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                     पर 
                    जाने क्या है कि मैं उस पर नाराज़ नहीं हो पाती हूँ, बल्कि एक 
                    पुलकमय सिहरन महसूस करती हूँ। सच, संजय के मुँह से ऐसा वाक्य 
                    सुनने को मेरा मन तरसता रहता है, पर उसने कभी ऐसी बात नहीं की। 
                    पिछले ढाई साल से मैं संजय के साथ रह रही हूँ। रोज़ ही शाम को 
                    हम घूमने जाते हैं। कितनी ही बार मैंने शृंगार किया, अच्छे 
                    कपड़े पहने, पर प्रशंसा का एक शब्द भी उसके मुँह से नहीं सुना। 
                    इन बातों पर उसका ध्यान ही नहीं जाता, यह देखकर भी जैसे यह सब 
                    नहीं देख पाता। इस वाक्य को सुनने के लिए तरसता हुआ मेरा मन 
                    जैसे रस से नहा जाता है। पर निशीथ ने यह बात क्यों कही? उसे 
                    क्या अधिकार है? 
 क्या सचमुच ही उसे अधिकार नहीं है? नहीं है?
 जाने कैसी मजबूरी है, कैसी विवशता है कि मैं इस बात का जवाब 
                    नहीं दे पाती हूँ। निश्चयात्मक दृढ़ता से नहीं कह पाती कि साथ 
                    चलते इस व्यक्ति को सचमुच ही मेरे विषय में ऐसी अवांछित बात 
                    कहने का कोई अधिकार नहीं है।
 हम दोनों टैक्सी में बैठते हैं। मैं सोचती हूँ, आज मैं इसे 
                    संजय की बात बता दूँगी।
 "स्काई-रूम!" निशीथ टैक्सीवाले को आदेश देता है।
 'टुन' की घंटी के साथ मीटर डाउन होता है और टैक्सी हवा से 
                    बातें करने लगती है। निशीथ बहुत सतर्कता से कोने में बैठा है, 
                    बीच में इतनी जगह छोड़कर कि यदि हिचकोला खाकर भी टैक्सी रूके, 
                    तो हमारा स्पर्श न हो। हवा के झोंके से मेरी रेशमी साड़ी का 
                    पल्लू उसके समूचे बदन को स्पर्श करता हुआ उसकी गोदी में पड़कर 
                    फरफराता है। वह उसे हटाता नहीं है। मुझे लगता है, यह रेशमी, 
                    सुवासित पल्लू उसके तन-मन को रस से भिगो रहा है, यह स्पर्श उसे 
                    पुलकित कर रहा है, मैं विजय के अकथनीय आह्लाद से भर जाती हूँ।
 
 आज भी मैं संजय की बात नहीं कह पाती। चाहकर भी नहीं कह पाती। 
                    अपनी इस विवशता पर मुझे खीज भी आती है, पर मेरा मुँह है कि 
                    खुलता ही नहीं। मुझे लगता है कि मैं जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध 
                    कर रही होऊँ, पर फिर भी मैं कुछ नहीं कह सकी।
 
 यह निशीथ कुछ बोलता क्यों नहीं? उसका यों कोने में दुबककर 
                    निर्विकार भाव से बैठे रहना मुझे कतई अच्छा नहीं लगता। एकाएक 
                    ही मुझे संजय की याद आने लगती है। इस समय वह यहाँ होता तो उसका 
                    हाथ मेरी कमर में लिपटा होता! यों सड़क पर ऐसी हरकतें मुझे 
                    स्वयं पसन्द नहीं, पर जाने क्यों, किसी की बाहों की लपेट के 
                    लिए मेरा मन ललक उठता है। मैं जानती हूँ कि जब निशीथ बगल में 
                    बैठा हो, उस समय ऐसी इच्छा करना, या ऐसी बात सोचना भी कितना 
                    अनुचित है। पर मैं क्या करूँ? जितनी द्रुतगति से टैक्सी चली जा 
                    रही है, मुझे लगता है, उतनी ही द्रुतगति से मैं भी बही जा रही 
                    हूँ, अनुचित, अवांछित दिशाओं की ओर।
 
 टैक्सी झटका खाकर रूकती है तो मेरी चेतना लौटती है। मैं जल्दी 
                    से दाहिनी ओर का फाटक खोलकर कुछ इस हड़बड़ी से नीचे उतर पड़ती 
                    हूँ, मानो अन्दर निशीथ मेरे साथ कोई बदतमीजी कर रहा हो।
 "अजी, इधर से उतरना चाहिए कभी?" टैक्सीवाला कहता है मुझे अपनी 
                    गलती का भान होता है। उधर निशीथ खड़ा है, इधर मैं, बीच में 
                    टैक्सी!
 पैसे लेकर टैक्सी चली जाती है तो हम दोनों एक-दूसरे के 
                    आमने-सामने हो जाते हैं। एकाएक ही मुझे खयाल आता है कि टैक्सी 
                    के पैसे तो मुझे ही देने चाहिए थे। पर अब क्या हो सकता था! 
                    चुपचाप हम दोनों अन्दर जाते हैं। आस-पास बहुत कुछ है, चहल-पहल, 
                    रौशनी, रौनक। पर मेरे लिए जैसे सबका अस्तित्व ही मिट जाता है। 
                    मैं अपने को सबकी नज़रों से ऐसे बचाकर चलती हूँ, मानो मैंने 
                    कोई अपराध कर डाला हो, और कोई मुझे पकड़ न ले।
 क्या सचमुच ही मुझसे कोई अपराध हो गया है?
 आमने-सामने हम दोनों बैठ जाते हैं। मैं होस्ट हूँ, फिर भी उसका 
                    पार्ट वही अदा कर रहा है। वही ऑर्डर देता है। बाहर की हलचल और 
                    उससे अधिक मन की हलचल में मैं अपने को खोया-खोया-सा महसूस करती 
                    हूँ।
 
 हम दोनों के सामने बैरा कोल्ड-कॉफी के गिलास और खाने का कुछ 
                    सामान रख जाता है। मुझे बार-बार लगता है कि निशीथ कुछ कहना चाह 
                    रहा है। मैं उसके होंठों की धड़कन तक महसूस करती हूँ। वह जल्दी 
                    से कॉफी का स्ट्रॉ मुँह से लगा लेता है।
 मूर्ख कहीं का! वह सोचता है, मैं बेवकूफ हूँ। मैं अच्छी तरह 
                    जानती हूँ कि इस समय वह क्या सोच रहा है।
 
 तीन दिन साथ रहकर भी हमने उस प्रसंग को नहीं छेड़ा। शायद नौकरी 
                    की बात ही हमारे दिमागों पर छाई हुई थी। पर आज आज अवश्य ही वह 
                    बात आएगी! न आए, यह कितना अस्वाभाविक है! पर नहीं, स्वाभाविक 
                    शायद यही है। तीन साल पहले जो अध्याय सदा के लिए बन्द हो गया, 
                    उसे उलटकर देखने का साहस शायद हम दोनों में से किसी में नहीं 
                    है। जो सम्बन्ध टूट गए, टूट गए। अब उन पर कौन बात करे? मैं तो 
                    कभी नहीं करूँगी। पर उसे तो करना चाहिए। तोड़ा उसने था, बात भी 
                    वही आरम्भ करे। मैं क्यों करूँ, और मुझे क्या पड़ी है? मैं तो 
                    जल्दी ही संजय से विवाह करनेवाली हूँ। क्यों नहीं मैं इसे अभी 
                    संजय की बात बता देती? पर जाने कैसी विवशता है, जाने कैसा मोह 
                    है कि मैं मुँह नहीं खोल पाती। एकाएक मुझे लगता है जैसे उसने 
                    कुछ कहा
 "आपने कुछ कहा?"
 "नहीं तो!"
 मैं खिसिया जाती हूँ।
 
 फिर वही मौन! खाने में मेरा ज़रा भी मन नहीं लग रहा है, पर 
                    यन्त्रचलित-सी मैं खा रही हूँ। शायद वह भी ऐसे ही खा रहा है। 
                    मुझे फिर लगता है कि उसके होंठ फड़क रहे हैं, और स्ट्रॉ पकड़े 
                    हुए उंगलियाँ काँप रही हैं। मैं जानती हूँ, वह पूछना चाहता है, 
                    "दीपा, तुमने मुझे माफ तो कर दिया न?
 वह पूछ ही क्यों नहीं लेता? मान लो, यदि पूछ ही ले, तो क्या 
                    मैं कह सकूँगी कि मैं तुम्हें ज़िन्दगी-भर माफ नहीं कर सकती, 
                    मैं तुमसे नफरत करती हूँ, मैं तुम्हारे साथ घूम-फिर ली, या 
                    कॉफी पी ली, तो यह मत समझो कि मैं तुम्हारे विश्वासघात की बात 
                    को भूल गई हूँ?
 
 और एकाएक ही पिछला सब कुछ मेरी आँखों के आगे तैरने लगता है। पर 
                    यह क्या? असह्य अपमानजनित पीड़ा, क्रोध और कटुता क्यों नहीं 
                    याद आती? मेरे सामने तो पटना में गुजारी सुहानी सन्ध्याओं और 
                    चाँदनी रातों के वे चित्र उभरकर आते हैं, जब घंटों समीप बैठ, 
                    मौन भाव से हम एक-दूसरे को निहारा करते थे। बिना स्पर्श किए भी 
                    जाने कैसी मादकता तन-मन को विभोर किए रहती थी, जाने कैसी 
                    तन्मयता में हम डूबे रहते थे ए़क विचित्र-सी, स्वप्निल दुनिया 
                    में! मैं कुछ बोलना भी चाहती तो वह मेरे मुँह पर उंगली रखकर 
                    कहता, "आत्मीयता के ये क्षण अनकहे ही रहने दो, दीपा!"
 
 आज भी तो हम मौन ही हैं, एक-दूसरे के निकट ही हैं। क्या आज भी 
                    हम आत्मीयता के उन्हीं क्षणों में गुज़र रहे हैं? मैं अपनी 
                    सारी शक्ति लगाकर चीख पड़ना चाहती हूँ, नही! नहीं! नहीं! पर 
                    कॉफी सिप करने के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कर पाती। मेरा यह 
                    विरोध हृदय की न जाने कौन-सी अतल गहराइयों में डूब जाता है!
 
 निशीथ मुझे बिल नहीं देने देता। एक विचित्र-सी भावना मेरे मन 
                    में उठती है कि छीना-झपटी में किसी तरह मेरा हाथ इसके हाथ से 
                    छू जाए! मैं अपने स्पर्श से उसके मन के तारों को झनझना देना 
                    चाहती हूँ। पर वैसा अवसर नहीं आता। बिल वही देता है, मुझसे तो 
                    विरोध भी नहीं किया जाता।
 
 मन में प्रचंड तूफान! पर फिर भी निर्विकार भाव से मैं टैक्सी 
                    में आकर बैठती हूँ फ़िर वही मौन, वही दूरी। पर जाने क्या है कि 
                    मुझे लगता है कि निशीथ मेरे बहुत निकट आ गया है, बहुत ही निकट! 
                    बार-बार मेरा मन करता है कि क्यों नहीं निशीथ मेरा हाथ पकड़ 
                    लेता, क्यों नहीं मेरे कन्धे पर हाथ रख देता? मैं ज़रा भी बुरा 
                    नहीं मानूँगी, ज़रा भी नहीं! पर वह कुछ भी नहीं करता।
 सोते समय रोज़ की तरह मैं आज भी संजय का ध्यान करते हुए ही 
                    सोना चाहती हूँ, पर निशीथ है कि बार-बार संजय की आकृति को 
                    हटाकर स्वयं आ खड़ा होता है।
 
 कलकत्ता
 
 अपनी मज़बूरी पर खीज-खीज जाती हूँ। आज कितना अच्छा मौका था 
                    सारी बात बता देने का! पर मैं जाने कहाँ भटकी थी कि कुछ भी 
                    नहीं बता पाई।
 शाम को मुझे निशीथ अपने साथ 'लेक' ले गया। पानी के किनारे हम 
                    घास पर बैठ गए। कुछ दूर पर काफी भीड़-भाड़ और चहल-पहल थी, पर 
                    यह स्थान अपेक्षाकृत शान्त था। सामने लेक के पानी में 
                    छोटी-छोटी लहरें उठ रही थीं। चारों ओर के वातावरण का कुछ 
                    विचित्र-सा भाव मन पर पड़ रहा था।
 "अब तो तुम यहाँ आ जाओगी!" मेरी ओर देखकर उसने कहा।
 "हाँ!"
 "नौकरी के बाद क्या इरादा है?"
 मैंने देखा, उसकी आँखों में कुछ जानने की आतुरता फैलती जा रही 
                    है, शायद कुछ कहने की भी। मुझसे कुछ जानकर वह अपनी बात कहेगा।
 "कुछ नहीं!" जाने क्यों मैं यह कह गई। कोई है जो मुझे कचोटे 
                    डाल रहा है। क्यों नहीं मैं बता देती कि नौकरी के बाद मैं संजय 
                    से विवाह करूँगी, मैं संजय से प्रेम करती हूँ, वह मुझसे प्रेम 
                    करता है? वह बहुत अच्छा है, बहुत ही! वह मुझे तुम्हारी तरह 
                    धोखा नहीं देगा, पर मैं कुछ भी तो नहीं कह पाती। अपनी इस बेबसी 
                    पर मेरी आँखें छलछला आती हैं। मैं दूसरी ओर मुँह फेर लेती हूँ।
 "तुम्हारे यहाँ आने से मैं बहुत खुश हूँ!"
 
 मेरी साँस जहाँ-की-तहाँ रूक जाती है आगे के शब्द सुनने के लिए, 
                    पर शब्द नहीं आते। बड़ी कातर, करूण और याचना-भरी दृष्टि से मैं 
                    उसे देखती हूँ, मानो कह रही होऊँ कि तुम कह क्यों नहीं देते 
                    निशीथ, कि आज भी तुम मुझे प्यार करते हो, तुम मुझे सदा अपने 
                    पास रखना चाहते हो, जो कुछ हो गया है, उसे भूलकर तुम मुझसे 
                    विवाह करना चाहते हो? कह दो, निशीथ, कह दो! य़ह सुनने के लिए 
                    मेरा मन अकुला रहा है, छटपटा रहा है! मैं बुरा नहीं मानूँगी, 
                    ज़रा भी बुरा नहीं मानूँगी। मान ही कैसे सकती हूँ निशीथ! इतना 
                    सब हो जाने के बाद भी शायद मैं तुम्हें प्यार करती हूँ - शायद 
                    नहीं, सचमुच ही मैं तुम्हें प्यार करती हूँ!
 
 मैं जानती हूँ-तुम कुछ नहीं कहोगे, सदा के ही मितभाषी जो हो। 
                    फिर भी कुछ सुनने की आतुरता लिये मैं तुम्हारी तरफ देखती रहती 
                    हूँ। पर तुम्हारी नज़र तो लेक के पानी पर जमी हुई है श़ान्त, 
                    मौन!
 आत्मीयता के ये क्षण अनकहे भले ही रह जाएँ पर अनबूझे नहीं रह 
                    सकते। तुम चाहे न कहो, पर मैं जानती हूँ, तुम आज भी मुझे प्यार 
                    करते हो, बहुत प्यार करते हो! मेरे कलकत्ता आ जाने के बाद इस 
                    टूटे सम्बन्ध को फिर से जोड़ने की बात ही तुम इस समय सोच रहे 
                    हो। तुम आज भी मुझे अपना ही समझते हो, तुम जानते हो, आज भी 
                    दीपा तुम्हारी है! औ़र मैं?
 लगता है, इस प्रश्न का उत्तर देने का साहस मुझमें नहीं है। 
                    मुझे डर है कि जिस आधार पर मैं तुमसे नफरत करती थी, उसी आधार 
                    पर कहीं मुझे अपने से नफरत न करनी पड़े।
 लगता है, रात आधी से भी अधिक ढल गई है।
 
 कानपुर
 
 मन में उत्कट अभिलाषा होते हुए भी निशीथ की आवश्यक मीटिंग की 
                    बात सुनकर मैंने कह दिया था कि तुम स्टेशन मत आना। इरा आई थी, 
                    पर गाड़ी पर बिठाकर ही चली गई, या कहूँ कि मैंने जबर्दस्ती ही 
                    उसे भेज दिया। मैं जानती थी कि लाख मना करने पर भी निशीथ आएगा 
                    और विदा के उन अन्तिम क्षणों में मैं उसके साथ अकेली ही रहना 
                    चाहती थी। मन में एक दबी-सी आशा थी कि चलते समय ही शायद वह कुछ 
                    कह दे। गाड़ी चलने में जब दस मिनट रह गए तो देखा, बड़ी 
                    व्यग्रता से डिब्बों में झाँकता-झाँकता निशीथ आ रहा था। प़ागल! 
                    उसे इतना तो समझना चाहिए कि उसकी प्रतीक्षा में मैं यहाँ बाहर 
                    खड़ी हूँ!
 
 मैं दौड़कर उसके पास जाती हूँ, "आप क्यों आए?" पर मुझे उसका 
                    आना बड़ा अच्छा लगता है! वह बहुत थका हुआ लग रहा है। शायद सारा 
                    दिन बहुत व्यस्त रहा और दौड़ता-दौड़ता मुझे सी-ऑफ करने यहाँ आ 
                    पहुँचा। मन करता है कुछ ऐसा करूँ, जिससे इसकी सारी थकान दूर हो 
                    जाए। पर क्या करूँ? हम डिब्बे के पास आ जाते हैं।
 "जगह अच्छी मिल गई?" वह अन्दर झाँकते हुए पूछता है।
 "हाँ!"
 "पानी-वानी तो है?"
 "है।"
 "बिस्तर फैला लिया?"
 मैं खीज पड़ती हूँ। वह शायद समझ जाता है, सो चुप हो जाता है। 
                    हम दोनों एक क्षण को एक-दूसरे की ओर देखते हैं। मैं उसकी आँखों 
                    में विचित्र-सी छायाएँ देखती हूँ, मानो कुछ है, जो उसके मन में 
                    घुट रहा है, उसे मथ रहा है, पर वह कह नहीं पा रहा है। वह क्यों 
                    नहीं कह देता? क्यों नहीं अपने मन की इस घुटन को हल्का कर 
                    लेता?
 "आज भीड़ विशेष नहीं है," चारों ओर नज़र डालकर वह कहता है।
 
 मैं भी एक बार चारों ओर देख लेती हूँ, पर नज़र मेरी बार-बार 
                    घड़ी पर ही जा रही है। जैसे-जैसे समय सरक रहा है, मेरा मन किसी 
                    गहरे अवसाद में डूब रहा है। मुझे कभी उस पर दया आती है तो कभी 
                    खीज। गाड़ी चलने में केवल तीन मिनट बाकी रह गए हैं। एक बार फिर 
                    हमारी नज़रें मिलती हैं।
 "ऊपर चढ़ जाओ, अब गाड़ी चलनेवाली है।"
 बड़ी असहाय-सी नज़र से मैं उसे देखती हूँ, मानो कह रही होऊँ, 
                    तुम्हीं चढ़ा दो। औ़र फिर धीरे-धीरे चढ़ जाती हूँ। दरवाज़े पर 
                    मैं खड़ी हूँ और वह नीचे प्लेटफॉर्म पर।
 "जाकर पहुँचने की खबर देना। जैसे ही मुझे इधर कुछ निश्चित रूप 
                    से मालूम होगा, तुम्हें सूचना दूँगा।"
 मैं कुछ बोलती नहीं, बस उसे देखती रहती हूँ
 सीटी ह़री झंडी फ़िर सीटी। मेरी आँखें छलछला आती हैं।
 
 गाड़ी एक हल्के-से झटके के साथ सरकने लगती है। वह गाड़ी के साथ 
                    कदम आगे बढ़ाता है और मेरे हाथ पर धीरे-से अपना हाथ रख देता 
                    है। मेरा रोम-रोम सिहर उठता है। मन करता है चिल्ला पडूँ-मैं सब 
                    समझ गई, निशीथ, सब समझ गई! जो कुछ तुम इन चार दिनों में नहीं 
                    कह पाए, वह तुम्हारे इस क्षणिक स्पर्श ने कह दिया। विश्वास 
                    करो, यदि तुम मेरे हो तो मैं भी तुम्हारी हूँ, केवल तुम्हारी, 
                    एकमात्र तुम्हारी! पर मैं कुछ कह नहीं पाती। बस, साथ चलते 
                    निशीथ को देखती-भर रहती हूँ। गाड़ी के गति पकड़ते ही वह हाथ को 
                    ज़रा-सा दबाकर छोड़ देता है। मेरी छलछलाई आँखें मुँद जाती हैं। 
                    मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, बाकी सब 
                    झूठ है, अपने को भूलने का, भरमाने का, छलने का असफल प्रयास है।
 
 आँसू-भरी आँखों से मैं प्लेटफॉर्म को पीछे छूटता हुआ देखती 
                    हूँ। सारी आकृतियाँ धुँधली-सी दिखाई देती हैं। असंख्य हिलते 
                    हुए हाथों के बीच निशीथ के हाथ को, उस हाथ को, जिसने मेरा हाथ 
                    पकड़ा था, ढूँढने का असफल-सा प्रयास करती हूँ। गाड़ी 
                    प्लेटफॉर्म को पार कर जाती है, और दूर-दूर तक कलकत्ता की 
                    जगमगाती बत्तियाँ दिखाई देती हैं। धीरे-धीरे वे सब दूर हो जाती 
                    हैं, पीछे छूटती जाती हैं। मुझे लगता है, यह दैत्याकार ट्रेन 
                    मुझे मेरे घर से कहीं दूर ले जा रही है - अनदेखी, अनजानी राहों 
                    में गुमराह करने के लिए, भटकाने के लिए!
 
 बोझिल मन से मैं अपने फैलाए हुए बिस्तर पर लेट जाती हूँ। आँखें 
                    बन्द करते ही सबसे पहले मेरे सामने संजय का चित्र उभरता है 
                    क़ानपुर जाकर मैं उसे क्या कहूँगी? इतने दिनों तक उसे छलती आई, 
                    अपने को छलती आई, पर अब नहीं। मैं उसे सारी बात समझा दूँगी। 
                    कहूँगी, संजय जिस सम्बन्ध को टूटा हुआ जानकर मैं भूल चुकी थी, 
                    उसकी जड़ें हृदय की किन अतल गहराइयों में जमी हुई थीं, इसका 
                    अहसास कलकत्ता में निशीथ से मिलकर हुआ। याद आता है, तुम निशीथ 
                    को लेकर सदैव ही संदिग्ध रहते थे, पर तब मैं तुम्हें ईर्ष्यालु 
                    समझती थी, आज स्वीकार करती हूँ कि तुम जीते, मैं हारी! सच 
                    मानना संजय, ढ़ाई साल मैं स्वयं भ्रम में थी और तुम्हें भी 
                    भ्रम में डाल रखा था, पर आज भ्रम के, छलना के सारे ही जाल 
                    छिन्न-भिन्न हो गए हैं। मैं आज भी निशीथ को प्यार करती हूँ। और 
                    यह जानने के बाद, एक दिन भी तुम्हारे साथ और छल करने का 
                    दुस्साहस कैसे करूँ? आज पहली बार मैंने अपने सम्बन्धों का 
                    विश्लेषण किया, तो जैसे सब कुछ ही स्पष्ट हो गया और जब मेरे 
                    सामने सब कुछ स्पष्ट हो गया, तो तुमसे कुछ भी नहीं छिपाऊँगी, 
                    तुम्हारे सामने मैं चाहूँ तो भी झूठ नहीं बोल सकती।
 
 आज लग रहा है, तुम्हारे प्रति मेरे मन में जो भी भावना है वह 
                    प्यार की नहीं, केवल कृतज्ञता की है। तुमने मुझे उस समय सहारा 
                    दिया था, जब अपने पिता और निशीथ को खोकर मैं चूर-चूर हो चुकी 
                    थी। सारा संसार मुझे वीरान नज़र आने लगा था, उस समय तुमने अपने 
                    स्नेहिल स्पर्श से मुझे जिला दिया, मेरा मुरझाया, मरा मन हरा 
                    हो उठा, मैं कृतकृत्य हो उठी, और समझने लगी कि मैं तुमसे प्यार 
                    करती हूँ। पर प्यार की बेसुध घड़ियाँ, वे विभोर क्षण, तन्मयता 
                    के वे पल, जहाँ शब्द चुक जाते हैं, हमारे जीवन में कभी नहीं 
                    आए। तुम्हीं बताओ, आए कभी? तुम्हारे असंख्य आलिंगनों और 
                    चुम्बनों के बीच भी, एक क्षण के लिए भी तो मैंने कभी तन-मन की 
                    सुध बिसरा देनेवाली पुलक या मादकता का अनुभव नहीं किया।
 
 सोचती हूँ, निशीथ के चले जाने के बाद मेरे जीवन में एक विराट 
                    शून्यता आ गई थी, एक खोखलापन आ गया था, तुमने उसकी पूर्ति की। 
                    तुम पूरक थे, मैं गलती से तुम्हें प्रियतम समझ बैठी।
 मुझे क्षमा कर दो संजय और लौट जाओ। तुम्हें मुझ जैसी अनेक 
                    दीपाएँ मिल जाएँगी, जो सचमुच ही तुम्हें प्रियतम की तरह प्यार 
                    करेंगी। आज एक बात अच्छी तरह जान गई हूँ कि प्रथम प्रेम ही 
                    सच्चा प्रेम होता है, बाद में किया हुआ प्रेम तो अपने को भूलने 
                    का, भरमाने का प्रयास-मात्र होता है।
 
 इसी तरह की असंख्य बातें मेरे दिमाग में आती हैं, जो मैं संजय 
                    से कहूँगी। कह सकूँगी यह सब? लेकिन कहना तो होगा ही। उसके साथ 
                    अब एक दिन भी छल नहीं कर सकती। मन से किसी और की आराधना करके 
                    तन से उसकी होने का अभिनय करती रहूँ? छी:! नहीं जानती, यही सब 
                    सोचते-सोचते मुझे कब नींद आ गई।
 
 लौटकर अपना कमरा खोलती हूँ, तो देखती हूँ, सब कुछ 
                    ज्यों-का-त्यों है, सिर्फ फूलदान को रजनीगन्धा मुरझा गए हैं। 
                    कुछ फूल झरकर ज़मीन पर इधर-उधर भी बिखर गए हैं।
 आगे बढ़ती हूँ तो ज़मीन पर पड़ा एक लिफाफा दिखाई देता है। संजय 
                    की लिखाई है, खोला तो छोटा-सा पत्र था:
 दीपा,
 तुमने जो कलकत्ता जाकर कोई सूचना ही नहीं दी। मैं आज ऑफिस के 
                    काम से कटक जा रहा हूँ। पाँच-छ: दिन में लौट आऊँगा। तब तक तुम 
                    आ ही जाओगी। जानने को उत्सुक हूँ कि कलकत्ता में क्या हुआ?
 तुम्हारा
 संजय
 
 एक लम्बा नि:श्वास निकल जाता है। लगता है, एक बड़ा बोझ हट गया। 
                    इस अवधि में तो मैं अपने को अच्छी तरह तैयार कर लूँगी। 
                    नहा-धोकर सबसे पहले में निशीथ को पत्र लिखती हूँ। उसकी 
                    उपस्थिति से जो हिचक मेरे होंठ बन्द किए हुए थी, दूर रहकर वह 
                    अपने-आप ही टूट जाती हैं। मैं स्पष्ट शब्दों में लिख देती हूँ 
                    कि चाहे उसने कुछ नहीं कहा, फिर भी मैं सब कुछ समझ गई हूँ। साथ 
                    ही यह भी लिख देती हूँ कि मैं उसकी उस हरकत से बहुत दुखी थी, 
                    बहुत नाराज़ भी, पर उसे देखते ही जैसे सारा क्रोध बह गया। इस 
                    अपनत्व में क्रोध भला टिक भी कैसे पाता? लौटी हूँ, तब से न 
                    जाने कैसी रंगीनी और मादकता मेरी आँखों के आगे छाई है !
 एक खूबसूरत-से लिफाफे में उसे बन्द करके मैं स्वयं पोस्ट करने 
                    जाती हूँ।
 रात में सोती हूँ तो अनायास ही मेरी नज़र सूने फूलदान पर जाती 
                    है। मैं करवट बदलकर सो जाती हूँ।
 
 कानपुर
 
 आज निशीथ को पत्र लिखे पाँचवां दिन है। मैं तो कल ही उसके पत्र 
                    की राह देख रही थी। पर आज की भी दोनों डाकें निकल गईं। जाने 
                    कैसा सूना-सूना, अनमना-अनमना लगता रहा सारा दिन! किसी भी तो 
                    काम में जी नहीं लगता। क्यों नहीं लौटती डाक से ही उत्तर दे 
                    दिया उसने? समझ में नहीं आता, कैसे समय गुजारूँ!
 मैं बाहर बालकनी में जाकर खड़ी हो जाती हूँ। एकाएक खयाल आता 
                    है, पिछले ढाई सालों से करीब इसी समय, यहीं खड़े होकर मैंने 
                    संजय की प्रतीक्षा की है। क्या आज मैं संजय की प्रतीक्षा कर 
                    रही हूँ? या मैं निशीथ के पत्र की प्रतीक्षा कर रही हूँ? शायद 
                    किसी की नहीं, क्योंकि जानती हूँ कि दोनों में से कोई भी नहीं 
                    आएगा। फिर?
 
 निरुद्देश्य-सी कमरे में लौट पड़ती हूँ। शाम का समय मुझसे घर 
                    में नहीं काटा जाता। रोज़ ही तो संजय के साथ घूमने निकल जाया 
                    करती थी। लगता है, यहीं बैठी रही तो दम ही घुट जाएगा। कमरा 
                    बन्द करके मैं अपने को धकेलती-सी सड़क पर ले आती हूँ। शाम का 
                    धुंधलका मन के बोझ को और भी बढ़ा देता है। कहाँ जाऊँ? लगता है, 
                    जैसे मेरी राहें भटक गई हैं, मंज़िल खो गई है। मैं स्वयं नहीं 
                    जानती, आखिर मुझे जाना कहाँ है। फिर भी निरुद्देश्य-सी चलती 
                    रहती हूँ। पर आखिर कब तक यों भटकती रहूँ? हारकर लौट पड़ती हूँ।
 आते ही मेहता साहब की बच्ची तार का एक लिफाफा देती है।
 धड़कते दिल से मैं उसे खोलती हूँ। इरा का तार था- 'नियुक्ति हो 
                    गई है। बधाई!'
 इतनी बड़ी 
                    खुशखबरी पाकर भी जाने क्या है कि खुश नहीं हो पाती। यह खबर तो 
                    निशीथ भेजनेवाला था। एकाएक ही एक विचार मन में आता है : क्या 
                    जो कुछ मैं सोच गई, वह निरा भ्रम ही था, मात्र मेरी कल्पना, 
                    मेरा अनुमान? नहीं-नहीं! उस स्पर्श को मैं भ्रम कैसे मान लूँ, 
                    जिसने मेरे तन-मन को डुबो दिया था, जिसके द्वारा उसके हृदय की 
                    एक-एक परत मेरे सामने खुल गई थी? लेक पर बिताए उन मधुर क्षणों 
                    को भ्रम कैसे मान लूँ, जहाँ उसका मौन ही मुखरित होकर सब कुछ कह 
                    गया था? आत्मीयता के वे अनकहे क्षण! तो फिर उसने पत्र क्यों 
                    नहीं लिखा? क्या कल उसका पत्र आएगा? क्या आज भी उसे वही हिचक 
                    रोके हुए है?
 तभी सामने की घड़ी टन्-टन् करके नौ बजाती है। मैं उसे देखती 
                    हूँ। यह संजय की लाई हुई है। लगता है, जैसे यह घड़ी घंटे 
                    सुना-सुनाकर मुझे संजय की याद दिला रही है। फहराते ये हरे 
                    पर्दे, यह हरी बुक-रैक, यह टेबल, यह फूलदान, सभी तो संजय के ही 
                    लाए हुए हैं। मेज़ पर रखा यह पेन उसने मुझे साल-गिरह पर लाकर 
                    दिया था। अपनी चेतना के इन बिखरे सूत्रों को समेटकर मैं फिर 
                    पढ़ने का प्रयास करती हूँ, पर पढ़ नहीं पाती। हारकर मैं पलंग 
                    पर लेट जाती हूँ।
 
 सामने के फूलदान का सूनापन मेरे मन के सूनेपन को और अधिक बढ़ा 
                    देता है। मैं कसकर आँखें मूँद लेती हूँ। एक बार फिर मेरी आँखों 
                    के आगे लेक का स्वच्छ, नीला जल उभर आता है, जिसमें छोटी-छोटी 
                    लहरें उठ रही थीं। उस जल की ओर देखते हुए निशीथ की आकृति उभरकर 
                    आती है। वह लाख जल की ओर देखे, पर चेहरे पर अंकित उसके मन की 
                    हलचल को मैं आज भी, इतनी दूर रहकर भी महसूस करती हूँ। कुछ न कह 
                    पाने की मजबूरी, उसकी विवशता, उसकी घुटन आज भी मेरे सामने 
                    साकार हो उठती है। धीरे-धीरे लेक के पानी का विस्तार सिमटता 
                    जाता है, और एक छोटी-सी राइटिंग टेबल में बदल जाता है, और मैं 
                    देखती हूँ कि एक हाथ में पेन लिए और दूसरे हाथ की उँगलियों को 
                    बालों में उलझाए निशीथ बैठा है वही मजबूरी, वही विवशता, वही 
                    घुटन लिए। वह चाहता है, पर जैसे लिख नहीं पाता। वह कोशिश करता 
                    है, पर उसका हाथ बस काँपकर रह जाता है। ओह! लगता है, उसकी घुटन 
                    मेरा दम घोंटकर रख देगी। मैं एकाएक ही आँखें खोल देती हूँ। वही 
                    फूलदान, पर्दे, मेज़, घड़ी !
 
 आखिर आज निशीथ का पत्र आ गया। धड़कते दिल से मैंने उसे खोला। 
                    इतना छोटा-सा पत्र!
 प्रिय दीपा,
 तुम अच्छी तरह पहुँच गई, यह जानकर प्रसन्नता हुई।
 तुम्हें अपनी नियुक्ति का तार तो मिल ही गया होगा। मैंने कल ही 
                    इराजी को फोन करके सूचना दे दी थी, और उन्होंने बताया था कि 
                    तार दे देंगी। ऑफिस की ओर से भी सूचना मिल जाएगी।
 इस सफलता के लिए मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करना। सच, 
                    मैं बहुत खुश हूँ कि तुम्हें यह काम मिल गया! मेहनत सफल हो गई। 
                    शेष फिर।
 शुभेच्छु,
 निशीथ
 
 बस? धीरे-धीरे पत्र के सारे शब्द आँखों के आगे लुप्त हो जाते 
                    हैं, रह जाता है केवल, "शेष फिर!"
 तो अभी उसके पास 'कुछ' लिखने को शेष है? क्यों नहीं लिख दिया 
                    उसने अभी? क्या लिखेगा वह?
 "दीप!"
 मैं मुड़कर दरवाज़े की ओर देखती हूँ। रजनीगन्धा के ढेर सारे 
                    फूल लिए मुस्कुराता-सा संजय खड़ा है। एक क्षण मैं 
                    संज्ञा-शून्य-सी उसे इस तरह देखती हूँ, मानो पहचानने की कोशिश 
                    कर रही हूँ। वह आगे बढ़ता है, तो मेरी खोई हुई चेतना लौटती है, 
                    और विक्षिप्त-सी दौड़कर उससे लिपट जाती हूँ।
 "क्या हो गया है तुम्हें, पागल हो गई हो क्या?"
 "तुम कहाँ चले गए थे संजय?" और मेरा स्वर टूट जाता है। अनायास 
                    ही आँखों से आँसू बह चलते हैं।
 "क्या हो गया? कलकत्ता का काम नहीं मिला क्या? मारो भी गोली 
                    काम को। तुम इतनी परेशान क्यों हो रही हो उसके लिए?"
 पर मुझसे कुछ नहीं बोला जाता। बस, मेरी बाँहों की जकड़ कसती 
                    जाती है, कसती जाती है। रजनीगन्धा की महक धीरे-धीरे मेरे तन-मन 
                    पर छा जाती है। तभी मैं अपने भाल पर संजय के अधरों का स्पर्श 
                    महसूस करती हूँ, और मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण 
                    ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था, भ्रम था।
 और हम दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में बँधे रहते हैं- चुम्बित, 
                    प्रति-चुम्बित!
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