|  सभी जानते थे कि प्रधान और 
                    विधायक से लेकर ऊपर तक कोई उनकी मदद नहीं करेगा। क्यों कि जिस 
                    कंपनी को वह काम मिला था वह बहुत बड़ी कंपनी थी जिसने अरबों 
                    रुपए इस योजना के लिए लगा दिए थे। उन्हें इससे कोई मतलब न था 
                    कि उनके काम से नदी ग़ायब हो रही है, या जंगल नष्ट हो रहे हैं 
                    या गाँव की ज़मीन धँस रही है, या ग़रीबों की रोज़ी-रोटी छीनी 
                    जा रही है। उनके लिए तो पहाड़ सोना थे और प्रदेश की सरकार 
                    विकास के नाम पर उस कंपनी पर बहुत ज़्यादा मेहरबान भी थी। मगर 
                    लोगों के पास अब कोई रास्ता न बचा था। पुजारी ने ही लोगों को 
                    सुझाया कि क्यों न देवता का आशीर्वाद लिया जाए। वैसे भी उनके 
                    गाँवों के देवता की दूर-दूर तक मान्यता थी। यहाँ तक कि चुनाव 
                    होने से पहले मुख्यमंत्री तक वहाँ माथा टेकना नहीं भूलते थे। 
                    वह प्राचीन मंदिर था जिसकी भव्यता देखते ही बनती थी। दो 
                    मंज़िलें इस मंदिर की एक मंज़िल ज़मीन के नीचे थी जिसमें 
                    लाखों-करोड़ों का साज-सामान रखा हुआ था। मंदिर के तक़रीबन सभी 
                    कलश और मूर्तियाँ सोने की थीं। किवाड़ों पर ग़ज़ब की नक्काशी 
                    थी। यानी उस इलाके का वह सर्वाधिक भव्य मंदिर था। देवता भी 
                    शक्तिशाली था। देव 
                    पंचायत ने देवता का आह्वान किया तो देवता नाराज़ हो गया। 
                    प्रधान, विधायक और मुख्यमंत्री पर बरस पड़ा। विनाश की बातें 
                    होने लगी। निर्णय हुआ कि विधायक को यहाँ बुलाया जाए। देवता की 
                    तरफ़ से फ़रमान जारी हुआ लेकिन विधायक नहीं आया। फिर 
                    मुख्यमंत्री को फ़रमान गया। मुख्यमंत्री ने सहजता से उत्तर भी 
                    दिया कि वे देवता का अपार आदर करते हैं लेकिन विकास के मामले 
                    में देवता को बीच में लाना कोई विपक्षी राजनीति है। लोग निराश 
                    हो गए।अब निर्णय हुआ कि मिलकर इस लड़ाई को लड़ा जाए। कंपनी का काम 
                    रोका जाए। इसलिए उस गाँव के साथ कई दूसरे गाँव के लोग भी 
                    इकट्ठे हो गए और बड़े समूह में विरोध करते हुए कंपनी के काम को 
                    रोक दिया गया। लोग वहीं धरने पर बैठे रहे। दूसरे दिन उन्हें 
                    भनक लगी कि शहर से हज़ारों पुलिस जवान आ रहे हैं। टीकम पुलिस 
                    की ज़्यादतियों से वाक़िफ़ था। विचार-विमर्श हुआ। तय किया गया 
                    कि देवता का सहारा लिया जाए। कुछ लोग वापस लौटे और देवता का 
                    पारंपारिक विधि-विधान से शृंगार किया गया। उनके पास यह अपने 
                    गाँव, नदी और ज़मीन को बचाने का आख़िरी विकल्प था।
 देवता अपने बजंतर के साथ पहली बार एक अनोखे अभियान के लिए 
                    निकला था, विरोध के लिए निकला था। आज न कहीं देव जातरा थी और न 
                    कोई देवोत्सव, न किसी के घर कोई शादी-ब्याह था, न किसी की 
                    इच्छा ही पूरी हुई थी। दोपहर तक देवता विरोध स्थल पर पहुँच 
                    गया। देवता के साथ असंख्य लोग थे। सौ से ज़्यादा लोग तो पहले 
                    ही कंपनी के काम को रोके बैठे थे। देवता और सरकारी पुलिस 
                    तक़रीबन-तक़रीबन एक साथ पहुँचे थे। लोगों को विश्वास था अब कोई 
                    ताक़त उनके विरोध को कुचल नहीं सकती। उनके साथ देवता है। उसकी 
                    शक्ति है।
 स्थिति गंभीर बनती जा रही थी। 
                    लेकिन कंपनी अपने काम को किसी भी तरह से रोकने के पक्ष में 
                    नहीं थी। यदि सड़क निर्माण का यह काम रुक गया तो अरबों का 
                    नुकसान हो सकता था। इसलिए सरकारी आदेश भी ऐसे थे कि किसी तरह 
                    से लोगों को वहाँ से भगाया जाए।पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने लाउडस्पीकर पर कई बार हिदायतें 
                    दीं कि लोग पीछे हटते जाएँ। लेकिन लोगों का जलूस देवता के 
                    सान्निध्य में बढ़ता चला गया। सबसे आगे देवता का रथ था। 
                    सोने-चाँदी की मोहरों से सजा हुआ। साथ उसके निशान थे। बाजा-बजंतर 
                    था। स्थिति जब नहीं सँभली तो पुलिस को लाठी चलाने के आदेश दे 
                    दिए गए। वे शिकारी कुत्तों की तरह लोगों पर टूट गए। उस विरोध 
                    में मर्द, औरतें, जवान, बूढ़े और बच्चे भी शामिल थे।
 लोगों की भीड़ पर पुलिस की 
                    लाठियाँ बरस रही थीं। पर लाठियों का असर कोई ख़ास नहीं हो रहा 
                    था। पहाड़ी शरीर, मिट्टी-गोबर से पुष्ट उन देहातियों पर जब 
                    लाठियाँ असरदार नहीं रहीं तो बंदूकें तन गईं। फिर एकाएक 
                    गोलियाँ चल पड़ीं। पहली गोली देवता के एक बुज़ुर्ग कारदार को 
                    लगी थी। वह पहाड़ी से लड़खड़ाता नीचे गिर गया। दूसरी गोली 
                    पुजारी को लगी। वह ज़ोर से चीख़ा। उसके हाथ से फूल-अक्षत और 
                    सिंदूर की थाली नीचे गिर गई और बेहोश हो गया। लोग बहुत घबरा गए 
                    थे। अब गोलियों का सामना करना कठिन हो रहा था। वे पीछे हटने 
                    लगे, भागने लगे। लेकिन उनका भागना बेअसर साबित हुआ। रास्ता 
                    संकरा था जिससे ऊपर भागने में कठिनाई हो रही थी। आर-पार ढाँक 
                    थे। दाईं तरफ़ गहरी खाई। नीचे असंख्य पुलिस वाले हाथों में 
                    लाठियाँ और बंदूके ताने ऊपर की ओर बढ़ रहे थे। दो युवाओं को भी 
                    गोली लगी थी। उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया था। एक लड़की अंतिम 
                    साँसे गिन रही थी। कई लोग घायल हो गए थे। रास्तों और झंखाड़ों 
                    में गिरे-पड़े थे।  टीकम जैसे-तैसे देवता को 
                    बचाने में लगा था। रथ का मुँह पीछे मोड़ कर कारदारों को वहाँ 
                    से भागने के लिए चिल्ला रहा था। देवता शृंगार में था। लोगों के 
                    कंधों पर था। उनके न रथ छोड़ते बन रहा था और न भागते हुए। 
                    देवता भी लाठियाँ-गोलियाँ नहीं रोक पाया। अपने हक की लड़ाई में 
                    लोग अपार विश्वास और आस्था के साथ उसे अपने साथ लाए थे। देवता 
                    के साथ यह अपनी तरह का अनूठा विरोध था पर गोलियों के आगे वह भी 
                    असहाय हो गया था। देवता के साथ लाने से लोगों में एक अतिरिक्त 
                    उत्साह पैदा हो गया था। उनके साथ देवता की शक्ति थी। कोई उनका 
                    कुछ नहीं कर सकता था। उनकी यह सोच ग़लत साबित हुई थी। देवता 
                    चुपचाप देखता रहा। गूर में कोई देवछाया नहीं आई। सहायक गूर भी 
                    नहीं खेले। पंचो की कोई पंचायत नहीं हुई। ढोल-नगाड़े पहाड़ियों 
                    से नीचे लुढ़क गए। देवता न गोलियाँ रोक पाया, न अपने कारकुनों 
                    व लोगों का जीवन बचा सका। कुछ युवाओं ने हिम्मत दिखा कर मरे 
                    हुए लोगों की लाशें उठा ली थीं। लोग निराश हताश लौट रहे थे। 
                    घरों में औरतें और बच्चे इंतज़ार कर रहे थे। मुश्किल से लोग 
                    गाँव तक पहुँचे थे। उनके साथ एक कारदार, पुजारी और दो युवाओं 
                    की लाशें देख सभी का कलेजा मुँह को आ गया था। इस हादसे ने पूरे 
                    गाँव और इलाके को दहला दिया था। देवता के गूरों और कारदारों को 
                    कुछ नहीं सूझ रहा था। युवा आक्रोश में थे। उन्होंने देवता के 
                    रथ को कारदारों से छीन लिया और मंदिर के प्रांगण में रख दिया। 
                    साथ बचे हुए ढोल, नगाड़े, करनाले और दूसरे वाद्य भी। एक युवा 
                    घर से मिट्टी का तेल ले आया। देवता के रथ को जलाने में अब कुछ 
                    ही देर थी। लेकिन टीकम ने उन्हें समझा-बुझा कर रोक दिया था। 
                    जैसे-तैसे लोग शांत हुए तो देवता को कोठी में बंद कर दिया गया। 
                    यह अविश्वास की पराकाष्ठा थी। आज कई भ्रम टूटे थे। आस्थाएँ मरी 
                    थीं। देवता मंदिर में चुपचाप पड़ा था। शक्ति विहीन। कहाँ गई 
                    उसकी शक्ति। क्यों उसने सहायता नहीं की। क्यों कोई चमत्कार 
                    नहीं हुआ। क्यों उसने अपना विराट रूप नहीं दिखाया। फिर किस लिए 
                    उसका बोझ गाँव-परगने के लोग सदियों से ढोते रहे...? ऐसे अनेकों 
                    प्रश्न थे जो लोगों के दिल में बार-बार उठ रहे थे।  बात आग की तरह पूरे इलाके में 
                    फैली गई थी। पुलिस की ज़्यादतियों से लोग खिन्न थे, आश्चर्य 
                    चकित थे। देवता के होते हुए जो कुछ हुआ उसे देख कर हतप्रभ थे। 
                    जब देवता कुछ नहीं कर सका तो उनका कौन अपना होगा? हताशाएँ 
                    चारों तरफ़ थीं। अंधकार चारों तरफ़ था। परियोजना की बलि चढ़ 
                    जाएगा उनका गाँव। न पशुओं को पानी, न खेतों को पानी, न जंगल की 
                    हरियाली, न नदी का शोर, कुछ भी नहीं। शेष रह जाएगा तो डायनामाइटों का शोर...। गिरते-दरकते पहाड़। पिघलते 
                    ग्लेशियर...। पुलिस वाले अब निश्चिंत हो गए 
                    थे। उनकी गोलियों के आगे देवता की भी नहीं चली। वे मस्ती में 
                    खा पी रहे थे। उन्होंने सरकार के साथ कंपनी के अफ़सरों को भी 
                    खुश कर दिया था। बकरे कट रहे थे। कंपनी के लोगों ने सारे 
                    इंतज़ाम उनके लिए किए थे। पुलिस और कंपनी के लोग पहले देवता के 
                    नाम से अवश्य डरते थे। उसके सुने हुए चमत्कारों से डरते थे। 
                    लेकिन अब महज़ ये किंवदंतियाँ ही थीं। जब पुलिस ने गोलियाँ 
                    दागीं तो वही परम शक्तिशाली देवता लोगों की पीठ पर भाग खड़ा 
                    हुआ था। लेकिन अगले ही दिन यह समाचार 
                    सुर्खियों में था कि उस रात इस हादसे के शिकार हुए ग्रामीणों 
                    ने रात को शराब और मांस के उत्सव में मदहोश हुए पुलिस व कंपनी 
                    के लोगों पर धावा बोल दिया था और सुबह तक उनका वहाँ कोई 
                    नामोनिशान नहीं था। मौका-ए-वारदात से महज़ कुछ बंदूकें, दस-बीस 
                    लाठियाँ, दर्जनों शराब की टूटी हुई बोतलें, बकरों के कटे सिर 
                    और उधड़ी खालें और फटी हुई वर्दियों के टुकड़े बरामद हुए थे। 
                    शायद जिस देवता को पुलिस के आतंक ने भगोड़ा बना दिया था वहीं 
                    ग्रामीणों में सामूहिक रूप से प्रकट हो गया था और ग्रामजनों ने 
                    अपने आक्रोश से शासन की दमनकारी शक्तियों को तहस-नहस कर दिया 
                    था।  |