज़ी दिखाई दी लेकिन फिर वह सुस्त पड़ गई। दो एक बार टोकना पड़ा। बस्ती की परली तरफ़ वाले वॉचमैन चाचा ने अपने साथ चलते भैया मुकादम से फुसफुसा कर कहा- 'अरे नेता लोग कोई टाइम पर आते हैं। ये शंकर बेकार ही हड़बड़-हड़बड़ कर रहा है।'

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1 अक्तूबर 2007

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