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आख़िर मुझसे रहा नहीं गया, दो तीन बार हवा में हाथ लहराकर मैंने उसे इशारा कर अपने पास बुलाना चाहा। वह जस-तस खड़ा रहा, मैं बैंच पर से उठा और आठ-दस कदम चलकर उसके सामने खड़ा हो गया।
"अपने देश नहीं गया जंग बहादुर?"
वह चौंका शायद उसका मस्तिष्क भी झनझना उठा, उसकी आँखें अनायास गोल-गोल घूमने लगीं, मैंने पूछा, "क्या हुआ जंग बहादुर?"
"नहीं नहीं, कुछ नहीं साब!" कहते उसकी घिघी बँध गई, उसने स्वयं को सँभाला। "ओह!" उसके मुँह से निकल गया हवा का भभका हमारे बीच की हवा को गंदला कर गया। उसने अपनी फतुई ठीक की, पसीने से लथपथ बू मारते शरीर को तरोताज़ा करने का प्रयास किया, कंधे पर झूल रही रस्सी को ठीक करते हुए "कुछ नहीं हुआ साब" जैसा वाक्य दोहरा दिया।
"तुम नेपाल नहीं गए अपने देश?"
"अपना देश, अपना ही होता है-बार-बग्वाल पर कौन नहीं चाहेगा वहाँ जाना।" उसने अपने निराश स्वर में कहा।
"दीपावली के अभी दो दिन बाकी हैं।"
"हाँ साब! दो दिन दो माह दो साल भी हो सकते हैं, बहुत बड़ा देश है नेपाल, मुझे तो अपना मुल्क डोटी तक ही जाना है।" उसका सदा मुस्कराने वाला चेहरा सफ़ेद फीका पड़ गया, वह कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं सका, बचपन से वह हमारी कॉलोनी में आता-जाता था, यहाँ की हवा-पानी में उसकी पहचान शामिल हो गई थीं, कॉलोनी से उसका जीवन जुड़ गया था। माल, लोअर बाज़ार से घर-गृहस्थी का बोझ ही नहीं, जीवन-मरण के काम भी वह स्नोडन तक करता था, सुबह आख खुलने पर वह दिख जाए तो सारे काम चुटकी भर में होने की सकारात्मक धारणा लोगों में घर कर गई थी, किंतु आज उसके सफ़ेद चेहरे को देखकर सारी उम्मीदें बेमानी लग रही थी।
"आओ, वहाँ बैंच पर बैठ लेते हैं।" मैंने कहा, मन हुआ कि उसकी बाँह थामकर हवाघर तक ले चलूँ। उसके बू मारते शरीर की हालत देखकर मुझे उबकाई-सी आने लगी, मैंने उसकी बाँह नहीं पकड़ी, वह मेरा अनुसरण करता स्वयं हवाघर की ओर चला आया।
बैंच पर कंधे पर झुलता बैग मैंने रखा और बैठ गया।
मैं उसे देखता रहा, वह मेरे लिए पहले जैसा नेपाली नहीं रह गया था, जिसकी आवाज़ में खनक और चाल में ज़मीन धँसती थी- वह असहाय, निरीह लग रहा था।
जंग बहादुर ने कंधे पर झूल रही रस्सी बैंच पर रखी, बैंच की धूल अपनी हथेलियों से साफ़ की और एक लंबी फूँक मारकर सारी धूल उड़ा दी, फिर निश्चिंत भाव से वह बैठ गया, हौले-हौले वह बोला गोया शब्द उसके होंठों से झर्र रहे थे- "दीपावली की ख़रीददारी करने आया साब जी।"
"हाँ।"
"तो सामान मैं ले जाएगा साब। कितना सामान है।"
"ज़्यादा नहीं, मगर तुम तो..."
"जी ख़राब है साब, भौत-भौत ख़राब है।"
"क्यों ऐसा क्या हुआ," मैंने सहजता से पूछा।
"अपना देश याद आ रहा है, मुलुक याद आ रहा है, सैणी और बच्चे सब याद आ रहा हैं।" कहते-कहते कंठ भर आया, आँखों में जैसे पसीना-सा पानी तैरने लगा।
"तो, चले क्यों नहीं गए?"
"कैसा जाता, जंग बहादुर का जाना अब पहले जैसा आसान नहीं है, तुम तो जानता है साब।"
"क्या?"
"तुमने कभी सुना, जैसा अपना ये देश है वैसा ही अपना मुल्क भी और वैसा ही अपना घर भी।"
"तो, पूरी बात बताओ, रुक क्यों गए?"
"क्या बताएगा साब।" कहते ही जंग बहादुर ने अपना माथा पकड़ लिया, एक विचित्र किस्म की चुप्पी-गोया उसकी ज़बान ने उसका साथ छोड़ा, शरीर भी निर्जीव-सा प्रतीत हुआ। उसकी आँखें जो ज़मीन को एक टक घूर रही थीं, उनसे प्राण फुर्र उड़कर सैणी के पास डोटी चले गए थे। उसे देख कर मैं भी चुप्प हो गया।
जंग बहादुर से अधिक कुछ कहना उचित नहीं लगा। बड़ी देर तक जब उसने गर्दन नहीं उठाई तो उसके सचेत करने का बहाना मैं भी ढूँढ़ने लगा, प्रकृति के मनोरम दृश्य को देखने जब सुबह से ही 'मालिंग' करते लोगों की भीड़ उमड़ आई थी, ऐसे में मुझे अपने पूरे दिन की बलि जंग बहादुर के लिए देनी पड़ सकती थी, मैंने अपनी जेब टटोली और बीड़ी का बंडल निकाल कर जंग बहादुर की तरफ़ बढ़ा दिया।
"बीड़ी खाओगे, जंग बहादुर।" मैंने उसे कहा।
वह चुप रहा, मुझे उम्मीद थी कि वह झट से कहेगा। "तुम भी नेपाली हो गया साब, तुम भी बीड़ी खाएगा बोलता है।"

इस बार उसने अपनी गर्दन उठाई, देखा उसकी गहरी नीली आँखें उघड़ी-उघड़ी-सी जिनमें सुर्ख लालिमा सरसरा रही थी। इस समय वह सामान्य-सा लगने वाला जंग बहादुर नहीं, फन फैलाया कोबरा बन गया जिसने मेरी हथेली में रखे बीड़ी-माचिस को देखकर आँखें बंद कर ली। फुंकारते हुए बोला, "तुम भी हमको बंद करना चाहता है साब। हमने इतने साल तुम लोगों का सेवा किया है।"
मैं एकदम हकबक, मेरी समझ में जितनी बातें उसकी पीड़ा परेशानी से संबंधित समझ में आईं वह सब मस्तिष्क से ग़ायब हो गईं। मैं एकटक उसके चेहरे की भाव भंगिमा देखता रहा गया, "आख़िर हुआ क्या जंग बहादुर, तुम इस तरह क्यों बिफर रहे हो।"
"कमेटी वाला देख लेगा तो हमको पकड़ कर ले जाएगा।"
"मैं भी तो पी रहा हूँ।"
"तुम्हारा बीड़ी खाना दूसरी बात है, बड़ा आदमी का बड़ा बात, हम तो मज़दूर हुआ। परदेशी है न हम, हमारा यहाँ कौन है साब- अपना हाथ-पाँव चलता है बस, इनका साथ है, तुम लोग सिगरेट खाएँगा, उसको भी देगा-बस-।"
"लो पहले मैं सुलगा लेता हूँ - खुश।"
"इस टैम हम नहीं खाएगा, हवाघर को सुबह-सुबह हम ख़राब नहीं करेगा।" जंग बहादुर के स्पष्ट इंकार करने से मुझे बड़ी हैरानी हुई, उसके प्रति मन में सहानुभूति उपज रही थी तो दूसरी तरफ़ उसकी परेशानियों से उसे मुक्त करने की चाह, जब भी भारी बोझा वह बिसारता तो एकायक उसका हाथ अपनी जेब में चला जाता था। हाथ जेब से खाली कभी नहीं लौटता, कभी साबुत बीड़ी तो कभी बुझी हुई, वक्त-वेवक्त वह माचिस माँग ही लेता था। किंतु, आज- वह एक ही धुन पर था- "नहीं, नहीं साब, हम नहीं खाएगा।"
उसने मुझसे पिंड छुड़ाना चाहा, फ़ुर्ती से उठा और अपनी रस्सी भी उतने ही झटके से उठा ली।
"लो मैं भी नहीं पीऊँगा।" कहकर मैंने सुलगाई हुई बीड़ी बुझा दी और उसकी ठुड्डी हवाघर की रेलिंग से बाहर फैंकते हुए कहा, "अब तो बैठ लो।"
उसने हाथ से कसकर पकड़ी हुई रस्सी बैंच पर रख दी।

हम दोनों के बीच एक अजीब तरह का मौन फैल गया। जब काफ़ी देर हो गई, मौन असहनीय हो गया तो मैंने फिर से पहल की, जंग बहादुर के चेहरे को नज़र उठाकर देखा।
वह ज़रा भी विचलित नहीं था, आँखे भी एकटक सामने की पहाड़ी पर टिकी हुई थी- जहाँ बादलों के नन्हें-नन्हें बच्चे स्वच्छंद खेल रहे थे।
मैंने भी उसकी नज़र का लक्ष्य देखना चाहा, मुझे बादलों के बच्चे अब पहले जैसे नहीं दीखे - वे बड़े हो गए थे, उन्होंने काफ़ी विस्तार लेना शुरू कर लिया था, उनका घेरा धीरे-धीरे हमारी आँखों के कक्ष से भी बाहर जा रहा था- अब वे पहले की भाँति सफ़ेद भी नहीं थे, दिन के चढ़ने के साथ अपना रंग भी बदलने लगे। मैंने सोचा जंग बहादुर की आँखें जीवन के आनंद को महसूस कर रही हैं जिस तारतम्यता से वह उन्हें देख रहा है, उसकी लय को समझना आवश्यक है, उसके जीवन की लय को समझना चाहिए। उसकी तरह की चुप्पी का साथ मुझे देना चाहिए आख़िर हम दोनों इंसान हैं, एक ही मिट्टी के बने हुए। एक विचित्र किस्म की सोच मुझमें पनपने लगी।
जंग बहादुर नेपाली था, जो कि मैं नहीं हो सकता, उसकी सोच, खान-पान और रहन-सहन एकदम अलग- उसके अलग होने की पहचान करवा देता था, हम दोनों वर्षों से एक-दूसरे को जानते थे फिर भी उसमें अपना अलग होने का अहसास जब तब सिर उठाता रहता था, वह स्वयं को एक मेट, एक बोझारी, और एक डोटियाल होने का एहसास कराता था। जो एक बित्ता भर का जीव था। एक इंसान होने का भ्रम तो कभी नहीं रहा। मैं अपने ही विचारों की उधेड़-बुन में उलझता-उलझता गया। मुक्त होने की राह नहीं सूझी तो अपनी सोच का एक नया पहलू हाथ लग गया, जंग बहादुर के अस्तित्व को समझने की चेतना मुझ में जागी। मैं उसकी चुप्पी में ही शामिल हो गया।
जंग बहादुर ने करवट बदली- शायद पीठ थक गई थी।
मैंने उसकी करवट को वक्त की नज़ाकत समझ कर कहा- "यह एकांत का सुख है, क्या अब मन शांत हुआ?"
वह फिर भी चुप रहा।
"अपना मन छोटा न कर जंग बहादुर- ख़राब हो जाएगा, तुम परदेश में हो, परदेश हमेशा निर्जन स्थान-सा होता है, यहाँ उदास बैठे रहोगे तो कोई पूछेगा भी नहीं।"
"तो तुम ही बता देगा साब, अपना देश कहाँ है- यहाँ या वहाँ।" जंग बहादुर जैसे बिफर पड़ा।
जंग बहादुर के चेहरे पर लुक्की-छिप्पी खेलते भावों से मेरा मन डर-सा गया, उसको उसके देश, मुल्क का नाम याद दिलाने की हिम्मत तक नहीं जुटा सका, फिर थोड़ी देर बाद ही हमारे बीच वही शून्यता-सी फैल गई।
"तुम कह रहा था साब कि हम त्यौहार पर डोटी क्यों नहीं गया, गया था-तभी तो मालूम लगा कि मेरा देश अलग और अपना यह देश अलग है, तुम दिल से अलग हम अलग, आप तक तो ऐसा नहीं था साब।"
"दिल तो जुड़े हैं जंग बहादुर," मैंने उसे सांत्वना देने के लिए कहा।
"झूठ, झूठी आस मत दो साब, ऐसा होता तो 'बार्डर' की दीवार ऊँची क्यों की? यहा देश ही नहीं बँटा, दिल भी बाँट दिया साब, अपना ही देश जाना था हमको, अपना घर-डोटी, अपना जिला-डोटी, बाप-डोटी, इजा डोटी, सैणी डोटी और बाल बच्चा भी डोटी तो फिर मैं जंग बहादुर वल्द तोप बहादुर वल्द धर्म बहादुर अपना देश क्यों नहीं जा सकता, तीन पुश्तों का जोत हमारा जेब में तो नहीं होता, डोटी जाता फिर तहकीकात करता-"

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