शाम
को मित्र-मंडली के सभी लड़के रदीफ के सायबाने पर एक साथ ही
अड्डा मारते थे। वह सायबाना हमारे लिए एक साथ क्लब था,
लाइब्रेरी था, चिंतन-गृह था, सेमिनार हॉल था। रदीफ ने अपनी कई
भंगिमाओं की खूबसूरत तस्वीरें दीवार पर लगा रखी थीं और इन्हीं
तस्वीरों में एक बड़ी तस्वीर फ्रेम में मढ़ी हुई दिलीप कुमार
की थी। दिलीप कुमार की तस्वीर उसके लिए वैसे ही महत्त्वपूर्ण
थी जैसे एकलव्य के लिए द्र्रोणाचार्य की मूर्ति। उसने दिलीप
कुमार की तस्वीर के ठीक बाजू में एक बड़ा-सा आईना भी लगा रखा
था जिसे देख-देखकर वह रिहर्सल किया करता था, कुछ इस तरह कि वह
खुद को खुद भी देख सके और दिलीप कुमार को भी दिखा सके। चेहरे
पर कई मुद्राएँ और आव-भाव लाकर वह कई तरह के संवाद उच्चरित
करता था रोते हुए, हँसते हुए, घिघियाते हुए, खिसियाते हुए,
भड़कते हुए, झिड़कते हुए, चिढ़ते हुए, चिढात़े हुए। उसके
गैरहाजिर होने पर भी उसके अल्फाज सायबाने पर हमें गूँजते से
प्रतीत होते थे और आईना भी उसकी कई छवियाँ दिखाता सा प्रतीत
होता था। वैसे कुछ संवाद जिन्हें वह बार-बार दोहराता था, हमें
भी याद हो गये थे। इन्हीं में एक था, "बहुत हो गया, अब तुम्हें
हम छोटे और गरीब लोगों को भी आगे बढ़ने के मौके देने होंगे
हमारे लिए भी अपनी काबलियत के मुताबिक मुकाम पर पहुँचने के
रास्ते छोड़ने होंगे। अब यह नाइंसाफी नहीं चलेगी कि छोटे लोग
सब दिन छोटे रहें और बड़े घर के नालायक लोग भी बड़े बनते
रहें।"
हमें इस संवाद से ऐसा लगता था जैसे रदीफ अपनी और हम सबकी
भावनाओं और स्थितियों का इजहार कर रहा है। मोहब्बत के बारे में
उसका एक सुपरिचित डायलॉग था, "तुम्हारी यादों को अपने सीने में
महसूस करता हूँ तो तमाम कमियों, तकलीफों और जिंदगी से हजार
शिकायतों के बावजूद लगता है कि मैं दुनिया का सबसे खुशनसीब
आदमी हूँ। सोचता हूँ कि तुम बेवफा भी हो जाओगी तब भी जीने के
लिए मेरे पास यह एहसास काफी होगा कि कभी तुमने मुझे दिलोजां से
चाहा था।"
रदीफ खुद को रगड़ता और माँजता रहता। इन्हीं अभ्यासों के बीच
सोगरा का नौकर ममदू मियाँ उसे बुलाने आ जाता, "मोहतरमा ने आपको
याद किया है।"
रदीफ की आँखों में जैसे सैंकड़ों जुगनू जगमगा उठते थे। वह बेहद
आतुरता से दोस्तों को इजाजत माँगने वाली नज़र से देखने लगता
था। सर्वत्र इजाजत ही इजाजत बिछी होती थी और हौसला आफजायी का
मानो एक गागर छलक उठता था जाओ मियाँ, जल्दी जाओ, दौड़ पड़ो,
खुदा की इस रहमत का एहतराम करो।
रदीफ चला जाता था हकीकत की एक रंगीन दुनिया में मानो किसी
विजेता की तरह एक पुरस्कार लेने ह़म गर्व से तालियाँ बजाते उसे
जाते हुए देखते रहते थे और उसके बारे में तरह-तरह से सोचते हुए
गुम हो जाते थे तसब्बुर की एक सफेद और स्याह दुनिया में। सोगरा
कह रही होगी तुम हो तो दुनिया कितनी हसीन है, जो तुम नहीं तो
कुछ भी नहीं हैं। सामने कवाब और पकोड़े परोसे जा रहे होंगे,
सोगरा अपने हाथों से उसे खिला रही होगी और रदीफ अपने हाथों से
सोगरा को खिला रहा होगा। दोनों टेनिस खेलते हुए नेट के पार
बहुत आसान बॉल डाल रहे होंगे रदीफ चाहता होगा कि सोगरा जीत
जाये और सोगरा चाहती होगी कि रदीफ जीत जाये।
कोठी की चारदीवारी के अंदर ही टेनिस कोर्ट बना था जिसमें वह
शाम को टेनिस खेलती थी। जब उसके घर में साथ देने के लिए कोई
नहीं होता था तो वह रदीफ को बुलावा भेज देती थी। एक बार रदीफ
की गैरहाजिरी में उसने मुझे बुलवा लिया था, पर मेरा दुर्भाग्य
कि मुझे टेनिस खेलना कभी नहीं आया। मैं खेल नहीं पाया तथापि
उसके बुलाये पर धन्य-धन्य महसूस कर रहा था। किसी हूर से भी
पुरकशिश सोगरा को, इतने करीब से कि हाथ बढ़ाकर उसे छुआ जा सके,
मैं देख सकूँगा, इसकी कभी मैंने कल्पना नहीं की थी। मैं तो यह
भी नहीं सोच सकता था कि वह मुझे नाम से जानती होगी। रदीफ ने
शायद अपने सारे दोस्तों के बारे में उसे बता रखा था। मुझे लगा
था कि हम एक ही शृंखला की कड़ियों में गुँथे हैं। हम रदीफ से
जुड़े हुए और रदीफ सोगरा से जुड़ा हुआ।
रदीफ से उसकी नजदीकी पर घरवालों को रजामंदी थी। रदीफ था ही ऐसा
कि कोई भी उसकी तरफ बरबस खिंच जाता था। नाराज़, असंतुष्ट या
चिढ़ाने के तत्व गोया उसमें थे ही नहीं या थे भी तो उन्हें
तुरंत ढूँढ़ लेना मुमकिन नहीं था। सोगरा के अब्बा डॉक्टर शौकत
तक को यह यकीन हो गया था कि रदीफ आज न कल हीरो बनकर ही रहेगा।
वह चार-पाँच महीने में एक बार बंबई चला जाता था और लौट कर आने
पर वहाँ के चटपटे किस्से सुनाता था। तब हमें यह मालूम नहीं था
कि बंबई में एक फिल्म इंडस्ट्री है। रदीफ से हमें यह ज्ञात हुआ
था कि हिन्दी फिल्में बंबई में ही बनती हैं। तब हम यह समझते थे
कि जैसे उद्योग होता है लोहे का या कपड़े का और उससे लगातार
लोहा और कपड़ा बनता है, वैसे ही फिल्म उद्योग भी एक
लम्बी-चौड़ी चारदीवारी के अंदर चलता होगा और उससे लगातार
फिल्में बनती रहती होंगी।
रदीफ बंबई में कई फिल्मवालों से जाकर मिलता था, उनमें दिलीप
कुमार जरूर होते थे। उसके अनुसार दिलीप कुमार से उसकी काफी
नज़दीकी हो गयी थी और वे उसकी वाकई मदद करना चाहते थे। हम
लोगों को बड़ा कौतूहल होता था और उसके भाग्य पर ईर्ष्या भी कि
दिलीप कुमार जैसे सुपरस्टार से वह मिल बतियाकर आ जाता है। हमें
रदीफ से ही जानकारी मिली थी कि दिलीप कुमार मुसलमान हैं और
उनका असली नाम युसुफ खान है। हमारे ताज्जुब करने पर रदीफ ने कई
अन्य हीरो-हीरोइन के नाम गिनवा दिये थे जो मुसलमान थे और
हिन्दू नाम रखे हुए थे। पता नहीं क्यों इस मुद्दे ने मुझे यों
ही सोचने पर मजबूर कर दिया थ कि आखिर वे कौन से कारण होते हैं
कि एक आदमी को अपना नाम बदलना पड़ जाता है। मैंने यह जानना
चाहा था कि कोई हिन्दू भी हैं जिसने मुसलमान नाम रख लिया है?
इसका ठीक-ठीक जवाब रदीफ को भी मालूम नहीं था। एक दिन तो हम
सन्न रह गये जब उसने बताया कि वह भी अपना नाम बदल रहा है। फिर
उसने अपना नाम दर्पण कुमार रख दिया। उसने ऐसा क्यों किया,
हमारे बहुत पूछने पर भी कोई माकूल जवाब देने में वह सक्षम नहीं
हुआ।
रदीफ जो करता था, हम अनाड़ी और गँवई लड़के मान लेते थे कि हीरो
बनने के लिए ऐसा करना जरूरी होता होगा। वह फिल्मी गाने गाता
था, लय और राग में डूबकर पूरी तन्मयता से। हमें उसे सुनना
अच्छा लगता था और हम ऐसा समझते थे कि हीरो बनने के लिए गायक
होना भी जरूरी है। तब हमें यह पता नहीं था कि पर्दे पर हीरो
सिर्फ होठ चलाता है, अभिनय करता है और आवाज पीछे से किसी और की
होती है। उन दिनों हम यही जानते थे कि हॉल में लगी फिल्म के
हीरो-हीरोइन सहित सभी कलाकार पर्दे के पीछे मौजूद होते हैं,
इसलिए हमें बड़ा ताज्जुब हुआ था यह जानकर जब रदीफ ने बताया कि
एक फिल्म एक साथ कई शहरों और कई हॉलों में चलती हैं।
हमें अपना होम टाउन नवादा जाकर फिल्में देखने का मौका लगभग
नहीं के बराबर मिलता था। अठ्ठारह साल की उम्र तक मैंने महज तीन
फिल्में देखी थीं वे भी धार्मिक-पौराणिक। मेरे दूसरे साथियों
का भी यही हाल था। हमारे पास पैसे भी नहीं होते थे और
पढ़ने-लिखने की उम्र में फिल्म देखना तब अच्छा भी नहीं माना
जाता था। मगर रदीफ नवादा के सिनेमा हॉलों में लगी हर नयी फिल्म
जाकर जरूर देखता था। घरवालों की तरफ से उसे पूरी छूट थी, पूरा
शह और समर्थन प्राप्त था आखिर उसे हीरो जो बनना था। उसके दो
भाई थे, वे कलाली के मैनेजर थे और अच्छा कमा लेते थे। हीरो की
तरह दिखने के लिए ह़ीरो बनने के लिए जिन सहूलियतों की रदीफ को
तलब होती थी, उन्हें आसानी से वे उपलब्ध करवा देते थे। वह
नये-नये फैशन के पतलून, कमीज और जूते पहनता था।
लेटेस्ट पहनावा क्या है फिल्मी दुनिया का या फिर अमीर-रईस
लोगों का, रदीफ को देखकर हम अवगत हो लेते थे। उसने अपना एक कान
छिदवाकर उसमें बाली पहन ली थी। हमने पहली बार यह जाना था कि
औरतों की तरह मर्दों को भी अब कान में बाली और इयरिंग पहनना
अच्छा लगने लगा है। हम यों ही सोच गये थे कि कल को कहीं ये लोग
चूड़ी भी तो पहनने नहीं लगेंगे! और यह सच हो गया था रदीफ ने
चूड़ी की तरह का अपने दाहिने हाथ में एक कड़ा पहन लिया था। आगे
उसने हमारी जानकारी को दुरूस्त करते हुए कहा था कि आजकल पहनावे
के मामले में औरत और मर्द में कोई फर्क नहीं हैं। रदीफ बाल
कटवाने और चेहरे पर मेकअप लेने में भी बहुत खास ध्यान देता था।
हमारे बाल अक्सर बेतरतीब और बढ़े होते थे। गाँव के इकलौते नाई
की उपलब्धता और स्किल पर ही हमारे हेयरकट का अंजाम बँधा होता
था। मगर रदीफ मियाँ हर पखवारे नवादा जाकर अपना हुलिया ठीक
करवाता था और जहाँ ठीक करवाता था उसका नाम मेंस ब्यूटी पार्लर
बताता था। मर्दों के लिए भी शृंगार-गृह होता है, यह हमारे लिए
एक नयी खबर थी। वह चेहरे पर दाढ़ी नहीं रखता, मगर कभी-कभी
अजूबे में नक्काशीदार दाढ़ी और मूँछें उगा लेता था। ऐसे में
उसका हुलिया बेहद अटपटा हो जाता था, फिर भी हम लड़कों पर उसकी
धाक जम जाती थी।
रदीफ के हीरो बनने में कोई खास प्रगति नहीं हो रही थी, बावजूद
इसके उसका बार-बार बंबई जाना हमें बहुत रोमांचित कर देता था और
यह भी उसकी उपलब्धि जैसा लगता था। हम उसके इस नसीब पर मुग्ध
रहते थे कि बंबई जैसा महानगर वह कितनी आसानी से आना-जाना कर
लेता है, जबकि हमें अपने होम-टाउन भी जाने के लिए कई बार सोचना
पड़ता था। हम लोकल ट्रेन से दो स्टेशन तक सफर करने के मोहताज
थे। कभी जाते भी थे तो जोखिम उठाकर विदाउट टिकट। इस चक्कर में
हमारे कई दोस्त मॅजिस्ट्रेट चेकिंग में पकड़ा कर तीन-तीन महीने
तक जेल काट चुके थे।
रदीफ अक्सर बंबई से एक नाउम्मीदी लेकर खाली-खाली लौटता था,
बहुत अर्से बाद वह एक बार उम्मीद से भरा-भरा लौटा। बताया कि इस
दफा उसे कामयाबी मिल गयी। दिलीप कुमार साहब ने एक फिल्म में
उसे रोल दिलवा दिया, जिसे वह पूरा करके आ गया है। वह फिल्म
जल्दी ही रिलीज होगी। नवादा में लगेगी तो हम सभी उसे देखने
जाएँगे। वहाँ शूटिंग कैसे हुई इसका बहुत दिलचस्प विवरण उसने
सुनाया।
गाँव के हम सभी साथी उस फिल्म के नवादा में लगने का बेसब्री से
इंतजार करने लगे। इस बीच पूरे इलाके में यह खबर फैल गयी कि
रदीफ फिल्म में हीरो बन गया। रदीफ के रूप-रंग, कद-काठी और
अदा-नजाकत के लोग पहले भी प्रशंसक थे, अब उसकी साख बासमती धान
की खुशबू की तरह सर्वत्र फैल गयी थी।
राह तकते-तकते काफी दिनों बाद वह फिल्म नवादा में लगी। सभी
साथियों ने एक साथ चलकर देखने का कार्यक्रम बनाया। सबने तय
किया कि किसी भी तरह टिकट के पैसे जुगाड़ करने हैं आखिर अपने
रात-दिन के साथी को पर्दे पर एक्टिंग करते देखने का लोभ कोई
कैसे संवरण कर ले। रूखे-सूखे, आधे-अधूरे खाने-पीने वाले
साथियों ने भी किसी प्रकार जुटा लिये टिकट के पैसे। जो बहुत
यत्न के बाद भी जुटाने में कामयाब न हुए उनके उत्साह को देखकर
रदीफ ने अपनी ओर से उनका जिम्मा उठा लिया।
टिकट लेकर जब हम हॉल के अंदर घुसने लगे तो हमारे देहाती फीचर
को देखकर गेटकीपर जरा हिकारत से घूरकर एक-एक को गिन-गिनकर
रास्ता देने लगा। मुझे जरा ताव आ गया। मैंने उसे औकात बताने
वाली मुद्रा में निहारते हुए कहा, "दुग्गी-तिग्गी जैसा सलूक मत
करिये गेटकीपर जी, हमलोग कोई मामूली दर्शक नहीं हैं। जो फिल्म
देखने जा रहे हैं उसका हीरो हमारे साथ जा रहा है, क्या समझे?"
गेटकीपर ने अब उपहास करती हुई भंगिमा में कहा, "ज्यादा डींग मत
हाँको, चुपचाप जाकर आगे बैठ जाओ।"
हम बड़े खुश हुए कि हमें एकदम आगे बैठने के लिए कहा गया। तब हम
यही समझते थे कि सिनेमा को भी आगे बैठकर देखने में ही ज्यादा
मजा है। पीछे की सीटें आगे से महँगी और अच्छी होती है, यह हमें
मालूम नहीं था।
हम सभी साथी फिल्म देखने लगे और अपने हीरो को ढूँढ़ने लगे।
क्या यह विचित्र स्थिति थी साक्षात वह हमारे साथ बैठा था,
लेकिन हम उसे चित्र में असाक्षात देखने के लिए व्यग्र थे।
हमारी उत्सुकता चरम पर थी लग रहा था किसी भी पल रदीफ पर्दे पर
प्रकट होकर अपना कमाल दिखाने लगेगा। लगा था कि वह अपना चिर
परिचित डायलॉग उच्चारने लगेगा, "बहुत हो गया, अब तुम्हें हम
छोटे और गरीब लोगों को भी आगे बढ़ने के मौके देने होंगे हमारे
लिए भी अपनी काबिलियत के मुताबिक मुकाम पर पहुँचने के रास्ते
छोड़ने होंगे। अब यह नाइंसाफी नहीं चलेगी कि छोटे लोग सब दिन
छोटे रहें और बड़े घर के नालायक लोग भी बड़े बने रहें।" गाँव
की नौटंकी में वह बतौर हीरो सबसे जानदार अभिनय करता था और सभी
गाँववाले उसे देखकर खूब तृप्त होते थे। रदीफ भी भावाकुल मुद्रा
में बैठा था और अपने किरदार के नमूदार होने की विह्वल
प्रतीक्षा कर रहा था।
मिनट दर मिनट फिल्म गुजरती गयी हमारी आँखें पर्दे पर एकटक बिछी
रहीं एक सीकिया लड़का अकेले पन्द्रह-बीस बदमाशों को मार-मारकर
पस्त और धराशायी किये दे रहा था। हमें इस असंभव से काल्पनिक
कारनामे को देखकर बहुत खीज हो रही थी। हमारा रदीफ भी नाइंसाफी
के सरपट रौंदते घोड़े की लगाम थाम लेता था, लेकिन किसी को घायल
नहीं करता था, बल्कि खुद घायल हो जाता था। फिल्म में हीरो जैसे
खून की नदी बहा देने पर उतारू था सारा कुछ झूठ, बकवास और
हिंसा-रक्तपात से भरा हुआ। इस तरह पूरी फिल्म पार हो गयी। 'दि
एँड' की इबारत आकर पर्दे पर ठहर गयी और आम दर्शक उठकर जाने
लगे। हम सभी साथी अभी भी बैठे हुए थे। हमें यकीन नहीं आ रहा था
कि फिल्म खत्म हो गयी। बिना रदीफ के पर्दे पर आए फिल्म खत्म
कैसे हो सकती थी! हमने तो अब तक इस फिल्म में कुछ देखा ही नहीं
हमारा पूरा ध्यान तो रदीफ को ढूँढने में लगा रह गया था। इस
फिल्म की कहानी और क्लाइमेक्स हमारे लिए सिर्फ और सिर्फ रदीफ
था। वह अंत तक न आया तो हमें एकबारगी लगा जैसे हम ठग लिये गये
हमारे पैसे नाहक बर्बाद हो गये।
रदीफ एकदम बदहवास और हैरान था ऐसा कैसे हो सकता है। उसने सपने
में नहीं हकीकत में बंबई जाकर रोल निभाया है। उसके चेहरे पर एक
दयनीयता और कातरता रिसने लगी थी। यह पहला मौका था जब वह हम
दोस्तों में सबसे दुखी दिख रहा था। अन्यथा दुखी तो हम ही रहा
करते थे और वह हमारे लिए हमेशा धैर्य का अवलंब हुआ करता था। आज
उल्टा हो गया था और उसे, हमें हिम्मत देने की जरूरत पड़ गयी
थी। मैंने कहा, "रदीफ, तुम्हें ठीक-ठीक याद तो हैं न फ़िल्म का
नाम क्या यही था?"
दूसरे साथी ने पूछा, "कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे लौट आने के
बाद उस फिल्म का नाम बदल दिया गया?"
"तुम लोग यकीन करो साथियों, मैंने वाकई इसी फिल्म में काम किया
था कई डायलॉग भी मुझसे बोलवाये गये थे। जिन-जिन ऐक्टरों को
पर्दे पर तुम लोगों ने देखा, उनके साथ मैं भी था। दिलीप साहब
मेरे साथ इस तरह का मजाक नहीं कर सकते।" रदीफ फूट-फूटकर रोने
लगा था मानो कोई बहुत कीमती चीज उससे छीन ली गयी।
जब हम गेट से बाहर निकलने लगे तो गेटकीपर तंज भरी आँखों से हम
सबके लटके मुँह को घूर रहा था जैसे कह रहा हो कि ये मुँह और
मसूर की दाल!
भीतर किसी आलीशान गुंबज के ढह जाने का शोक उसके चेहरे पर छा
गया था। हमने उसकी ऐसी हताश सूरत कभी नहीं देखी थी।
रदीफ के सायबाने की सबसे बड़ी पहचान वहाँ लगी दिलीप कुमार की
तस्वीर थी। अगले दिन जब हम वहाँ गये तो अनायास हमारी निगाह
दीवार के खालीपन पर ठहर गयी। दिलीप साहब की तस्वीर वहाँ नहीं
थी पता चला कि रदीफ ने रात में लौटते ही उसे तोड़ दिया था। जिस
आईने में देख-देखकर रदीफ अपनी कई शक्लें गढ़ा करता था भिखारी,
मदारी, बूढ़ा, नेता, किसान आदि का, वह आईना भी कई किरचों में
बँटा था और अब उससे कोई भी प्रतिबिम्ब सही-सीधा-साबुत नहीं
देखा जा सकता था। अलग-अलग टुकड़ों में बँटे हिस्से में खंडित
अक्स अब दिखाई पड़ रहे थे जैसे वे रदीफ के चेहरे के नहीं
चूर-चूर हुए उसके सपनों के अक्स हों। यों लग रहा था जैसे आईना
आज मुँह चिढ़ा रहा है। संवादों की अनुगूँज की प्रतीति भी वहाँ
से अब अनुपस्थित हो गयी थी, जैसे आईना और तस्वीर के रूप में दो
जिंदगी टूटने का शोक संतप्त सन्नाटा छा गया हो। |