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माँ का चेहरा उन्हें अब भी बरबस याद आ जाता है। अन्न के कितने भी महीन दाने हों फ़टकते, सुखाते, पकाते या परोसते हुए उनके जमीन पर गिर जाने से वह एक-एक को मनोयोग से चुनने लग जाती थी, जैसे वे अन्न के नहीं मोती के दाने हों। बाद में भूख ने उन्हें भी समझा दिया था कि ये दाने सचमुच मोती से कहीं अधिक अनमोल हैं।

बेटे जवान हो गये थे, यों वे भी बूढ़े नहीं थे। बेटे मानते थे कि वे शहर में रहकर भी देहाती-गंवार ही रह गये। कदाचित यह सच था कि गाँव और भूख की सोहबत का इतना गाढ़ा रंग चढ़ गया था उनके दिमाग पर कि शहर और शहर के भरपेट भोजन का कोई प्रभाव वहाँ टिक ही नहीं पाया। वे सब कुछ सीखकर भी होशियारी और मक्कारी नहीं सीख सके। इसे ही उनके बेटे अक्लमंदी कहते और इसी अक्लमंदी के अभाव में उनकी बातों का घर में कोई तवज्जो नहीं। बेटे अपनी मरजी के मालिक थे और कुछ भी करने के लिए आजाद। इस आजादी में उनकी जो हरकतें होतीं, उन्हें देखकर वे हैरान रह जाते ल़गता ही नहीं कि ये बच्चे उनके घर, गाँव, जनपद और मुल्क के हैं। लगता कि इनकी रहन-सहन, चाल-चलन, खान-पान सब कुछ एकदम अनचिन्हा, अनपहचाना है। पता नहीं किस दुनिया-जहान की ये नकल कर रहे थे लगभग रोज उत्सव, पार्टी, नाच, गाना, धूम, धड़ाका। उनके लिए पैसों का यही बेहतर सदुपयोग था। दरबारी प्रसाद जैसे एक ही घर में रहकर भी एक अलग टापू बन गये। पैसों के सदुपयोग की परिभाषा यहाँ एकदम अलग थीं। चूँकि जिंदगी के ककहरे ने उन्हें एकदम दीगर तरीके से सबक सिखाया था। वे चाहते थे कि पैसों को सबसे पहले दुनिया की भूख और बीमारी मिटाने में खर्च होना चाहिए। चाहे वे पैसे किसी के द्वारा भी अर्जित किये गये हों। यह पूरी दुनिया अगर बहुत बड़ी लगती हो तो उसमें कम से कम अपने नजदीकी रिश्तेदारों को ही शामिल करें। अगर यह भी गले से न उतरे तो फिजूलखर्ची और बर्बादी के गुनाह से तो खुद को बचा लें!

पिछले छ: महीने में गाँव से दीदी की छ: चिठ्ठी आ चुकी हैं, जो स्याही से नहीं आँसुओं से लिखी हुई हैं। दीदी की एक किडनी खराब हो गयी है, उसे ऑपरेशन करके बाहर निकलवाना है, नहीं तो दूसरी भी संक्रमित हो जायेगी। उसने किसी तरह दस हजार रूपये जुगाड़ किये हैं, पाँच हजार उसे और चाहिए। घर के सकल आय-व्यय का वित्तमंत्री उनका बड़ा बेटा दुक्खन प्रसाद और मुख्य सलाहकार छोटा बेटा भुक्खन प्रसाद हैं। (दोनों को ही ये नाम बिल्कुल नापसंद हैं और वे खुद को डीपी एवं बीपी कहलवाना पसंद करते हैं। जबकि दरबारी ने ये नाम इसलिए दिये थे कि दुख और भूख को वे अपनी नजरों के सामने हर पल याद रखें। मगर ये लड़के अपने नाम की व्यंजना से बिल्कुल उल्टा विचार रखते थे।)

दरबारी प्रसाद ने छठी बार उन्हें याद दिलाया, "बेटे, पैसे भेज दो। दीदी मेरी सगी है, उसके बहुत ऋण हैं मेरे ऊपर। ऋण न भी होते फिर भी भाई होने के नाते इतनी सी मदद तो फर्ज है हमारा।"

दुक्खन ने छठी बार उसी जवाब की आवृत्ति की जो पहली बार उसने दिया था, "आपने कह दिया, अब मुझ पर छोड़ दीजिए। मैं इंतजाम होते ही भेज दूँगा।"

इस 'इंतजाम' शब्द का रहस्य उन्हें एकदम समझ में नहीं आया। घर में पार्टियाँ चल रही थीं अ़जीब-अजीब तरह के बेमतलब सामान आ रहे थे, जिनके बिना न किसी की छाती में दम घुट रहा था, न किसी के गले में निवाला अटक रहा था। कालीनें बिना फटे ही पुराने पर्दे की जगह नये पर्दे बिना किसी खराबी के पुराने टीवी और ऑडियो सिस्टम का एक्चेंज म़ाइक्रोवेव ओवन वैक्यूम क्लीनर टेलीफोन इंस्ट्रुमेंट के ठीक-ठाक रहते हुए भी कॉर्डलेस उपकरण घर में दो-दो बाइक के रहते हुए भी एक तीसरा बाइक साड़ियाँ, कपड़े और बेडशीट आदि के बेमतलब बदले जाने की तो खैर कोई गिनती नहीं।

दरबारी की आजिजी बढ़ती जा रही थी, लेकिन वे उन्हें बरजने की योग्यता नहीं रखते, यह एहसास उन्हें बहुत पहले करा दिया गया था। वे दोनों कमाऊ और उनसे कई गुणा बेहतर एवं सम्मानित पदों पर थे। लड़के मुँह से कुछ बोलते नहीं थे लेकिन उनके आवभाव से यह ध्वनि स्पष्ट फूटती प्रतीत होती थी कि कमाते हम हैं तो खर्च चाहे कैसे करें, आपको कष्ट नहीं होना चाहिए और आप बाप हैं तो क्या हुआ आज के जमाने में अक्लमंद (होशियार और मक्कार) होना इससे भी बड़ी बात है।

ठीक है, अपनी कमाई चाहे जैसे उड़ायें, दरबारी प्रसाद को इस पर कोई उज्र नहीं थी, उज्र तब होती जब ऐसी ही आजादी उन्हें नहीं दी जाती। वे अपनी कमाई के पैसे अपने अनुसार खर्च नहीं कर सकते, चूँकि बजट बनाने का हक सिर्फ वित्तमंत्री को था। दरबारी प्रसाद ने ठान लिया कि अब उन्हें एक सख्त विपक्ष की भूमिका में आ जाना होगा।

उन्होंने बहुत नाराज भंगिमा बनाकर पूछा दुक्खन से, "क्या मैं जान सकता हूँ कि दीदी को भेजने के लिए इंतजाम कितना आगे बढ़ा। क्या यह इंतजाम दीदी पर कुछ आफत टूट जाने के बाद पूरा होगा?"
"सॉरी बाउजी, मैं बताना भूल गया। फुआ को पैसे तो मैंने भेज दिये, कई दिन हो गये।"
उनके मन ने खट से कहा कि ऐसी बात भूलने की नहीं हो सकती। जरूर कोई भेद हैं, उन्होंने पूछा, "कितने रूपये भेजे?"
"एक हजार।"
"एक हजार? मगर मैंने तो कहा था कि उसे पाँच हजार की जरूरत हैं!"
"अब जरूरत की कोई सीमा तो होती नहीं हैं, बाउजी। माँगने में किसी को क्या जाता है, जितना मन किया माँग लिया। मगर देनेवाले को तो अपना हिसाब-किताब भी देखना पड़ता है। इससे ज्यादा देना संभव नहीं था।"
एकदम चेहरा बुझ गया दरबारी प्रसाद का। कराहते हुए कहा, "क्या मैं किसी बीमारी में घिर जाऊँ और उसमें दस-बीस हजार लगाने पड़ जायें तो यों हीं छोड़ दोगे मुझे मरने के लिए?"
"बाउजी, आप कहाँ की तुक कहाँ जोड़ने लग जाते हैं! कितनी बार कहा कि अपने खंडहर अतीत से निकलिये बाहर और अपने इमोशंस-सेंटीमेंट को नये संदर्भ से जोड़िये। फुआ कोई लावारिस नहीं हैं, उनके अपने परिवार हैं बेटे हैं दामाद हैं।"

दरबारी प्रसाद की आँखें आँसुओं से डबडबा गयीं लगा कि आज भी वे उतने ही बेबस हैं, उतने ही भूखे हैं जितने गाँव में थे। फर्क सिर्फ इतना था कि भूख की वेदना अब आँत में नहीं जिगर में थी। दीदी उनके लिए खून की रिश्तेवाली सिर्फ एक सामान्य बहन नहीं थी। बल्कि उनकी भूख और भोजन से उसकी कई मार्मिक यादें जुड़ी थीं। दीदी उसे भरपेट खिलाने के लिए हर समय उतावली रहती थी।बहुत सुंदर थी दीदी, इसलिए उसका ब्याह एक अच्छे खाते-पीते परिवार में हो गया था। बगल के ही होम-टाउन नवादा में उसका जेठ नौकरी करता था। उसके डेरे पर अक्सर गाँव से लोगों का आना-जाना लगा रहता। कोर्ट-कचहरी, शादी-गौने की खरीदारी और बीमारी की दवा-दारू के लिए। दीदी भी किसी की सुश्रुषा करने या खुद का इलाज करवाने यहाँ आती रहती। गाँव से नवादा जाना तब बहुत आसान था। गाँव के पास ही स्थित स्टेशन पर जाने के लिए दिन भर में दो बार रेलगाड़ी रूकती थी और आने के लिए तीन बार। इनमें सफर के लिए टिकट लेना कभी-कभी ही जरूरी होता था। दरबारी हाई स्कूल में पढ़ रहा था और घूमने-देखने के लिए दोस्तों के साथ बाजार जाने लगा था। बाउजी ने एक दिन कहा कि जब नवादा जाते हो तो जरा दीदी का भी समाचार ले लिया करो।

दरबारी चला गया एक दिन। दीदी यहीं थी। उसे देखकर एकदम खिल उठी। थाली में पानी लाकर उसके पैर धोये (इस अर्थतंत्र में भी भाई की निर्धनता और फटेहाली के गणित से दीदी को कोई मतलब नहीं था) फिर कहा, खाना लगाती हूँ जल्दी से खा लो। उसने नीचे बोरे का आसन बिछा दिया और पानी का जग एवं गिलास रख दिया। दरबारी नीचे बैठ गया। भोजन की थाली आयी तो उसे देखकर उसकी आँखें चमक उठीं। इतना बढ़िया खाना उसने कब खाया था, याद करने की कोशिश की, लेकिन याद नहीं आया। भर थाली भात, भर कटोरा झोलदार मछली, पापड़, अचार और सलाद। अपने घर में भी उसने भात खाये थे और मछली भी मगर ऐसा भात, खुशबूदार, रूई के फाहे की तरह मुलायम एवं लंबे-लंबे। उसने बड़ा सा कौर मुँह में डालते हुए पूछा, "यह कौन-सा भात और कौन-सी मछली है दीदी?"

दीदी उसके सामने ही बैठी थी, कहा, "इसे बासमती चावल कहते हैं और मछली का नाम रोहू हैं।"
दीदी ने आगे कहा कि उसके जेठ खाने-पीने के बहुत शौकीन हैं, हमेशा माँस-मछली और ऐसा ही उम्दा किस्म का महँगा चावल खाते हैं। दरबारी ने पहली बार यह जाना था कि आदमी-आदमी में फर्क की तरह चावल-चावल में इतना फर्क हो सकता है। उसने खूब छककर खाया और फिर दीदी को बहुत कृतज्ञ नेत्रों से निहारा।

दीदी उसे इस तरह बेसुध होकर खाते देख खुद भी एक आह्लाद से भरती रही। उसने माँ-बाउजी का समाचार पूछा। दुखी हुई जानकर कि वे पहले की तरह ही बीमार और दुर्बल हैं। आगे यह भी पूछा कि इस समय घर में खाने के लिए क्या है?

दरबारी ने बताया, "आठ दिन पहले तो कुछ नहीं हुआ था, अभी-अभी मडुआ कटा है तो रात-दिन मडुआ की रोटी चल रही है।"

दीदी को कोई ताज्जुब नहीं हुआ। वह जानती थी कि यही होता रहा है धान की फसल होने पर जब तक चावल खत्म न हो जाये रात दिन भात गेहूँ की फसल होने पर जब तक गेहूँ खत्म न हो जाये रात दिन गेहूँ की रोटी इ़सी तरह चना, मकई और खेसाड़ी आदि के साथ भी होता था। दीदी के चेहरे पर एक मायूसी उभर आयी। उसने दरबारी के माथे को सहलाते हुए कहा, "सबका दिन फिरता है मुन्ना देखना, तुम्हारा भी फिरेगा एक दिन। खूब मन लगाकर पढ़ो, जरूर तुम्हें कोई अच्छा काम मिल जायेगा।"

वह दीदी का मुँह देखता रह गया था, क्या सचमुच ऐसा होगा?
दीदी ने आगे बताया था, "मैं अभी चार-छह महीने यहीं रहूँगी। जेठानी को लड़का हुआ है। घर का सारा काम मेरे ही जिम्मे हैं खाना बनाने से लेकर उनका बदन मालिश तक। करना पड़ता है, तुम्हारे जीजा भी बेरोजगार हैं न और सबको मालूम है कि मैं बहुत गरीब घर से आयी हूँ!" दीदी के चेहरे पर एक थकान और बेबसी झाँक गयी थी। उसने फिर कहा, "तुम कम से कम हर इतवार को आ जाया करो। जेठ जी अभी खाना खाने आयेंगे, तुम उनसे बढ़िया से प्रणाम-पाति करके बोलना-बतियाना।"

जेठ आया तो मन न होते हुए भी उसने उसके पैर छूकर प्रणाम किये। दीदी ने जेठ को सुनाते हुए कहा, "आज यहीं रूक जाओ दरबारी, कल सुबह चले जाना।"
दरबारी ने जेठ के चेहरे देखे, कोई आपत्ति नहीं थी वहाँ। पैर छूने का शायद असर हुआ। रूक गया वह, लालच तो था ही कि दो-तीन शाम और अच्छा खाना मिल जायेगा।
किसी शहर में रात गुजारने का यह उसके लिए पहला मौका भी था। खासकर एक ऐसे क्वार्टर में जहाँ इकठ्ठे सब कुछ उपलब्ध हों, टायलेट, बाथरूम, बिजली, पानी।

बहुत मजा आया उसे, मन ही मन उसने प्रार्थना की, ' हे भगवान! क्या हमें भी ऐसी जिंदगी नहीं मिल सकती है?"
क्वार्टर के पास ही इस शहर का इकलौता सिनेमा हॉल सरस्वती टॉकिज था। उसने अब तक सिनेमा नहीं देखा था, हाँ एक हसरत से इस हॉल को उसने कई बार बड़ी देर तक खड़े हो-होकर देखा था। खासकर शो के टाइम हो जाने पर टिकट के लिए मची एक अफरा-तफरी देखकर उसके मन में एक जोरदार कौतूहल हो उठता था कि जरूर यह सिनेमा एक ऐसी चीज है जो सबको सहज उपलब्ध नहीं हो सकता। वह हॉल के शीर्ष पर रखे लाउडस्पीकर के चोंगे से बजते नये-नये फिल्मी गानों को बड़े ध्यान से सुनता और संतोष कर लेता।

जब मैटिनी शो का टाइम होने लगा तो लाउडस्पीकर की आवाज क्वार्टर में ही आने लगी। खिड़की के पास बैठकर उसने कान इधर ही लगा दिये। आनंद की एक हिलोरें उठने लगीं उसके मन में। ठहरे हुए, ठिठके हुए गाँव की तुलना में शहर कितना चलायमान और गुंजायमान होता है न!

दीदी के जेठ जब शाम को ऑफिस से वापस आए तो साथ में कई तरह की सब्जियाँ और फल भी लेते आए। दीदी उनके आने के ठीक पहले किचेन में चली गयी जहाँ से क्षुधा-ग्रंथि को जाग्रत कर देने वाली खुशबुएँ आनी शुरू हो गयीं। थोड़ी ही देर में उसने एक गरमागरम प्लेट लाकर दिया जिसमें देखते ही खाने का आमंत्रण समाया था। प्लेट की एक सामग्री हलवा को वह पहचानता था, दूसरी का नाम दीदी ने पनीर पकौड़ा बताया। गजब का स्वाद था उसमें। इसे खाने के बाद चाय दी गयी। रात के खाने में घी से चुपड़ी हुई चपातियाँ और दो-तीन तरह की बेहद लज़ीज़ सब्जियाँ थीं। रात में लग ही नहीं रहा था कि कहीं से भी अँधेरा हें। घर-बाहर हर जगह तेज रौशनी फैली थी और सारी चीजें दिन की तरह दिखाई पड़ रही थीं। गाँव के घरों में तो टिमटिमाते दीए की क्षीण और मरियल रौशनी के अलावा हर जगह अँधेरा ही अँधेरा बिछा होता हैं। उसे अच्छी नींद नहीं आयी बस सोचता ही रह गया कि इस एक दुनिया में कितनी अलग-अलग दुनिया हैं और इनमें रहनेवाले लोग कितने अलग-अलग हैं।

सुबह शौचालय जाने में उसने खूब फूर्ती महसूस की। गाँव में लोटा लेकर कम से कम एक मील तो पैदल जाना ही पड़ता था। अगर कहीं जोर लग गया तो सिवा किसी तरह रोक रखने का दूसरा कोई उपाय नहीं। उसने आज धोने में ढेर सारा पानी का इस्तेमाल किया। एक लोटे पानी से धोने में उसे हर बार लगता था कि यह बहुत कम हैं। ऐसा ही उसने नहाने में भी किया। ऊपर फव्वारा था, दरवाजा बंद करके उसने जोर से चला दिया। इस तरह बंद कमरे में अकेले नंगे होकर नहाने का यह उसका पहला अवसर था। हालांकि खुद से भी लाज लग रही थी उसे। उसने अच्छी तरह पूरी देह में दो बार साबुन लगाये। पता नहीं कितने दिनों बाद आज वह साबुन लगा रहा था।

कपड़े आदि उसने पहन लिये तो दीदी ने कहा, "नाश्ता ला रही हूँ, खा लो।"
उसने थाली और कटोरे में पूड़ी, सब्जी और खीर ला दी। दरबारी खाते हुए एक रोमाँच से गुजरता रहा कि यह कैसा सौभाग्य है कि रात-दिन में यहाँ चार-चार बार लोग खा रहे हैं और चारों ही बार अलग-अलग तरह की चीजें! जबकि उसे एक ही तरह का रूखा-सूखा दो बार भी नियमित नहीं मिला करता। उसने सुना भर था कि अलग-अलग समय के खाने का अलग-अलग नाम होता है - ब्रेक फास्ट, लंच, स्नैक्स, डिनर आ़ज उसने चरितार्थ होते देख लिया।

नाश्ता करके उसने स्टेशन के लिए निकल जाना चाहा, लेकिन दीदी ने कहा, "खाना खाकर बारह बजेवाली पैसेंजर से चले जाना। जेठ जी माँस लाने गये हैं।"

माँस के नाम से उसके खाने की तलब में एक अधैर्य समा गया और मुँह में ढेर सारी लार भर आयी। अपने घर में माँस खाये उसे न जाने कितने महीने हो गये। रूक गया वह और जी भरकर माँस-भात खाया।
दीदी ने चलते हुए उसकी मुठ्ठी में पाँच रूपये पकड़ा दिये और कहा, "इतवार को आ जाया करना दरबारी।"

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