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चाचू पिछले एक साल से कहाँ-कहाँ नहीं गया कि जो कुछ घोड़े हैं उनके रहने के लिए अस्तबल दिए जाएँ। रिज पर खुली जगह भी बनाई जाए जहाँ वे आराम से घोड़े खड़े कर सकें। बरसात में भीगने से बच सकें पर कोई नहीं सुनता। जब बरसात होती है तो सभी घोड़े पुस्तकालय भवन की दीवारों के सहारे सिर टिका कर खड़े-खड़े भीगते रहते हैं। चाचू और दूसरे लोग, घोड़ों के पेट के नीचे सिर बचाते हैं। चाचू की गुहार कोई नहीं सुनता हाँ कभी-कभार कोई अखबार वाला चाचू को एक आध समोसा या गुलाबजामुन किसी चाय की दुकान पर खिलाते हुए एक लेख भर छपने की गरज से पुरानी बातें अवश्य पूछ जाते हैं। कभी कोई छायाकार उनकी तस्वीर खींच कर अवश्य बाहर के पत्र-पत्रिकाओं में छपवाकर प्रशंसा के दो बोल परंपरा के नाम पर अर्जित कर लेते हैं पर चाचू को न कोई उसका फोटो देता और न ही छपी खबर सुनाता।

चाचू इन स्मृतियों के बीच उठता है। दोपहर ढल रही है। सूरज बहुत दूर चला गया है। आउट-हाउस के छत की छांव चाचू के पैरों को लांघती कमर तक चली आई है। मंजरी आगे खिसकाकर ऐसी जगह बिछा देती है जहाँ अंत तक सूरज की किरणें पड़ें। चाचू आज जी भर कर आराम करना चाहता है। पर स्मृतियाँ नहीं छोड़तीं। चाचू को उलझाये रखती हैं। चाचू भीतर आकर घोड़े के थैले में आठ-दस अंजुलि चने डाल देता है। चाय की ललक महसूस हो रही है। बीड़ी तंबाकू चाचू नहीं पीता। चूल्हे के पास जाकर बैठता है। टोपी आँखों में लिपट जाती है। चाचू पगला जाता है। अब टोपी नहीं हैं बस गाँधी है। बुत है। वह बाहर आकर फिर मंजरी पर दीवार की तरफ ढांसना लगा लेता है। चाचू के मन-आँखों में टोपी ही टोपी है। बापू ही बापू हैं। फिर ऊँघता है चाचू ज़ैसे अफीमची की ऊँघ हो।
 
शिमला की लंबी कहानी चाचू के छोटे-से मन में बसी है, लंबी अतीत है। या यूँ कह लें कि लंबा इतिहास और एक पूरी परंपरा का वारिस है चाचू। वह जब से रिज पर नई जगह घोड़े लेकर रहने लगा है, बापू के बहुत करीब हो आया है। पहले भी बहु
त करीब था। बापू ने उन्हें आजाद करवाया था, चाचू ने सुना है। पहले से चाचू के मन में बापू रहते आए हैं।

पुरानी जगह से भी चाचू हर रोज सुबह घोड़े के साथ बुत के आगे से ही आता था। प्रणाम करना चाचू कभी नहीं भूला। समय जब भी मिला बापू के चबूतरे की सफाई करेगा। पत्तों का झाडू बनाकर आसपास झाडू लगाएगा। कभी बुत साफ करना हो तो बूट नीचे उतार देगा। अक्सर अँग्रेज पर्यटक चाचू का घोड़ा पसंद करते आए हैं। पर चाचू के दो नियम पक्के हैं। चाचू कभी किसी अँग्रेज को बिल्कुल बुत के आगे घोड़े पर नहीं बिठाएगा। और कभी घोड़े पर बैठे अँग्रेज को बुत के ऊपर से जाखू नहीं ले जाएगा। दूसरा रास्ता लेगा। यदि किसी ने ऊपर के रास्ते जाने की जिद की तो उस सवारी को छोड़ देगा।

बापू का बुत पहले काफी नीची जगह पर था। छोटा-सा चबूतरा था। जिन पर ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ थीं। कोई भी ऊपर जा सकता था। चारों तरफ से खुला था। चाचू की आँखों के सामने क्या-कुछ नहीं हुआ है। खान कुली हो या कोई दूसरा, वहाँ से आते-जाते अपनी पीठ का बोझा वहीं सटा कर आराम करेंगे। टूरिस्ट अपनी नई-नवेलियों के साथ बूट समेत ऊपर चढ़कर बुत के इधर-उधर से एक-दूसरे का मुँह चूमते फोटो खिंचवाएँगे। घूमते फिरते कालेज-स्कूल के छोकरे अपना अँग्रेजी टोप बापू के सिर पर पहनाकर उल्टे-सीधे पोज लेंगे। खिल्लियाँ उडाएँगे। कभी बापू के मुँह में अपने मुँह से कमाँडर सिगरेट
ठूँस देंगे। ठहाके लगाएँगे। कभी अपनी काली गॉगल उनकी आँखों में चढ़ा देंगे और भरतनाट्यम करते हुए फोटो लेंगे। जैसे गाँधी का बुत न हुआ, माइकल जैक्सन का 'स्कैलटन' हो गया।

यहीं नहीं पुलिसवाले भी किसी से पीछे नहीं हैं। रात को गश्त करते हुए थकेंगे तो यहीं आराम फरमाएँगे। अपने हाथ की बेंत बापू की टाँगों के बीच घुसेड़ कर सुल्फे की सिगरेट भरेंगे और खींच-खींच कर पीते रहेंगे। कई बार चाचू ने एक पुलसिये को तो अपनी बरांडी बापू की पीठ पर टाँगते हुए पीछे की तरफ पेशाब करते हुए भी देखा है। पत्रकारों को अपना झोला बापू के गीता पकड़े हाथों में लटका कुछ लिखते-पढ़ते जांचा है। कई बार चाचू लाल-पीला होकर छोकरे-छल्लों को डांट देता है। कुलियों को झाड़ देता है।पर समझने की बजाय उल्टा चाचू को 'गाँधी का भूत' कहते हैं। चाचू सोचता है कि इन पाजियों को खूब पीटे। अपने घोड़े पर चढ़कर इनको भगाए। पर कितनों को भगाएगा चाचू। सबके पेट में दाढ़ी जम गई है। चाचू ये सोच चुप हो जाता है। हाँ चाचू जब बच्चों को बापू की टाँगों में लिपटते, आँख मिचौली का खेल खेलते देखता है तो उसे अच्छा लगता है।

चाचू के सामने जब बुत लगाया गया था तो आँख पर सुंदर चश्मा था। पर पिछले कई वर्षों से वह गुम हो गया है, पर मजाल कि कोई इस तरफ ध्यान भी दे। किसी समारोह में बापू के गले में माला डालना चाचू को महज एक दिखावा लग
ता है। 'आँख ओट पहाड़ा ओट' - जैसा।

एक घटना ने चाचू का मुँह ही बंद कर दिया था। इसलिए अब चाचू चुप रहता है। होंठ सी लिए हैं चाचू ने। चाचू को लगता है जैसे कल ही उसके साथ वह सबकुछ हुआ था। पर उसकी समझ में यह नहीं आता कि उसी के साथ ये सबकुछ क्यों घटता है।

उस रोज चाचू संजौली की तरफ से किसी बरात को निपटा कर आया था। रात काफी हो गई थी। चाचू ने अंदाजा लगाया कि ग्यारह से ऊपर का टाइम हो गया है। वह लकड़बाजार का रास्ता चलते जैसे ही रिज के किनारे पेड़ के पास पहुँचा लाइब्रेरी के रास्ते पर कुछ खुसर-पुसर सुनाई दी। चाचू ठिठक गया। उस समय रिज मैदान के दोनों तरफ बिरली ही स्ट्रीट लाइटें हुआ करती थीं। चाचू को कुछ लोग दिखाई दिए। उनकी सफेद पोशाकें दिख रही थीं। चाचू आगे नहीं बढ़ा। रिज पर दूर तक नज़रें दौड़ाई, कहीं कोई नहीं था। हवा घर के सामने दो-चार कुत्ते अवश्य सोए थे। रात में घूमते कुत्ते चाचू के लिए यहाँ के पुलिस वालों की तरह परिचित थे। पर सफेद पोशाकों वाले लोग अजनबी का अहसास दिला रहे थे। तभी एक लड़का उनमें से बुत की तरफ बढ़ा। उसकी काली दाढ़ी थी। सिर नंगा था। स्वेटर और कमीज कोहनियों तक सरकाए हु
ए था। जीन के अंदर से एक तरफ की कमीज बाहर लटक रही थी। उसकी चाल बिल्ली की चाल थी।

चाचू सहम गया। वहाँ पर अँधेरा था। वह सीधे चबूतरे को लांघता ऊपर चढ़ा और बापू के बराबर खड़ा हो गया। हाथ में एक डिब्बा-सा था। उसे बापू के सिर पर उड़ेल दिया। फिर एक कपड़े से उस काली चीज को बुत के मुँह पर खूब रगड़ा। और उल्टे पाँव भाग लिया। चाचू को आश्चर्य हुआ जब बुत का ऊपरी हिस्सा काला दिखाई दिया। कुछ काली चीज नीचे तक भी गिरती चली आ रही थी। लड़का अन्य लोगों के बीच चला गया। वे अँधेरे से बाहर आए और छाती ताने हुए रिज से स्कैण्डल की तरफ चल पड़े। कुछ ने बीड़ियाँ सुलगा ली थीं। दो पुलिस वाले लंबी खाकी बरांडी पहने सामने से आते दिखाई दिए। चाचू ने सोचा अब कुछ होगा। पर कुछ नहीं हुआ। वे लोग और पुलिस वाले कुछ देर खड़े रहे। फिर सभी
आगे निकल गए। थोड़ी देर में खामोशी छा गई। चाचू को यह खामोशी डरावनी लगी।

चाचू ने इधर-उधर का जायजा लिया। घोड़ा अँधेरे में खड़ा था। बुत की तरफ चला आया। बूट उतारे और ऊपर चढ़ गया। बुत के मुँह पर वह छोकरा खूब कालिख पोत गया था। चाचू ने छुआ तो चिपचिपी लेर ने उँगली काली कर दी। याद आया कल दो अक्टूबर है। चाचू डर गया। झटपट अपने कंधे पर रखा परना लिया और जोर-जोर से बुत का मुँह रगड़ने लगा। कालिख और काली होती गई। परना काला हो गया पर मुँह पर पोथी काली लेर साफ नहीं हो रही थी। चाचू को पता नहीं चला कि दो पुलिस वाले कब आकर खड़े हो गए। एक ने जोर से पुकारा, "अबे क्या करता है?"
भारी आवाज चाचू के कानों में पड़ी। घबराकर हाथ का कपड़ा नीचे गिर गया। वही पुलिस वाले थे। चाचू समझ गया। हिम्मत बटोरी। यह सोचकर कि अच्छा कर रहा है, शाबसी देंगे।
"सा'ब! देखो-देखो सा'ब। बापू के मुँह पर कालिख पोत दी।"
"कालिख ? " मुँह से बीड़ी ज़मीन पर थूकते हुए एक ने कुछ आश्चर्य से दोहराया।
"जी सा'ब। मैंने देखा सा'ब। आँखों से देखा। एक छोकरा। उसके साथ और भी थे। उस तरफ गए सा'ब।"
दूसरा बूट सहित ऊपर चढ़ा। जेब से टॉर्च निकाली और रोशनी बुत पर मारी। कालिख चमक गई। दूसरा बुत का हुलिया बिगड़ता देख खिच्च से हँसा।
"स म़ झ़ा। तू घोड़े वाला बुढ्ढ़ा है न।"
"हाँ-हाँ! चाचू!"
"साला हमको बनाता है?" ऊपर चढ़े पुलसिये ने रोब मारा।
चाचू कुछ कहता, दूसरा नीचे से बोला, "लगता है मादर अपोजीशन में मिल गया है।"
चाचू ने नहीं सोचा था कि इतना बोल जाएँगे, "क्या बोलते हैं सा'ब। भगवान के लिए।"
"नीचे उतर बे ब़ताते हैं तेरे को।" ऊपर से घसीटते हुए पुलिस वाला चाचू को नीचे ले आया।
'हरामी। सरकार को बदनाम करवाने का षड्यंत्र रचता है। हमको मरवाने का काम करता है।"
"में क्यों सा'ब क़्यों ऐसा करूँगा ?

चा
चू रोने को हो आया था। आगे से एक लाल बत्ती वाली गाड़ी उस तरफ न आती तो चाचू की हड्डी-पसली एक हो जाती। गाड़ी बिल्कुल बुत के सामने रूकी। तत्काल एक पुलिसवाला नीचे उतरा। कंधे पर स्टार चमक रहे थे। वह एस.पी. था। दोनोंने जयहिंद की।
चाचू ओर घबरा गया। जुबान बंद हो गई। टाँगें कांप रही थीं। भूल गया कि साथ घोड़ा भी था। पर वह, जैसे चाचू के साथ घट रहे किस्से को देखकर पेड़ की ओट में चला आया था।
"क्या बात है इसे क्यों रोका है?" एस.पी. ने पुलिसवाले से पूछा,
"सिर इसने बुत पर कालिख।"
पुलिसवाला बात पूरी करता चाचू रूआँसी जुबान में गुहारा, "माई बाप मैंने कुछ नहीं किया। सच बोलता हूँ सा'ब। मैं तो कालिख साफ कर रहा था।"नीचे गिरे काले हुए परने को उठाते हुए चाचू ने उसे दोनों हाथों से एस.पी. साहब के आगे कर दिया।
चाचू की थरथराती आवाज एस.पी. को भीतर तक सालती चली गई। ए.पी. ने चाचू को गौर से देखा। एक नजर पास खड़े घोड़े पर गई। घोड़ा ऐसा खड़ा था जैसे वह इस घटना की सच्चाई बयान करना चाहता हो।

एस.पी. चाचू को बहुत पहले से जानता था। चाचू ने कई बार उसके बच्चों को स्कूल और बाज़ार से आते-जाते घर तक छोड़ा था। पर चाचू उन्हें नहीं पहचान पाया।
पुलिसवालों को हिदायत दी कि वे शीघ्र कंट्रोल रूम जाकर बुत को साफ करने का प्रबंध करें। दोनों उल्टे पाँव भाग लिए। एस.पी. साहब ने चाचू को विनम्रता से कहा,
"चाचू तुम इतनी रात यहाँ कहाँ से आए। सच-सच सारी बात कहो क्या हुआ था?"
चाचू सिसक रहा था। उसी तरह पूरी बात बताई। एस.पी. समझ गया। उसने चाचू को घर जाने के लिए कहा और यह
भी बताया कि उसकी जब भी आवश्यकता होगी उसे दफ्तर में बुलाया जा सकता है।

चाचू ने पाँव छू लिए। लेकिन एस.पी. ने पाँव तक हाथ नहीं जाने दिए।
चाचू ने घोड़े की लगाम थामी और चल दिया। चाचू अभी भी डरा हुआ था। घोड़ा कई बार लगाम छुड़ाता कभी चाचू की तरफ आगे गर्दन करता। पर चाचू चुपचाप चला जा रहा था। घोड़ा पता नहीं चाचू से बतियाना चाहता था या चाचू को निवेदन करना चाहता था कि वह थक गया है, पीठ पर चढ़ जाए। लेकिन चाचू आज तक अपने घोड़े पर नहीं चढ़ा। चाचू मानता था जो पीठ उसे पालती है, उस पर चढ़ बैठकर वह उसे अपमानित कैसे कर सकता है। चाचू को याद आया कि कुछ दिनों पहले ऐसी ही घटना चौड़ा मैदान में भी हुई थी। किसी ने अंबेदकर के बुत पर भी कालिख पोत दी थी जिसको लेकर काफी हँगामा हुआ था।

चाचू अब थका-थका-सा रहता, जैसे होंठ ही सी लिए हों। सवारी मिले या न मिले, उसे परवाह नहीं होती। फिर भी ईश्वर पर उसका बड़ा भरोसा है। सोचता है जिसने जीवन दिया है वही दो वक्त की रोटी भी देगा। और चाचू को बराबर पहले जैसे मिलती भी रही है। अब बुत पर कोई कुछ करे चाचू कुछ नहीं बोलता। उसकी तरफ देखता भी नहीं है। हाँ इतना अवश्य है कि दिन भर जो लोग मूँगफल्ली और केले के छिलके, प्लास्टिक के लिफाफे, बीड़ी-सिगरेट के टोटे वहाँ फेंक जाते
हैं, उन्हें घर लौटने से पूर्व अवश्य साफ कर लेता है।

चाचू देखता है कि अब वह मजदूरों का नेता भी काफी दिनों से वहाँ नहीं आता। चाचू ने बरसों से उसे बापू के पास आते देखा है। कितना प्यारा लगता था चाचू को वह जवान। भूरे बाल, बिल्ली जैसी सफेद-काली आँखें, गोरा रंग, चौड़ा माथा, पैंट-कमीज पहने रहता। कभी कंधे पर एक झोला लटका हुआ होता तो कभी खाली हाथ, महज चप्पलों में आता। आकर बूट या चप्पल नीचे उतार देता। बापू के चरण छूता और रिज की तरफ मुँह किए भाषण देने लगता। उसे किसी से मतलब न होता। कोई सुने या न सुने। लोग हों या न हों। पर चाचू बैठा रहता था। सुनता था। वह कभी मजदूरों पर हो रहे अत्याचार के बारे में बताता, कभी बड़े लोगों की साजिश के बारे में कहता। कभी भ्रष्टाचार के किस्से सुनाता। कभी धर्म के नाम पर रची जा रही साजिशों से लोगों को आगाह करता। बोलते-बोलते उसका चेहरा लाल हो जाया करता। आँखों में खून चढ़ जाता। जैसे उसके सामने वे सारे लोग हों जिनके षड्यंत्रों का पर्दाफाश करने की बातें वह वहाँ कर रहा है।
कई बार वह आता। पर बोलता कुछ नहीं। कई-कई घंटों बापू के चरणों में आँखें बंद किए बैठा रहता।

चाचू ने सुना है कि उसका किसी ने खून कर दिया।
चाचू को पता ही नहीं चला कि सूरज कब छिप गया। वह दिन भर स्मृतियों में खोया रहा। चाचू के पास इनके सिवा रहा भी क्या है। वह घोड़े वाला है। घोड़ा नहीं होता तो उसका बेटा उसे क्यों छोड़कर चला जाता। उससे सभी नफरत करने लगे हैं। बहू भी घोड़े वाले ससुर को कैसे झेलती। बदनामी होती है। बड़े लोग हैं, बड़ी इज्जत है, बड़ी सोसायटी है। एक अफसर का बाप घोड़े वाला तो नहीं हो सकता। चाचू कोशिश करता है मन को समझाने की कि उसके न बेटा है न बहू। न कोई पोता है। वह अकेला है। उसका तो एक घोड़ा है। वे दोनों एक-दूसरे के संसार हैं। परिवार हैं। सबकुछ हैं। पहले चाचू सह लेता था। अब नहीं सहा जाता। बेटा बार-बार ख्यालों में चला आता है। उसे वह एक बार देखना चाहता है। पर उसके पास न उसका पता है, न ही वह अब उसे पहचान सकेगा। नहीं-नहीं वह क्यों नहीं पहचानेगा। माँ-बाप अपने बच्चों को कैसे भूल सकते हैं। चाचू की आँखों के सामने फिर उसका बचपन दौड़ा चला आता है। चाचू घोड़े के गले से लिपट जाया करता है, रोता है। घोड़ा चुपचाप चाचू की गिरफ्त को महसूसता रहता है। इस स्नेह को भीतर तक रिसते अनुभव
करता है, पर बोल नहीं सकता।

चाचू ने मंजरी समेटी और भीतर एक कोने में खड़ी कर दी। शिमला रात की रोशनी से जगमगाने लगा था। चाचू ने लालटेन जला दी। अब मन हल्का-सा लग रहा था जैसे कुछ घटा ही न हो।
फिर उसी तरह सबकुछ चलने लगा जैसे पहले चलता था। चाचू था। उसका घोड़ा था। दिन भर पर्यटक। कभी बच्चे तो कभी शादी-ब्याह।

रिज मैदान की मुरम्मत होने लगी थी। चाचू और दूसरे घोड़े वालों को बैठना मुश्किल हो गया। धूल ही धूल। ढेरों रेत। ढेरों पत्थर की गाड़ियाँ रिज पर उतर रही हैं। ऐसे सफेद व स्लेटी पत्थर चाचू ने पहली बार देखे हैं। कई मजदूर रात-दिन उनको गढ़ते रहते हैं। कुछ तो उसकी उम्र के करीब-करीब हैं। वह फुर्सत में कईयों से गप्प लगा लेता है। चाचू सोचता है वह उनके
परिवार के बारे में पूछे पर हिम्मत नहीं जुटा पाता। सोचता रहता है कि इनके बेटे-बहुएँ भी इन्हें त्यागकर चले गए होंगे।

उसने सुना है बापू का बुत ऊपर उठाया जाएगा। और देखते-देखते चबूतरा टूट गया। नया बन रहा है।
सबकुछ वैसा ही हुआ जैसा चाचू ने सुना-देखा था। बापू का बुत बीस फुट ऊँचा उठ गया है। चाचू को अब गर्दन उठाकर ऊपर देखना पड़ता है। सोचता है टोपी होती तो देखते-देखते गिर जाया करती। अच्छा है अब न पुरानी टोपी है न पुरानी तरह का बुत। चाचू अच्छा भी मानता है। अब कोई उल-जलूल हरकतें कर पाएगा। छोकरे-छल्ले ऊपर जाकर बापू के सिर पर अँग्रेजी टोप नहीं फंसा सकेंगे। अब उनके मुँह में कोई बीड़ी नहीं ठूँसेगा। मुँह चूमते फोटो नहीं खिंचवाएगा। पुलिसवाले अपना बेंत बापू की टाँगों के बीच भी न फंसा सकेंगे। वह पुलिसवाला अपनी बरांडी बापू के पीछे लटकाकर पेशाब भी नहीं कर सकेगा। न कोई खान कुली अपना बोझा वहाँ रख सकेगा। और न कोई रात्रि में इनके मुँह पर कालिख आसानी से
पोत सकेगा। चाचू कई चिंताओं से मुक्त हो गया।

उसे लगता है कि पहले बापू का बुत और वह एक-जैसे थे। पर अब तो बुत बीस फुट ऊँचा हो गया है। काश! वह भी बीस फुट हो जाता। लोग अब कद से डरते हैं। चाचू से सभी उल्टा-सीधा मजाक करते हैं। तहजीब से कोई नहीं बोलता। आदर कोई नहीं देता। उसे अपने से बेहतर घोड़ा लगता है कि उसे कोई दूसरा नहीं छू सकता, उसकी एक लात ही काफी है। वह तो घोड़े की लीद से भी गया-गुजरा हो गया। भले ही वह रिज की कहानी हो। पुरानी दास्तां हो। अतीत हो। शिमला की एक परंपरा हो। किसी को उससे क्या लेना-देना।
एक दिन चाचू उसी तरह चुपचाप बैठा था। किसी ने पुकारा, "ए ओल्डमैन।"
"ओल्डमैन।" चाचू को झटका-सा लगा। कभी अँग्रेज उसे पुकारा करते थे। वह भी इसके हमउम्र। उसे यह आवाज ऊँघ में सुनाई दी थी। ल़हजा हिंदुस्तानी था। अँग्रेजों के बीच रहते हुए वह अँग्रेजी बोल लेता था।
चाचू खड़ा
हो गया। इधर-उधर देखा। कोई अँग्रेज नहीं था। सामने खड़ी एक युवती ने पुन: उसे पुकारा, "मैं तुमको बोल रही हूँ।"

चाचू ने उसे गौर से देखा। बाल कटे हुए थे। कानों में नीचे तक झूलते हुए रिंग, गले में सोने की चेन, बाँहें नंगी। कमर तक ब्लाउजनुमा सफेद रंग का कपड़ा, तीखे लंबे नाखून। जीन की भीड़ी पेंट, मेकअप से सना चेहरा, सुंदर थी। इस चमक-दमक के पीछे उसका भोलापन चाचू ने देखा था। गोद में करीब चार साल का बच्चा था। चाचू की उस पर नज़र
पड़ी। दोनों की आँखें मिलीं। चाचू का बरसों से मुरझाया चेहरा गुलाब हो गया। जैसे वर्षों बाद खंडित मूर्ति पर किसी ने पानी चढ़ा दिया हो।

चाचू को विश्वास नहीं हुआ कि उसे भी खुश होना आता है। घोड़ा पीछे से आगे चला आया था।
बच्चा माँ की गोद से चाचू की तरफ लपका। युवती ने तत्काल अँग्रेजी में डांट दिया, "नो नो स्वीट ही इज एक डर्टी मैन।"
चाचू का माथा ठनका। भ्रम टूट गया। जैसे किसी बच्चे ने डूबते चाँद को पकड़ना चाहा हो।
चाचू ने गुस्से से जवाब दिया, "यैस सन। आई एम ए डर्टी ओल्डमैन।"
युवती सहमी। कानों को विश्वास नहीं हुआ कि बूढ़ा अँग्रेजी में बोल गया है, पर अप्रत्याशित था। चाचू मुड़ने लगा तो युवती ने रोक दिया, "बाबा आपका घोड़ा चाहिए प्लीज।"
चाचू को अच्छा लगा। गलती का अहसास मन में सोचा अच्छे घर की लगती है। मुड़ा, बच्चा पहले की तरह चाचू के पास
आने की उत्सुकता में था।

चाचू ने उसे युवती की गोद से लिया और घोड़े पर बिठा दिया। आगे निकल गया। चाचू उससे खूब बातें करना चाहता था। उसका मुँह चूमना चाहता था। उसे अपनी छाती से लगाना चाहता था प़र सबकुछ मन ही मन हुआ। बच्चा कुछ बतिया रहा था। चाचू ने उसे पीछे से सहारा दिया। दो चक्कर नगरनिगम द्वारा घोड़े के लिए खींची लक्ष्मण रेखा के मध्य लगाए। एक चक्कर अपनी तरफ से लगा दिया। तीसरे चक्कर में घोड़ा युवती के पास रूका। बच्चा उतारा और उसे थमा दिया।

युवती ने पर्स से सौ का नोट निकाला और चाचू को थमा दिया। फेरी का रेट भी नहीं पूछा।
तभी मिल्ट्री के ड्रेस में एक युवक चाचू की तरफ आया। उम्र तीस-चालीस रही होगी। बोली, "क्या कर रही हो नीति चलो भी।"
एक परिचित-सी आवाज़। बरसों पहले की हृदय में बसी हुई। चाचू की नजरें युवक पर पड़ीं स़हसा युवक ने भी चाचू को देखा। चाचू का वात्सल्य जाग गया। मन किया युवक को अपनी बाँहों में भींचकर बरसों का स्नेह उँड़ेल दूँ। फिर कानों में वह आवाज उभरी डर्टी मैन। घोड़े की लगाम थामी। कस कर थामी। मुड़ने से पहले सौ का नोट बच्चे के हाथ में पकड़ा दिया। वह पूर्ववत् चाचू की ओर आकर्षित था।
"लवली ब्वॉय। प्लीज टेक इट्। ईट सॉफ्टी। ईट।"

युवती स्तब्ध रह गई थी। कुछ नहीं समझ पाई। पर युवक के भीतर चाचू की रुआँसी आवाज रिसती चली गई। चाहते हुए भी वह चाचू को नहीं रोक सका। चाचू भीड़ को चीरता हुआ रिज के दूसरे छोर तक निकल गया। युवक की नजरें बापू के बुत पर टिक गई।

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१ अक्तूबर २००३

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