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पैरिस को लगा कि यह स्टूडेंट यूनियन का हॉल नहीं, अलादीन की जादुई गुफ़ा थी। सभी कुछ तो था यहाँ पर एक मस्त और यादगार शाम के लिए सिवाय अविक के अ़विक जो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा था। मंच पर होने का पूरा आनंद उठाते किशोर-किशोरियों से खुदको छुपाती-बचाती बेचैन वह तुरंत ही बाहर आ गई।
"दिवाली-मेला देखने चल रहे हो ना अविक। बोलो अविक, चल रहे हो ना, सभी तो हैं वहाँ पर?" शोर-शराबे से दूर अपने कमरे में गाना सुनते अविक से पैरिस पलट-पलटकर पूछे जा रही थी पर अविक तो मानो सबसे परे मनपसंद स्वरलहरियों में डूब संगीत-समाधि ले चुका था। सारी आतुरता, मेला सबकुछ भूल मंत्र-मुग्धा-सी पैरिस वहीं ज़मीन पर ही उसके सामने बैठ गई और चुपचाप एकटक देखने लगी।

डूबते सूरज की गुलाबी सुनहरी आभा में नहाया, आँख बंद किए संगीत का आनंद लेता अविक और भी ज़्यादा अलग और चित्र-सा सुंदर दिख रहा था, अपने नाम-सा ही विभोर और संकल्पित। मेपल वृक्ष की घनी पत्तियों से छन-छनकर आती धूप ने कमरे में हर दीवार, हर वस्तु पर रंगमंच के पर्दे-सा मनोहारी और रहस्यमय दृश्य अंकित कर दिया था। खिड़की के फ्रेम को खुद में समेटे धूप की आड़ी तिरछी किरनों बीच गुँथी पत्तियाँ सुर और लय की ताल पर परछाई बनी चारो तरफ़ थिरक रही थीं और शाम के इस सुरमई धुँधलके में अविक एक बार फिर उसे इस दुनिया का नहीं, देवदूत-सा अलौकिक लगा, उसके हर सपने को पूरा करने में समर्थ, इतना सुंदर कि खुद को रोको ना, पीछे ना हटो तो उसे तो प्यार तक किया जा सकता था।

अपनी इस बेतुकी सोच से बचने के लिए पैरिस ने आँखें बंद कर लीं पर बंद आँखों में भी तो वही बैठी मुस्कुरा रहा था। हारकर पैरिस ने खुद से लड़ना छोड़ दिया, बुराई भी क्या थी इसमें ये रिश्ते विद्यालय के इन्हीं दिनों में ही तो जुड़ पाते हैं, अविस्मरणीय प्रेम-कहानियों से विद्यालय की स्मारिकाएँ भरी पड़ी हैं। उसके अपने माँ-बाप भी तो यहीं मिले थे, मालकोंस के आरोह-अवरोह पर तैरते सुर अंतिम झंकार से गुज़र चुके थे और सितार एक बहुत ही घुमावदार और नाजुक मीड़ लेकर कबका थम चुका था। एकटक देखने की अब अविक की बारी थी। हमेशा चहकती रहने वाली पैरिस यों गुमसुम और चुपचाप भी तो कम आकर्षक नहीं लग रही थी। "कहाँ खो गई पैरिस?" अविक ने आवाज़ दी।
"कहीं भी तो नहीं, बस अपनी पालतू चिड़िया से बात कर रही थी।" सोच की चुटकी भर-भर अपने संगमरमरी गालों पर संध्या का सारा गुलाल मलती पैरिस हड़बड़ाकर जग गई।
"चिड़िया प़र मुझे तो कोई चिड़िया नहीं दिखाई देती यहाँ?" अविक आश्चर्य-चकित था।
"तुम नहीं जानते अविक, हम सब अपने-अपने सर के घोंसले में एक बाबरी चिड़िया पाले रहते हैं, जिसे बहुत प्यार करते हैं हम और चाहे-अनचाहे, जब मनचाहे यह हमसे बात करने लग जाती है, हमें खुद से भरमाती है और तब हम सारी दुनिया भूल उसमें, उसकी बातों में खो जाते हैं।" पैरिस ने बड़े ही सूफियाना अंदाज़ से अपनी सारी भावनाओं को समेट लिया। चिड़िया का तो पता नहीं पर सामने बैठी पगली सहेली अविक को बहुत ही रोचक लगी।
"जानती हो पैरिस, जब मेरी माँ बनारस में पढ़ रही थीं तो ये बीटल्स भी वहीं भारतीय संगीत सीख रहे थे और आज देखो वह पूर्व की तपस्या और पश्चिम की तकनिकियों ने कैसा जादुई नशा बुना है। रवि शंकर भी तो बनारस के ही हैं जिनकी पहल से सितार का जादू पश्चिमी देशों तक चल पाया।"

कंधे पर झूलते सुनहरे बालों के गुच्छे से खेलती पैरिस धीरे-धीरे बनारस की गलियों में खोने लगी, बनारस जिसे उसने बस किताबों में ही पढ़ा और तस्वीरों में ही देखा था, "अच्छा तो तुम्हारी माँ बनारस से हैं जहाँ के बिस्मिल्ला खाँ बहुत अच्छी शहनाई बजाते हैं और जहाँ की सिल्क बहुत ही सुंदर और मशहूर हैं। जहाँ सूरज की पहली किरन के लहरों पर उतरते ही घाट और मंदिर दोनों एक साथ जग जाते हैं, अलौकिक और रहस्यमय दिखने लग जाते हैं। जो भारत का सबसे पुराना शहर माना जाता है। कहते हैं लौर्ड शिवा ने खुद अपने त्रिशूल पर बसाया था इसे। काशी भी तो कहते हैं इसीको, क्या कभी तुम मुझे वहाँ पर ले चलोगे अविक?" उत्साहित पैरिस अविक से बहुत कुछ एक ही साँस में कहना और जानना चाहती थी।

"हाँ, हाँ क्यों नहीं, तुम तो बनारस के बारे में बहुत कुछ जानती हो।" अविक ने मुस्कराकर जवाब दिया।
"नहीं, जानती तो नहीं पर जानना ज़रूर चाहती हूँ इसीलिए तो मैंने इंडियौलाजी पढ़ने का निश्चय लिया। क्या गंगा के किनारे बसी काशी भी इतनी ही सुंदर है जितना कि कैम रिवर के किनारे बसा यह कैंब्रिज।"
सेंट जॉन्स कॉलेज के रोइंग क्लब में जाते, पुल के ऊपर से गुज़रते, नीचे बहती नावों और पथरीली सकरी गलियों से गुज़रते कई बार जाने क्यों उसने भी तो केंब्रिज की तुलना बनारस से की ही है।
"हाँ, सुंदर तो है, कितना सुंदर इसका निश्चय तो तुम्हें खुद ही वहाँ जाकर उसे देख-समझकर करना पड़ेगा। भारत अभी एक गरीब देश है पैरिस, और गरीबी की अपनी अलग समस्याएँ होती है। समानता होते हुए भी बनारस और केंब्रिज की तुलना करना सही नहीं होगा। दोनों ही विद्वानों के सुंदर शहर हैं पर अलग-अलग। अपनी-अपनी तरह के।"
"जानते हो अविक, मैंने तो यह भी सोचा है कि मैं अपनी बेटी का नाम काशी ही रखूँगी जैसे कि मेरे माँ बाप ने मेरा नाम पैरिस रखा था क्यों कि मेरी संरचना पैरिस में ही तो हुई थी।"
पैरिस अपनी रौ में डूबी बोले जा रही थी और केंब्रिज के छात्रावास के उस एकाकी कमरे में बैठा अठ्ठारह वर्षीय अविक कान तक बीरबहूटी-सा लाल होता चला गया, सामने बैठी यह मात्र हफ्ते भर की सहपाठिनी पैरिस कितनी खुली और बेबाक है, ऐसी बातें करने, ऐसे सपने देखने में क्या इसे ज़रा भी संकोच नहीं होता, पर दोष इसका भी तो नहीं, इनकी तो संस्कृति ही ऐसी है, लड़की हों या लड़के, यहाँ अपने योग्य साथी ढूँढ़ने की ज़िम्मेदारी भी तो इन पर खुद ही होती है।

वैसे भी मात्र लड़कों के स्कूल में पढ़े और संकोची स्वभाव के अविक को लड़कियों से इतनी खुलकर बात करने की आदत नहीं थी, होने वाले बच्चों के नाम के बारे में तो हरगिज़ ही नहीं। भविष्य पर लटके इस ताले की चाभी तो प्राय: बड़ों के ही हाथ होती है उनके समाज में। बातें कोई ख़तरनाक और नज़दीकी मोड़ लें इसके पहले ही वह इस वार्तालाप को फिसलने से रोक देना चाहता था, अविक अभी सोच रहा था कि एक हाथ में बीयर की बोतल और दूसरे से एक दूसरे को सँभाले रूपम और सानिया ने धावा बोल दिया। चलो-चलो, उठो हम सभी दिवाली मेला देखने चल रहे हैं अभी इसी वक्त। बहुत ज़बर्दस्त मेला लगा है आज। खाना, फायरवर्क्स सभी कुछ है वहाँ पर। जेम्स का फ़ोन आया था। केंब्रिज एशियन एसोसियेशन ने एक फैशन शो भी रखा है। हम सभी उसमें भाग लेंगे। इसके पहले कि अविक कोई जवाब दे तीनों ने उसे हाथों-हाथ उठा लिया। नई दोस्ती और नई यूनिवर्सिटी का नया-नशा, वैसे भी यह रिफ्रेशर सप्ताह ही तो था और रिफ्रेशर सप्ताह का क्या मतलब है, चारों चंद दिनों में ही अच्छी तरह से जान चुके थे, रोज़ एक नई पार्टी, एक नई एसोसियेशन, एक नया हंगामा। गंभीर पढ़ाई में डूबने के पहले बचपन और यादों को खुद से अलग करने का एक अनूठा और बेफिक्र यूरोपियन अंदाज़।

अरे आज तो दिवाली है ना, रुको मैं अभी कपड़े बदलकर आता हूँ, पहले हम सब मिलकर पूजा करेंगे फिर दिवाली मेले में चलेंगे। सुरुचि पूर्ण नए कपड़ों में गणेश और लक्ष्मी की प्रतिमा के आगे दीप जलाता, नहाया-धोया अविक और भी ज़्यादा ओजस्वी और सौम्य लगा पैरिस को। यही नहीं अविक ने मित्र-मंडली को माँ के हाथ की स्वादिष्ट मिठाई और खाना भी लाकर दिए। सानिया और रूपम तो तुरंत ही खाने पर टूट पड़े पर पैरिस हिरनी-सी बड़ी-बड़ी आँखों से पूछ रही थी, "क्या मैं भी एक दिया जला सकती हूँ अविक।"

"क्यों नहीं ज़रूर..." प्यार और प्रशंसा से उसकी तरफ़ देखते हुए अविक तुरंत ही अंदर गया और एक धूपबत्ती उसकी फैली हथेलियों पर लाकर रख दी। अभी तो बस इससे ही काम चला लो पैरिस, मेरे पास बस एक ही दिया था। लौटकर हम सब मिलकर बहुत सारे दिए जलाएँगे और फुलझड़ियाँ भी चलाएँगे, माँ ने वह भी तो रख दी हैं मेरे साथ। यह मेरी पहली दिवाली हैं जब मैं घर पर नहीं हूँ। माँ तो बहुत ज़ोर-शोर से दिवाली मनाती हैं। घंटे डेढ़ घंटे तो पूजा की तैयारी और मोमबत्तियाँ व दिए जलाने में ही लग जाते हैं। सबके लिए कपड़े, उपहार, हफ्तों ख़रीदारी और तैयारियाँ ही चलती रहती हैं हमारी भी। तुम्हारे क्रिसमस की तरह हम हिंदुओं का भी तो यह बड़ा त्योहार है।  

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