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उसने अपने हाथ जोड़कर, धड़ को अपनी कमर पर आगे की ओर नब्बे डिग्री झुकाते हुए मेरा अभिवादन किया, जैसे लगातार प्रशिक्षण से शरीर मशीन में बदल जाता है। फिर उसने मेरे हाथ में एक लिफाफा थमाया और चुपचाप खड़ा हो गया।

'क्या है?'
'हुजूर रानी साहेब ने भेजा है आपके लिए...।'
अपेक्षाओं से उलट, उसकी आवाज पतली थी। मैंने उसे लाइट जलाने का इशारा किया। उसने फिर जल्दबाज़ी करते हुए बोर्ड के सारे स्विच खट्–खट् कर ऑन कर दिए। मेरे हाथ में हल्के नीले रंग का बड़ा सा लिफाफा था, कुछ तेलहा, कुछ पुराना–सा...। लिफाफे के बीच में लाल–काले रंग का एक गोल एम्बलम सा बना था, जिसमें चारों ओर लाल रंग की पत्तियों और फूलों की बेल थी, बीच में शेर का हल्का गुलाबी सा रेखाचित्र और एक राजसी दण्ड का काले रंग का प्रतीक बना था जिस पर एक रंगबिरंगा तिकोना ध्वज था। उस एम्बलम में कुछ लिखा भी था, जो मुझे आज याद नहीं है।

इस जगह आए मुझे लगभग दो माह हो चुके हैं। मेरा काम बहुत कुछ पब्लिक डीलिंग का है। सो जहाँ भी जाता हूँ वहाँ के प्रभावशाली लोगों के बारे में मुझे पता चल ही जाता है। एक ऐसी जानकारी जिसके लिए दो माह का समय काफी लंबा है। मैंने याद करने की कोशिश की। शायद किसी ने मुझे रानी साहेब के बारे में बताया हो और बात फिसल गई हो पर ऐसा नहीं हुआ था। लोगों ने यह जरूर बताया था कि चंदई पुराना प्रभावशाली सैल्यूटेड स्टेट था। यहाँ का पुराना किला, देवी दाई का भव्य मंदिर, हिरन नदी वाला पुराना पुल, पुलघटा वाला बांध, लगभग सभी दफ्तर और रानी बाग वाला महल, सब यहाँ के राजाओं ने बनवाए थे। इस बारे में लोगों ने बहुत कुछ बताया था। पर इन सबके होते हुए भी रानी साहेब का कहीं जिक्र नहीं हुआ। लोगों से ऐसी कोई बात भी नहीं हुई जिसके बाद मैं उनसे पुराने राजाओं के जीवित वंशजों के बारे में पूछता। उन्होंने चंदई के इतिहास और आज की जो भी बातें बताईं उसमें रानी साहेब नहीं थी, उन्हें जानने की चाहत भी नहीं थी।
'कौन रानी साहेब?' मैंने लिफाफा खोलते हुए हल्की रहस्यमयता के साथ हरि से पूछा।
'यहीं चंदई की रानी साहेबा...हुजूर।'
'क्या नाम है उनका?'
'महारानी...विक्रमकुमारी जी।' उसने झिझकते हुए कहा।

लिफाफे में एक हल्का गुलाबी कागज था जिसपर इंग्लिश में एक आमंत्रण छपा था, डिनर का आमंत्रण। वह आमंत्रण कम आदेश ज्यादा था, जैसे कोई बात जिस पर मुझसे फ़क्र करना अपेक्षित हो। मुझे थोड़ी खीज आई जैसे चलते हुए पैर से कोई पत्थर टकरा जाए और आप एक साथ स्वयं पर, पत्थर पर, भाग्य पर झुँझला जाएँ...। हरी ने मुझे पढ़ लिया और मेरे कुछ कहने के पहले ही बोल पड़ा–
'आप चाहें तो रानी साहेब से फोन पर बात कर सकते हैं, वे महल में ही हैं। कह रही थीं अगर इनकार हो तो उनसे एक बार बात अवश्य कर लें...।'
खीज कुछ कम हो गई जैसे तालाब की छोटी सी लहर किनारे पड़े मिट्टी के ढेले से टकराकर उसका कुछ हिस्सा घोल देती है, कुछ गिरा देती है और कुछ बहाकर ले जाती है। पर एक फाँस अटकी रही–
'कल मेरे पास बहुत काम है। मैं नहीं आ पाऊँगा।'
'एक बार बात कर लेते हुजूर, मैं फोन लगा देता हूँ।' उसने फिर हाथ जोड़ते हुए कहा।

गले तक कई बातें आकर अटक गईं जैसे बैगेटिल के खेल में कई गोलियाँ अलग–अलग नंबरों पर अटकी होती हैं। लगा कह दूँ – तुम्हारी रानी साहेब को सामान्य सा शिष्टाचार भी नहीं आता है, किसी को भला इस तरह आमंत्रित करते हैं, एक तुच्छ सा अनुरोध तक नहीं, एक शब्द ऐसा नहीं जो आमंत्रण हो...सिर्फ एक कोरा सा आदेश जिसे मैं हर किसी को बताता फिरूँ कि देखो मुझे रानी साहेब ने आमंत्रित किया है...उस रानी साहेब ने जिसका कोई जिक्र तक नहीं करता। पर हरि की असामान्य सी प्रतीत होती विनम्रता के कारण अंदर कुलबुलाई बात थोड़ी तरलता से ही आई–
'तुम समझ नहीं रहे हो। मैं सामान्यतः बाहर खाना वगैरा नहीं खाता हूँ। फिर इसकी जरूरत भी क्या है?'
मैंने कुछ धीरे से कहा और रेस्ट हाउस के गेट तक जाती अँधेरे में खोती बल खाती सड़क को देखने लगा।
'हुजूर के पहले जो साहब रहे...उनको भी रानी साहेब ने न्यौता भेजा रहा। वे आये रहे...।'
'पर मैं नहीं आ पाऊँगा।'
'आग्रह ना ठुकराएँ, बड़ी कृपा होगी...।' उसने जमीन पर गिरी मछली की पूँछ की तरह फ़ड़फ़ड़ाते हुए कहा।

बाद में मुझे रानी साहेब के प्रस्ताव को ठुकराने, उसे टालने के अपने तरीके पर मतली सी आई थी, जब मुझे पता चला कुँवर जी (रानी के पति) और रानी का अंग्रेज बड़ा सम्मान करते थे। एक बार वाइसराय के आमंत्रण पर दोनों दिल्ली गए थे, जहाँ उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया था और उनकी राजसी मेहमाननवाजी की गई थी। चंदई का सबसे बड़ा अंग्रेज अफसर जो एक पॉलिटिकल एजेण्ट होता था, रानी और कुँवर जी के सम्मान में अपनी कुर्सी से उठ जाता था और आज जब उनका सेवक मेरे सामने लगभग घिघिया सा रहा था, तब वे अपने महल में फोन के पास बैठी मेरे अनिश्चित से फोन कॉल का इंतजार कर रही थीं कि जब मैं उनका आमंत्रण अस्वीकार कर दूँगा, तब हरि उनसे मेरी बात करवाएगा और शायद वे मुझे मना लेंगी। बाद में जब मैं रानी साहेब से मिला तब उन्होंने मुझे वायसराय के आमंत्रण पर दिल्ली जाने वाली बात तो बताई थी, पर यह बात नहीं बताई कि उन दिनों उनका कितना सम्मान होता था। उन्हें यह बात बताना सूझा ही नहीं। उनमें रौब जैसा कुछ नहीं था। बस एक रॉयल अंदाज वाली बात थी और उनसे मिलने के बाद मुझे यकीन हो गया कि अगर मैं उनका आमंत्रण अस्वीकार कर देता और फोन पर उनसे बात करता तो वे मुझे मना लेतीं, शायद मैं खुद पर शर्मींदा भी हो जाता।

हरि मेरे सामने खड़ा था और मैंने उसे 'अच्छा ठीक है' के चालू अंदाज में हाँ कह दी। जिस दिन मैं रानी के महल गया उस दिन खूब पानी गिरा था। मैं अपनी गाड़ी से गया। रास्ता पता नहीं था सो सरकारी ड्राइवर को साथ ले लिया।

शहर से थोड़ा दूर रानी का महल किसी उजाड़ बस्ती सा था। लाइट नहीं थी, रात के अंधकार में वह थोड़ा भुतहा सा भी लग रहा था। महल के मुख्य द्वार तक का रास्ता ऊबड़–खबड़ और पानी के गड्ढ़ों से भरा था। रास्ते के दोनों ओर पुराने महल के टूटे बिखरे खण्डहरनुमा हिस्से थे। इन हिस्सों में कुछ गरीब लोगों ने अपना ठौर बना लिया था जिनमें से ढ़िबरी और लालटेन की मटमैली पीली रौशनी बाहर आ रही थी। पुराने किले की छोटी–मोटी बुर्जियों पर भी इन्हीं लोगों ने कब्जा सा कर लिया था जिसका टिमटिमाता प्रकाश गाड़ी के सामने से अचानक पीछे को भागता जाता था। कुछ देर गाड़ी एक ऐसी जगह रुकी जहाँ जमीन पर लगभग बीस फिट ऊँचा चबूतरा था जिसे घेरते हुए तीन तरफ ऊँची–ऊँची गुंबदाकार आकृतियाँ थीं, विशाल और ऊँघती सी। चारों ओर हँसिएनुमा चाँद की रौशनी से लड़ता सलेटी–दूधिया अँधेरा था। न कोई पहरेदार और न कोई रक्षक, बस एक निर्जीव सी काली छाया जो रानी का महल था।

मैं ड्राइवर के पीछे हो लिया। चबूतरे की सीढ़ियाँ चढ़कर हम ऊपर पहुँचे। चबूतरे पर ऊपर जहाँ सीढ़ियाँ खत्म होती थीं, वहाँ एक षटभुजीय पत्थर की छतरी बनी थी। छतरी में मोमबत्ती जल रही थी और एक आदमी उकडू बैठा ऊँघ रहा था। आवाज सुनकर वह हड़बड़ाया सा जाग गया। वह हरि था। चबूतरे के ऊपर सामने की ओर ऊँची मेहराबें बनी थीं। महल के अंदर की मरीज सी रौशनी मेहराबों में लटकते परदों के पार आ रही थी। ड्राइवर ने हरि को मेरे आने के बारे में बताया। शायद बात फुसफुसाती हुई महल के भीतर तक चली गई थी। रानी ने मेहराब के एक तरफ का परदा खींच दिया, मानो उनके कान किसी आहट पर ही लगे रहे हों– 'मिस्टर मुखर्जी...आइ वाज़ जस्ट वेटिंग फार यू।'
उन्होंने तेज कदमों के साथ मेरी तरफ आते हुए कहा। मेरे ड्राइवर ने बड़े अदब से उनका अभिवादन किया। उन्होंने ड्राइवर की ओर टॉर्च की रोशनी फेंकी–
'कौन?...अंजनी, आजकल तुम हो साहेब के साथ।'
'जी रानी साहेब।'
'प्लीज़ कम।'
उन्होंने मेरी तरफ मुड़कर धीरे से कहा।

दुबली–पतली, लंबी, गोरी रानी छिहत्तर साल की नहीं लगती थीं। इस मामले में समय उन्हें छल नहीं पाया था। उनका सफेद गुलाबी झुर्रीदार चेहरा, गर्वीली सी मुस्कान, आँखों की चमक और बेपरवाह सी चाल उन्हें रॉयल बनाती थीं। उनके हाथ में पीतल की मूठ वाली एक छड़ थी जिसे टेककर वे अपनी चाल को नियंत्रित करने का बेतुका सा प्रयास करती थीं।
'मैंने जब कल आपको इन्वीटेशन भेजा था, उसके बाद कुछ देर तक आपके फोन का वेट किया...।'
हम बरामदा छोड़कर हॉल में प्रवेश कर गए जो ड्राइंग रूम था।
'हम लोगों का एक तरीका है, एक ट्रेडीशन...किसी को इन्वाइट करने का हमारा अपना तरीका। हमें अच्छा लगता है...। कुछ लोग इसे अच्छा नहीं मानते हैं। मैं इस मामले में विजिलेण्ट रहती हूँ कि कहीं सामने वाले को कोई बात बुरी न लग जाए। तभी मैंने हरि से फोन वाली बात आपको कहलवाई थी।'

मुझे लगा यह टॉपिक बदल जाए तो अच्छा हो। पता नहीं हरि ने मेरी बातों, एक्स्प्रेशन्स से क्या अर्थ निकाला हो और रानी को क्या समझाया हो? पर वे कहती रहीं –
'मुझे हरि ने बताया था कि आपको कुछ अच्छा नहीं लगा। मैंने हरि से कहा तुमने जरूर कुछ गलत समझा होगा, शायद साहब परेशान रहे हों...। हमारे महल की परंपरा सब जानते हैं। उन्हें त्यागना बेमतलब की बात होगी और फिर परंपराएँ निभाई जानी चाहिए...
मुझे रानी की यह बात अच्छी लगी कि वे छुपाकर, बचाकर कुछ भी अपनी मुठ्ठी में नहीं भींचती हैं, बस बरसाती नाले की तरह कह देती हैं, मानो उनकी झुर्रियों और उनके मन के बीच कुछ भी न हो, पूरे छिहत्तर वर्षों का एक टुकड़ा भी नहीं।

हम दोनों ड्राइंग रूम में थोड़ी देर बैठे रहे। रानी का पालतू कुत्ता उनके पैरों के पास आ गया। उन्होंने उसे पुचकारते हुए अपनी लाठी से छुआ और वह कूँ–कूँ करता हुआ उनके पैरों के पास पसरकर बैठ गया।
ड्राइंग रूम एक विशाल हॉल था जिसकी छत बहुत ऊँची थी। इतनी ऊँची कि पेट्रोमैक्स की लाइट वहाँ तक नहीं पहुँच पा रही थी। हॉल के पीछे हॉल से जुड़ा एक लंबा गलियारा था। ऊँचे मेहराबदार दरवाजे और उनमें लटकते पर्दे हॉल को गलियारे से अलग करते थे। शनील के पर्दे कुछ जगहों से फट गए थे और कहीं–कहीं से उनकी सुनहरी किनारी उधड़कर लटक गई थी। पर्दों की सिलवटों के बीच ऊपर से नीचे तक धूल की हल्की परत जम गई थी जो पेट्रोमैक्स की रोशनी में चमक रही थी। जहाँ मैं बैठा था, उसके ठीक सामने वाली दीवार पर एक खूबसूरत आतिशदान बना था जिसके चारों ओर पीतल गढ़कर कार्विंग सी की गई थी। आतिशदान के ऊपर बाघ की भूसा भरी खाल को लकड़ी के स्टैण्ड पर कसकर दीवार पर लगा दिया गया था। वह बाघ ऐसा दीख रहा था, मानो दीवार से निकलकर बाहर आ रहा हो। उसकी कंचे जैसी आँख पर पेट्रोमैक्स का प्रतिबिंब एक बिंदु की तरह चमक रहा था। दूसरी तरफ की दीवार के ऊपरी हिस्से में दस पंद्रह आदमकद तस्वीरें लटकी थी जो पुराने राजा–महाराजाओं की पेंटिंग्ज थी। पेंटिंगों के नीचे विशाल मेहराबदार दरवाजा था जो हॉल को अंदर के कमरे से जोड़ता था। मेरे ठीक पीछे अखरोट की लकडी का बना विशाल पार्टीशन रखा था जिस पर सुन्दर कार्विंग की गई थी और जो हॉल को दो भागों में बाँटता था। उस पार्टीशन के पीछे डायनिंग टेबल रखी थी। पार्टीशन के एक दो पाये टूटे थे और उसकी लकड़ी जगह–जगह से फटी थी। ड्राइंग रूम में पुराने स्टाइल के शीशम की लकड़ी के सोफे रखे थे। लगभग आधे हॉल में एक पुराना कश्मीरी कालीन बिछा था जिसकी शनील कुछ जगहों से उधड़ गई थी और सूत की सिलाई दिखाई दे रही थी। बीच में सेंट्रल टेबल रखी थी जिसके चटके काँच को जोड़कर ठीक किया गया था। छत से एक इटैलियन कट का विशाल फानूस लटक रहा था।
'हमारा चंदई आपको कैसा लगा?'

रानी ने ठीक उसी तरह पूछा जैसे मेरी बीवी तल्लीनता से बनाया कोई व्यंजन मुझे चखने को देती है और फिर उत्सुकता से यह पूछकर कि वह कैसा बना है, मेरे जवाब के लिए मुझे ताकने लगती है।
'अच्छी जगह है। यहाँ की क्लाइमेट बढ़िया है और फिर यहाँ के पुराने भवन वगैरा...अभी भी नए जैसे ही लगते हैं, लगता नहीं कि उन्हें बने लंबा अर्सा हो गया है।'
वे मुस्कुरा उठीं। मैंने भवनों वाली बात जानबूझकर की।
'आपको मालूम है, लेट कुँवर प्रताप सिंह याने मेरे हसबैण्ड और मैंने इस जगह के लिए बहुत मेहनत की थी। कुछ और लोग भी हमारे चंदई को सजाने संवारने में हम लोगों की मदद करते थे। स्टेट टाइम में एक–एक चीज बहुत चुनकर और मेहनत के साथ बनाई गई थी। कुँवरजी ने कुछ आर्किटेक्ट्स की हेल्प भी ली थी। जब हम विदेश जाते थे तब अक्सर किसी न किसी आर्किटेक्ट से डिस्कशन कुँवर जी के प्रोग्राम में जुडा होता था। कई बार तो फ्रांस और स्कॉटलैण्ड से कुछ आर्किटेक्ट भी यहाँ आए थे। हमारे चंदई में एक ब्रिटिश सार्जेण्ट हुआ करते थे, मिस्टर बर्टेड, उन्होंने हमारी बड़ी हेल्प की थी। पर कुँवर जी किसी भी चीज को तभी फाइनल करते थे जब यहाँ के लोग रजामंद हो जाते थे। वे लोगों से इस विषय पर बात करते थे और तब जाकर किसी चीज को बनाने का डिसीज़न होता था। शायद ही कभी हुआ हो कि हमारे चंदई के लोग कुँवर साहेब की बात से डिसएग्री हुए हों और कुँवर साहेब ने भी शायद ही कभी यहाँ के लोगों की राय जाने बिना कोई कंस्ट्रक्शन करवाया हो। ऐसा जरूरी नहीं था पर वे लोगों की सलाह अवश्य लेते थे। फिर जब कोई चीज बन जाती तब उसकी अच्छी केयर की जाती थी। हर चीज पहले एक सपने सी होती थी...पर उसे हूबहू बना लिया जाता था। रानी बाग वाला महल, बाजार चौक का मूर्तियों वाला फ़व्वारा, देवी दाई की मढ़िया, सब कुछ चुनकर बनाया गया था। उन दिनों हमारा चंदई बहुत सुंदर था। अब तो सब कुछ समय और मौसम की मार से टूटता जा रहा है।'

मेरा ध्यान 'हमारा चंदई' शब्द पर गया। एक शब्द जिस पर रानी का ध्यान नहीं जाता, उनके ध्यान जाने का कोई कारण भी नहीं है। उन्होंने चंदई को 'हमारे चंदई' के अलावा किसी और तरह से नहीं जाना है। एक शब्द जो उनकी बातों में इतना सरल है, जैसे रोज का दाल–भात। रानी को शायद ही कभी पता चले कि यह शब्द आज के चंदई के लिए आउटडेटेड हो गया है। एक बात जिसे सब समझ सकते हैं पर रानी के पास उसे यों समझने का ना तो कोई कारण है और ना ही कोई तरीका।
'आपने वो बाजार चौक वाला फ़व्वारा देखा है?'
'जी हाँ...'
'पहले वह चारों तरफ से खुला था। अब तो वहाँ लोगों ने कब्जा सा कर लिया है। उसका एक हिस्सा भी गिर गया है। पर जब वह बना था, इट वाज़ यूनीक। उसकी कुछ मूर्तियाँ विदेश से मँगवाई गई थी। कुँवर साहेब ने उसे एक्सटेण्ड करने की योजना बनाई थी, पर वे कर नहीं पाए। सोचती हूँ काश मैं उनके बाद उनके अधूरे कामों को पूरा कर पाती,...बट आई एम हेल्पलेस। मैं उनका सपना पूरा नहीं कर सकती।'

एक सपना जो अब कुँवरजी की आँखों में नहीं है, जो अब रानी के भीतर खदबदाता है। पूरे हक के साथ देखा गया सपना, 'हमारी चंदई' वाला सपना, जिस पर अब घास उग आई है, दरारें पड़ गई हैं। सपना जो अचानक फिसलकर गटर में गिर गया। हक जो छिन गया, समय के दोष ने छीन लिया। रानी किसी से कह भी नहीं पाई कि वह छिन गया। आज भी उन्होंने मुझसे हक छिनने जैसी कोई बात नहीं की। किसी पर दोष मढ़ना उन्हें नहीं सूझता। बस कहती रहीं, हमारा चंदई, हमारा चंदई...और उन्हें पता भी नहीं चला कि उनकी जुबान से यह शब्द बेतुका सा लगता है। शायद इसे सुनकर लोग हँसते हों।
रानी की आँखें शनील के पर्दे पर चिपकी धूल की परत पर अटकी थीं। धूल की परत जो पेट्रोमेक्स की लाइट में हल्के पीलेपन के साथ परदे पर चिपकी थी जिसने उधड़ते शनील की चमक को थोड़ा कम कर दिया था। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था, जैसे बरसात में सीमेंट और लोहे पर जमकर बैठा सीवर होल का ढक्कन जिसके नीचे से खदखदाता बरसाती पानी बहता जाता है।

'आप कुँवरजी की फोटो देखना चाहेंगे?'
'हाँ क्यों नहीं...।'
वे मुझे भीतर के एक कमरे में ले गईं जहाँ एक विशाल आदमकद शीशे में गढ़ी एक पेंटिंग रखी थी। एक ऊँचे कद वाले रॉयल से आदमी की पेंटिंग।
'कुँवरजी एक बार लियोन गए थे। वहाँ किसी फ्रेंच आर्टिस्ट ने उनका यह पोर्टेट बनाया था। देखो उसका नाम भी लिखा है...।'
उन्होंने उस तस्वीर के निचले दायें किनारे की ओर इशारा किया जहाँ फ्रेंच में कुछ लिखा था। उन्होंने उस तस्वीर को धीरे से छूकर उसका काँच साफ किया और फिर बौडम से अंदाज में अपनी साड़ी के पल्लू से उस तस्वीर की धूल पोंछ डाली। वे उस तस्वीर को इस तरह देख रहीं थी, मानो पहली बार देख रही हों, मानो कोई अभी–अभी उन्हें यह तस्वीर दे गया हो। पर फिर लगा शायद वे तस्वीर को नहीं देख रही थी, सिर्फ एक ढोंग था तस्वीर को देखने का और उनके चेहरे पर उतर आया उनका मन उस जगह पहुँचा हुआ था जहाँ वह तस्वीर खुलती है।

'कुँवरजी का यह पोर्टेट मुझे सबसे अच्छा लगता है। उनके कई पोर्टेट इस महल में हैं। इससे कहीं ज्यादा महँगे, इससे कहीं ज्यादा कीमती। पर यह सबसे अच्छा है। कुँवर जी ने एक बार मुझसे पूछा था कि इस पोर्टेट में खास बात क्या है? यही तुम्हें सबसे अच्छा क्यों लगता है? आप यकीन नहीं करेंगे, मैं आज तक नहीं जान पाई कि यह मेरे लिए इतना स्पेशल क्यों है?'

एक बात जो उनके मन में हैं, पोर्टेट की विशिष्टता वाली बात। बात जिसे वे कह नहीं पाती हैं। बात जो शब्दों की सीमा के पार पड़ी है। बात जिसे शब्दों में गढ़कर बताने का असंभव सा प्रयास वे करती हैं और बता नहीं पाती हैं। वे कुँवरजी तक को नहीं बता पाईं थीं।
'सोचती हूँ, जब मैं नहीं होऊँगी तब इसे यहाँ के म्यूजियम में रख देंगे। मैंने अपनी एक विल बनवाई है, उसमें लिखा है इसे यहाँ के म्यूजियम में रखवा दिया जाय...।' वे मुस्कुरा दीं जैसे किसी लाश को कपड़े से ढँक देते हैं। फिर हरि आ गया। उसने बताया खाना लग गया है। हम दोनों डाइनिंग टेबल में बैठ गए। हरि खाना परोसने लगा। बातों ही बातों में पता चला कि खाना हरि ने बनाया है। मुझे अजीब सा लगा, एक ही आदमी खाना बनाता है, पहरेदारी भी करता है, महल की देखभाल भी और बाहर का काम भी।
'यू नो मिस्टर मुखर्जी, आई वाज़ ए रैबेलियन गर्ल...।'
उन्होंने खाना खाते–खाते, मुस्कुराते हुए झुर्रियों के बीच चमकती आँखों के साथ कहा।
'वो कैसे?'
'हमारे घर में, याने मेरे पिताजी के घर एक ट्रेडिशन सा था कि हर कोई पढ़ने के लिए केम्ब्रिज जाए। पर आप जानते हैं, मैंने यह ट्रेडिशन तोड़ा था। मैं येल गई थी। यह बात आपको छोटी लगती हो पर हमारी ट्रेडिशनल फेमिली के लिए यह बड़ी बात थी। फिर मैं लड़की थी। मैं जिद करके वहाँ गई थी। पर उसका एक कारण था।'
'क्या?'
'कुँवर जी येल के स्कॉलर थे।'
उन्होंने मुस्कुराते हुए सहजता से कहा। वे मुठ्ठी में भींचती नहीं हैं, बस कह देती हैं और जब वे पन्ने पलटती है तो उसमें कोई हिच नहीं होता।
'मतलब आप उन्हें पहले से जानती थीं।'
'हाँ, तभी तो येल गई थी...।'
उन्होंने जोर से हँसते हुए कहा, मुझे उनके पोपले मुँह के अंदर लार से सना खाने का कौर दीख गया।

वे मुझे देर तक कुँवरजी के बारे में बताती रहीं, मानो उस पोर्टेट के जादू से निकलना चाह रही हों।
'एक बार कुँवरजी ने प्रिवी कौंसिल की बैठक हमारे चंदई में रखवाई थी। पहले–पहले वाइसराय एग्री नहीं थे पर कुँवर जी में जबरदस्त कॉन्फिडेंस था। वे गजब के जुझारू व्यक्ति थे। फिर रजामंदी हो गई और मीटिंग का काम चालू हुआ। दूर–दूर के रजवाडे, उनके डेलीगेट्स, उनके सेवक और भी न जाने कौन–कौन यहाँ आया था। बाईस हजार लोग थे। राजों–महाराजों और नवाबों के अलावा उनके अफसर और अंग्रेज...पूरा हुजूम था। हमारे चंदई स्टेट के पूरे पाँच हजार गाँव उनकी आवभगत में कई दिनों पहले से ही लग गए थे। आखिर हमारे चंदई की इज्जत का सवाल था। लोगों के रहने का इंतजाम, हर किसी को उसके मुताबिक सुविधा, खाने पीने का इंतजाम और फिर लोगों की हर जरूरत के हिसाब से व्यवस्था, यह सब आसान काम नहीं था। लेकिन हर किसी ने तारीफ ही की। कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक छोटा सा स्टेट यह सब इतने अच्छे से कर सकता है। वाइसराय खुद आए थे। इस महल में गाड़ियों और लोगों की चहल पहल रहती थी। उन दिनों हमारा चंदई बहुत सुंदर दीख रहा था। बाद में जब सब निबट गया तब पता चला लगभग बत्तीस लाख रूपए खर्च हुए थे। कुँवर जी को यह खुशी थी कि उन्होंने इस स्टेट को वह सम्मान दिलवाया जो बहुत कम को प्राप्त था। किसी भी मामले में उन्होंने हमारे चंदई को झुकने नहीं दिया...।' कहते कहते उनके चेहरे पर एक गर्वीला सा भाव उतर आया, उनके चेहरे के रॉयलपन को सहजता से पूरा करने।

खाने के बाद हरि ने चबूतरे पर कुर्सियाँ डाल दी थीं। हम दोनों वहीं बैठ गए। बारिश खत्म हो चुकी थी पर नमी वाली हल्की फुरफुराती हवा चल रही थी, जो बादलों को अपने साथ तेजी से बहा ले जा रही थी और उन बादलों के पीछे के चाँद तारे हमारे साथ आँख मिचौली खेलने लगे थे। कुँवर जी की बात डाइनिंग टेबल से चलकर इस चबूतरे तक आ गई थी। पर वह बात कुछ बदल गई थी। उसमें से 'हमारा चंदई' अलग हो गया था और सिर्फ कुँवर जी रह गए थे। कुँवर जी की कुछ बातें बताते–बताते रानी साहेब बीच–बीच में सतर्क सी हो जातीं। थोड़ा चुप हो जातीं, कुछ सोचती सी, फिर खो जातीं और फिर संभल जातीं। मुठ्ठी में भींचने की कोशिश जिसमें वे नाकामयाब रहती हैं।

'कुँवर जी अपनी रियाया को बहुत चाहते थे। हमारी चंदई के लोग मानो उनका कोई विज़न हों, जिसे पूरा होता देखने की उनकी इच्छा कभी खत्म नहीं होती थी। फॉर दोज़ पीपुल, ही हैज़ पॉज़िटिव डिज़ायर्स...जो आखिरकार यहाँ के लोगों के लिए था...ओनली फॉर देअर सेक। वे अपनी रियाया को बहुत चाहते थे...उन्होंने हमेशा दिया, कभी किसी से कुछ लिया नहीं। मैंने उन्हें लोगों के दुःख में परेशान होते हुए देखा था। जब वे दुःखी होते थे तो इसी बारामदे में चुपचाप टहलते थे और हर कोई जानता था कि उन्हें डिस्टर्ब ना किया जाय। वे बहुत सेंसिटिव थे...।' वे मुस्करा दीं। पर अब उनका मुस्कुराना थोड़ा बेतुका सा लग रहा था।

'वे ऐसे समय लोगों के सामने अपने को एक्सपोज नहीं करते थे। राजा के लिए यह जरूरी था। वे ऐसी समस्याएँ मुझसे भी शेयर नहीं करते थे। ऐसे समय में समस्या को सॉल्व करने के लिए वे पूरी तरह से भिड़ जाते थे। ब्रिटिश हुकूमत तक उनकी भागदौड़, लोगों की प्रॉब्लम सॉल्व करने और रिलीफ के लिए कई दिनों तक गाँव–गाँव में चलने वाले कैंप जिनमें वे खुद रहते थे और हुक्मरानों, अफसरों से सलाह मशवरा, वे बस इन्हीं बातों में उलझ जाते थे। वे बहुत थककर कभी–कभी चिडचिडे हो जाते थे...पर अपनी प्रॉब्लम कभी शेयर नहीं करते थे। छिपकर किसी को बताए बिना दुःखी होना और अपने को सहलाने के लिए कमरे में बंद हो जाना...लोगों से कट सा जाना ज्यादा कष्ट देने वाला लगता है...है ना?'
मैं उनकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया। मैंने एक अलग ही बात चालू की –
'इस स्टेट में नाइन्टीन ट्वेन्टी नाइन में शायद अकाल पड़ा था...।' जब इस डिस्ट्रिक्ट में मैं नया–नया आया था तब इस डिस्ट्रिक्ट का डिस्ट्रिक्ट गजेटियर पढ़ा था जिसमें अकाल वाली बात थी। उसमें यह भी लिखा था कि पूरा सेंट्रल प्रॉविन्स उससे प्रभावित हुआ था और उससे लड़ने के जो उपाय किए गए थे, उनमें चंदई में अच्छा काम हुआ था। व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि पूरे स्टेट में एक भी अकाल से मौत रिपोर्ट नहीं हुई और इस अच्छे काम के लिए हुकूमत ने इस स्टेट के राजा की तारीफ की थी। चंदई स्टेट में अकाल से निबटने के जो उपाय किए गए थे उनका संक्षिप्त विवरण भी उस गजेटियर में था जिसे पढ़कर मैं प्रभावित हुआ था और आज रानी से बात करते–करते वह सब अचानक ही याद आ गया।

'नहीं वह नाइन्टीन ट्वेन्टी नाइन से थोड़ा पहले की बात थी। तब हमारी नई–नई शादी हुई थी। बड़ा भयंकर अकाल था। कुँवरजी ने महल के सभी लोगों से वादा करवाया था कि वे दिन में एक बार ही खाना खाएँ और एक बार का खाना किसी जरूरतमंद को दे दें। महल में एक ही वक्त का खाना बनता था। उस समय उन्होंने बडी मेहनत की थी। दूसरे स्टेट से अनाज आता था। उनके पास पूरा हिसाब होता था कि अनाज किस गाँव भेजा जाना है, कौन उसकी व्यवस्था करेगा...। वे रात–रात भर सो नहीं पाते थे और अक्सर बाहर ही रहते थे। कुछ और पैसा इकठ्ठा करने के लिए उन्होंने पुराने महल की कई कीमती चीजें बेच डाली थीं।'
फिर वे कुछ कहते–कहते रुक गईं। चबूतरे के टूटे किनारों में से वैसे ही लिली के कुछ पौधे निकले हुए थे जैसे कि रेस्ट हाउस में थे। बारिश से छत–विछत लिली के फूल हँसियेनुमा चाँद की हल्की सी रौशनी में अपने होने का भान करा रहे थे। रानी अधूरी बात में अटककर उन फूलों की धुँधली आभा देख रही थीं। हम दोनों कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होंने अचानक कहा–
'अकाल वाले उन दिनों कुँवर जी बहुत कम महल आते थे। तब हमारी नई–नई शादी हुई थी, एक साल भी पूरा नहीं हुआ था। मुझे अच्छे से याद है, पूरे एक साल में वे सिर्फ ग्यारह दिन ही महल में रहे थे। उनका रहना भी नहीं रहने के बराबर था। मैं...याने हम सब उनका इंतजार करते रहते थे। कई बार समय कितना उल्टा पड़ता है ना...वह समय, वे तकलीफ देने वाली यादें...जब भी याद करती हूँ, एक सूनापन सा लगता है...काश वे दिन अलग तरह से गुजरते, पर आज सोचने के अलावा कुछ और नहीं हो सकता। उन दिनों हम देर तक कुँवर जी का इंतजार करते थे और हमेशा एक हलकारा आता था, बस यह बताने कि वे नहीं आएँगे। अकाल के उन दिनों में मैं...और हम सब बिल्कुल अकेले से हो गए थे। कुँवर जी के बिना सबकुछ बेजान सा लगता था . .. .।'

उन्होंने 'मैं' की जगह 'हम सब' कहने का बेजान सा प्रयास किया। आरामकुर्सी पर वे लेटी सी थीं और कुर्सी के हत्थे पर उनका मुठ्ठीबंद हाथ पड़ा था। मुझे लगा उनकी मुठ्ठी में एक साल के ग्यारह दिन, सिर्फ ग्यारह दिन भिंचे होंगे...वह सपना जो उन्हें येल ले गया था, जिसके कारण उन्होंने कुँवर जी से शादी की, वही सपना जो अक्सर नए–नए वैवाहिक जीवन से आगे नहीं जा पाता है .. . .जब अकाल उस सपने को लूला सा बना रहा था, तब बस ये ग्यारह दिन ही रह गए थे जिसे आज मुठ्ठी में भींचकर वे चुप हो जाती हैं और उनकी आँखें लिली के फूलों की हल्की आभा देखना बंद कर, उस आभा पर गड़ जाती है।
'इस हिस्से की बिजली अक्सर गोल रहती है। बिजली वाले बहुत परेशान करते हैं।' उन्होंने बात बदल दी। मुझे लगा वे यहाँ अकेली रहती हैं, उनसे पूछूं उनका कोई तो होगा। मैंने बात दूसरी तरह से शुरू की –
'आपको यहाँ अकेलापन नहीं लगता?'

'अकेलापन कैसाॐ यहाँ महल के कई हिस्सों में कुछ लोग रहते हैं। फिर मेरी बेटी भी कभी–कभी यहाँ आ जाती है। वो जामनगर में रहती हैं, गुजरात में...हम लोग ओरिजनली वहीं के बघेल राजपूत हैं। हमारे फोरफादर्स वहीं से आए थे, मेरी बेटी की शादी भी वहीं हुई हैं।'
'आपकी बेटी...।'
'हाँ वो साल में एकाधबार आ जाती है।'
उन्होंने इस तरह कहा मानो कहना चाह रही हों कि इस विषय पर कोई बात नहीं की जाय।
'मुझे यहीं रहना अच्छा लगता है। मैं बरसों से कहीं नहीं गई। इस जगह से अफेक्शन है।'
थोड़ा चुप रहकर उन्होंने बात आगे बढ़ाई – 'वैसे यहाँ के लोग अब मेरे पास नहीं आते हैं। फिर भी वे दूसरी जगह के लोगों की तुलना में कम अजनबी हैं। मैं आज के हमारे चंदई के बहुत कम लोगों को जानती हूँ, पर डेफिनेटली उनके पिता या फोरफादर्स मुझे अवश्य जानते होंगे। शादी के बाद मैं इसी महल में आई थीं। अब तो पूरे छप्पन साल हो गए हैं, इस महल में...। पहले यह महल ऐसा नहीं था। कुँवर जी एक बार स्कॉटलैंड गए थे। वहाँ उन्होंने कुछ पुराने कैसल देखे थे, वो क्या कहते हैं, गॉथिक आर्किटेक्चर वाले...। कुँवर जी ने उसी स्टाइल में यह महल बनवाना चाहा था। पर कुछ देसी चीजें भी जुड़ गईं। आपको मालूम है, इनमें से कुछ चीजें मेरी सलाह पर बनी थीं, जैसे वो...।'
उन्होंने महल के ऊपरी छोर की ओर इशारा किया, जहाँ सलेटी–काले आकाश की पृष्ठभूमि पर चार गुंबदाकार छतरियों की काली छाया दिख रही थी। तभी लगा चबूतरे पर कोई आया, बनियान और लुंगी पहने एक आदमी जिससे हरि फुसफुसाकर बात कर रहा था। थोड़ी देर बाद उस आदमी की आवाज सुनाई देने लगी।

'आज मुझे बात करनी है।' उसका स्वर कुछ तेज था।
'श्श्श...धीरे, साहब बैठे हैं।'
'कौन साहब?'
'धीरे...बड़े साहब हैं।'
'ठीक है–ठीक है। पर बता दो तुम्हारी रानी साहेब को, जब किराए का पूरा पैसा देते हैं तो बिजली का बिल क्यों नहीं पटता।' उसने चीखते हुए कहा।
महल में बिजली नहीं होने का रहस्य नग्नता से खुल गया। रानी ने मुझसे सच छिपाने के लिए झूठ बोला था। पर वे छुपा नहीं पाती हैं। शायद उन्हें कभी छुपाने की जरूरत नहीं पडी। पाँच हजार गाँवों के सैल्यूटेड स्टेट की रानी को भला क्या छुपाने की जरूरत हो सकती थी? वे छुपाना नहीं सीख पाईं। वे समय के दोष को अपने हाथों से ढँक नहीं पाती हैं और चंदई के लोगों से कुँवर जी के प्यार का हिसाब भी नहीं माँग पाती हैं। उनका प्यार जो गोवर्धन पर्वत की तरह था जिसके पास उन लोगों की लिस्ट नहीं है जिसे उसने बचाया, उसे लगा ही नहीं कि ऐसी लिस्ट हो सकती है। रानी ने मुझे बताया था कि जब अकाल में लोगों को सहायता के लिए पुराने महल की चीजें बेची गई थीं, तब वे कुँवर जी से लड पड़ी थीं। उन चीजों के लिए जो उन्हें बेहद प्रिय थीं, पर कुँवर जी नहीं माने वे उन्हें बेचने पर आमादा थे। अंततः वे चीजें बेच दी गईं। जिस दिन उन चीजों की नीलामी हो रही थी, वे वह सब देखकर रो पड़ी थीं। पर आज उस आदमी की बात पर रानी के चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था, जो किसी से कोई हिसाब माँगता हो। बस वे जडवत बनी रहीं। सीढ़ियों से उतरते उस व्यक्ति का हल्का स्वर सुनाई दे गया –
'टेलिफोन का बिल पटाने के लिए तो पैसा है पर बिजली का नहीं। बहानेबाजी तो कोई इनसे सीखे।'

वह आदमी अगर नहीं आता तो शायद रानी कई बातें मुझसे नहीं कहतीं। उस आदमी की बातों ने मेरे और रानी के बीच की दीवार में एक दरवाजा बना दिया था और मैं रानी को ठीक सामने देख रहा था। अब वे बातें कहना ज्यादा सहज हो गया था जो रानी शायद न कहतीं...बातें जो शायद उनके भीतर धूनी रमाकर बैठ जातीं।
'मैं घर का कोई काम नहीं कर पाती हूँ। ये काम मैंने नहीं किए हैं। जब मैं महारानी थी, हजार लोग काम करने वाले होते थे। कभी लगा ही नहीं कि मुझे घर के काम भी आने चाहिए। जब महल की कोई चीज टूट जाती है तो सोचती हूँ उसे जोड़ दूँ, जब कोई कीमती कपड़ा फट जाता है तो इच्छा होती है उसे सिल दूँ, धूल बुहार दूँ...पर मैं कर नहीं पाती हूँ। कभी सोचा नहीं था कि मुझसे ऐसा काम एक्सपेक्टेड होगा। अगर जरा भी भान होता तो मैं थोड़ा बहुत जरूर सीखती।'
मेरा ध्यान जब 'मैं महारानी थी' पर गया। एक बात जो उनके भीतर और बाहर की दुनिया के बीच झूलती रहती है।
'आप जानते हैं, हरि मेरे पास क्यों रहता है।'
मैंने नहीं कि मुद्रा में अपना सिर हिला दिया।
'आपको शायद अजीब लगे, पर यह सच है। मैंने सोचा है, जब मैं मर जाऊँगी तब वह मेरी बेटी को बता देगा और वह यहाँ आ जाएगी एक अंतिम कड़ी को पूरा करने...। पहले मुझे एक डर सा रहता था कि अगर मैं मर गई और किसी को पता नहीं चला तो...। पर हरि के कारण अब मैं निश्चिंत हूँ। ऐसा नहीं कि महल के आसपास कोई नहीं रहता, कुछ लोग हैं जिन्हें मैंने महल के कुछ हिस्से किराए पर दे रखे हैं। पर वे सब दूर रहते हैं। कई बार तो महीनों हो जाते हैं, किसी आदमी की शक्ल देखे। फिर मुझे लगता है अगर उन्हें पता भी चल जाए तब भी शायद ही कोई आए। कौन आता है, इतिहास के अधकचरे पन्ने को समेटने...।'

वे आकाश की ओर देखने लगीं। बरसात के बाद कुछ बादल के टुकडे नंगे आकाश पर धीरे–धीरे सरक रहे थे। महल की टूटी बुर्ज के ऊपर हंसियेनुमा चाँद चमक रहा था। तभी एक कबूतर फड़फड़ाता हुआ चाँद के ऊपर से बादलों की ओर उड़ गया...।
'मिस्टर मुखर्जी मुझे आपसे एक काम था।'
'हाँ बताएँ...।'
'मुझे हरि बता रहा था कि जिस जगह आप काम करते हैं वहाँ कोई चौकीदार की पोस्ट होती है।'
'हाँ होती है।'
'आपके दफ्तर का कोई क्लर्क हरि को बता रहा था कि चौकीदार की कोई पोस्ट खाली है और जल्दी ही आप किसी की उस पोस्ट पर पोस्टिंग करने वाले हैं।'
'हाँ, वो तो होनी है...।'
'मैं चाह रही थी कि आप उस पोस्ट पर हरि को रख लेते। सोचती हूँ मेरे बाद उसकी रोजी–रोटी कैसे चलेगी। उसका भला हो जाएगा।'
'मैं कोशिश करता हूँ।
हम दोनों चुप हो गए। चाँद बुझ गया था। षटभुजीय छतरी में से किसी के खर्राटों की आवाज आ रही थी जो बीच–बीच में टूट जाती थी। वहाँ के अंधकारमय वीराने में मुझे नींद आने लगी थी। पर रानी की आँखों की चमकीली मद्धम रौशनी बता रही थी कि उस पर पड़ी ओस अभी सूखी नहीं है। अंधकार में पड़ी ओस जो सूरज के न होने के कारण भाप बनकर उड़ नहीं पाती है।

मैंने उनसे चलने की इजाजत ली और उठ गया। उन्होंने अपनी लाठी उठाई और हरि को मुझे नीचे तक छोड़कर आने को कहा।
'गुड नाइट...नाइस मीटिंग। फिर आइएगा।'
वही रॉयल सी मुस्कान उनके चेहरे पर तैर गई कुछ अँधेरे में गुमती सी, कुछ पेट्रोमैक्स की रौशनी में दमकती सी...।
फिर एक दिन हरि मेरे दफ्तर आया। उसने वही ड्रेस पहर रखी थी जो उसने पहली बार मेरे पास आते वक्त पहनी थी। महल से लौटने के बाद मैंने चौकीदार की खाली पोस्ट पर हरि को लेने के बारे में जानना चाहा, लेकिन सरकारी नियमों में पोस्ट खाली होने के बाद भी यह नियुक्ति नहीं की जा सकती थी। मैं रानी को इन्कार नहीं कह पा रहा था। हरि ने मुझे एक लिफाफा दिया। वही हल्के नीले रंग का तेल्हा सा लिफ़ाफ़ा, वही एम्बलम, वही हल्का गुलाबी कागज, वही आदेशात्मक भाषा...। रानी ने हरि की नियुक्ति के बारे में जानना चाहा था। पर इस बार वह बात पत्र में ही लिखी थी जो उन्होंने उस दिन हरि से कहलवाई थी –
'इन्कार हो तो फोन पर बात जरूर कीजिएगा। मैं फ़ोन पर ही मिलूँगी।'
मुझे लगा वे महल में फ़ोन से चिपकी बैठी होंगी। मुझे याद आया वे बड़े धीरज के साथ इंतजार करती हैं। वे सोचती हैं वे फ़ोन पर मना लेंगी और पता भी नहीं चलेगा कि उनकी सहजता में सब कैसे घुल गया, अतीत का न महसूसा गुमान और भविष्य का पिंज्जर...। पर आज वे मुझे नहीं मना सकती थीं। यह संभव नहीं था। मैंने मन में घोंघे की तरह घुसते हुए और उसके ठीक विपरीत जुबान से नंगा इन्कार कहकर अपनी बात समाप्त कर दी। उस रोज मेरे इन्कार के बाद वे मुझे मना नहीं पाईं। वह मेरी उनसे आखरी बात थी।

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९ अक्तूबर २००४

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