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					 रानी केतकी का भभूत लगाकर बाहर निकल जाना 
					और सब छोटे बड़ों का तिलमिलाना दस पन्द्रह दिन पीछे एक दिन 
					रानी केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगा के घर से 
					बाहर निकल गई। कुछ कहने में आता नहीं, जो माँ बाप पर हुई। सब 
					ने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास 
					बुला लिया होगा। महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता राजपाट उस 
					वियोग में छोड़ छाड़ के पहाड़ को चोटी पर जा बैठे और किसी को 
					अपने आँखों में से राज थामने को छोड़ गए। बहुत दिनों पीछे एक 
					दिन महारानी ने महाराज जगतपरकास से कहा - "रानी केतकी का कुछ 
					भेद जानती होगी तो मदनबान जानती होगी। उसे बुलाकर तो पँूछो।" 
					महाराज ने उसे बुलाकर पूछा तो मदनबान ने सब बातें खोलियाँ। 
					रानी केतकी के माँ बाप ने कहा - "अरी मदनबान, जो तू भी उसके 
					साथ होती तो हमारा जी भरता। अब तो वह तुझे ले जाये तो कुछ हचर पचर न कीजियो, उसको साथ ही 
					लीजियो। जितना भभूत है, तू अपने पास रख। हम कहाँ इस राख को 
					चूल्हें में डालेंगे। गुरूजी ने तो दोनों राज का खोज खोया - 
					कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप दोनों अलग हो रहे। जगतपरकास और 
					कामलता को यों तलपट किया। भभूत न होती तो ये बातें काहे को 
					सामने आती" ।
 मदनबान भी उनके ढूँढने को निकली। अंजन लगाए हुए रानी केतकी 
					रानी केतकी कहती हुई पड़ी फिरती थी।
 
 बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की दहाड़ों में 
					उदैभान उदैभान चिघाड़ती हुई आ निकली। एक ने एक को ताड़कर 
					पुकारा - "अपनी तनी आँखें धो डालो।" एक डबरे पर बैठकर दोनों की 
					मुठभेड़ हुई। गले लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाड़ों में कूक सी पड़ 
					गई।
 
 दोहरा
 
 छा गई ठंडी साँस झाड़ों में।
 पड़ गई कूक सी पहाड़ों में।
 दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छाँव को ताड़कर आ बैठियाँ और अपनी 
					अपनी दोहराने लगीं।
 बातचीत रानी केतकी की 
					मदनबान के साथ रानी केतकी 
					ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झीका की और 
					उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया था, 
					सब कहा। जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी। रानी केतकी 
					उसके हंसने पर रूककर कहने लगी - 
 दोहरा
 हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे।
 है वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसे।।
 अब तो सारा अपने पीछे झगड़ा झाँटा लग गया।
 पाँव का क्या ढूँढती हा जी में काँटा लग गया।।
 
 पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पुँछते चले। उन्ने यह बात 
					कही - "जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उज़ड़े हुए 
					माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ। गोसाई 
					महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजड़े 
					हुओं की मुठ्ठी में हैं। अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान 
					चढ़ें, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं। पर तुम्हारे कुछ भावे 
					नहीं, हम क्या पड़ी बकती है। मैं इसपर बीड़ा उठाती हूँ"।
 
 बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने इसपर 'अच्छा' कहा और मदनबान को 
					अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिठ्ठी अपने हाथों से लिख भेजी जो 
					आपसे हो सके तो उस जोगी से ठहरा के आवें।
 मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर आना और चितचाही बात 
					सुनना
 मदनबान रानी 
					केतकी को अकेला छोड़कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड़ 
					पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ खड़ी हुई और कहने लगी - "लीजे 
					आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन आये। रानी 
					केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ। उन्हीं के हाथों की लिखी 
					चिठ्ठी लाई हूँ, आप पढ़ लीजिए। आगे जो जी चाहे सो कीजिए।' 
 महाराज ने उस बधंबर में से एक रोंगटा तोड़कर आग पर रख के फूँक 
					दिया। बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया 
					सर्वांग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखा; सबको छाती लगाया और 
					कहा - "बधंबर इसी लिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो 
					तो इसका एक बाल फूँक दीजियो। तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक क्या 
					कर रहे थे और किन नींदों में सोते थे? पर तुम क्या करो यह 
					खिलाड़ी जो रूप चाहे सौ दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे। भभूत 
					लड़की को क्या देना था। हिरनी हिरन उदैभान और सूरजभान उसके बाप 
					और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था। फिर उन तीनों को जैसा 
					का तैसा करना कोई बड़ी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई। अब उठ 
					चलो, अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी 
					बेटी को समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको 
					लेके मैं ब्याहने चढूँगा।"
 
 महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी घड़ी यह कह 
					दिया "सारी छतों और कोठों को गोटे से मढ़ो और सोने और रूपे के 
					सुनहरे रूपहरे सेहरे सब झाड़ पहाड़ों पर बाँध दो और पेड़ों में 
					मोती की लड़ियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर 
					में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठ रहूँगा, और छ: 
					महिने कोई चलनेवाला कहीं न ठहरे। रात दिन चला जावे।" इस हेर 
					फेर में वह राज था। सब कहीं यही डौल था।
 
 जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर का रानी केतकी के 
					लिये फिर महाराज और महारानी और महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ 
					रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ 
					आन पहुँचे। गुरूजी ने रानी केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर 
					उदैभान का चढ़ावा दिया और कहा - तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने 
					घर सिधारो। अब मैं बेटे उदैभान को लिये हुये आता हूँ।"
 गुरूजी गोसाई जिनको दंडित है, सो तो वह सिधारते हैं। आगे जो 
					होगी सो कहने में आवेंगी - यहाँ पर धूम धाम और फैलावा अब ध्यान 
					कीजिये। महाराज जगतपरकास ने अपने सारे देश में कह दिया - "यह 
					पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होवेगी। गाँव गाँव में 
					अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपड़े उनपर लगा के मोट धनुष 
					की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक टाँक रक्खो 
					और जितने बड़ पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के 
					सेहरे बड़े बड़े ऐसे जिसमें सिर से लगा पैर तलक पहुँचे, बाँधो।
 
 चौतुक्का
 
 पौदों ने रंगा के सूहे जोड़े पहने। सब पाँव में डालियों ने 
					तोड़े पहने।।
 बूटे बूटे ने फूल फूल के गहने पहने। जो बहुत न थे तो थोड़े 
					थोड़े पहने।।
 
 जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही 
					मेहंदी की रचावट के साथ जितनी सजावट में समा सके, कर लिये और 
					जहाँ जहाँ नयी ब्याही दुलहिनें नन्हीं नन्हीं फलियों की और 
					सुहागिनें नई नई कलियों के जोड़े पंखुड़ियों के पहने हुए थीं। 
					सब ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन 
					बरस का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे, 
					जिस ढब से हो सकता था खेती बारी करके, हल जोत के और कपड़ा 
					लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड़ दिया और कहा जो अपने अपने घरों 
					में बनाव की ठाट करें। और जितने राज भर में कुएँ थे, खँड़सालों 
					की खँडसालें उनमें उड़ेल गई और सारे बनों और पहाड़ तनियाँ में 
					लाल पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी। और जितनी झीलें 
					थीं उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड़ गया और केसर भी थोड़ी 
					थोड़ी घोले में आ गई। फुनगे से लगा जड तलक जितने झाड़ झंखाड़ों 
					में पत्ते और पत्ती बँधी थीं, उनपर रूपहरी सुनहरी डाँक गोंद 
					लगाकर चिपका दिया और सबों को कह दिया जो सही पगड़ी और बागे बिन 
					कोई किसी डौल किसी रूप से फिर चले नहीं। और जितने गवैये, 
					बजवैए, भांड-भगतिए रहस धारी और संगीत पर नाचनेवाले थे, सबको कह 
					दिया जिस जिस गाँव में जहाँ जहाँ हों अपनी अपनी ठिकानों से 
					निकलकर अच्छे अच्छे बिछौने बिछाकर गाते-नाचते धूम मचाते कूदते 
					रहा करें।
 ढूँढना गोसाई महेंदर गिर का कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप 
					को न पाना और बहुत तलमलाना
 यहाँ की बात 
					और चुहलें जो कुछ है, सो यहीं रहने दो। अब आगे यह सुनो। जोगी 
					महेंदर और उसके ९० लाख जतियों ने सारे बन के बन छान मारे, पर 
					कहीं कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप का ठिकाना न लगा। तब 
					उन्होंने राजा इंदर को चिठ्ठी लिख भेजी। उस चिठ्ठी में यह लिखा 
					हुआ था - 'इन तीनों जनों को हिरनी हिरन कर डाला था। अब उनको 
					ढूँढता फिरता हूँ। कहीं नहीं मिलते और मेरी जितनी सकत थी, अपनी 
					सी बहुत कर चुका हूँ। अब मेरे मुँह से निकला कुँवर उदैभान मेरा 
					बेटा मैं उसका बाप और ससुराल में सब ब्याह का ठाट हो रहा है। 
					अब मुझपर विपत्ति गाढ़ी पड़ी जो तुमसे हो सके, करो।' राजा इंदर चिठ्ठी का देखते ही गुरू महेंदर को देखने को सब 
					इंद्रासन समेट कर आ पहुँचे और कहा - "जैसा आपका बेटा वैसा मेरा 
					बेटा। आपके साथ मैं सारे इंद्रलोक को समेटकर कुँवर उदैभान को 
					ब्याहने चढूँगा।"
 गोसाई महेंदर गिर ने राजा इंद्र से कहा - हमारी आपकी एक ही बात 
					है, पर कुछ ऐसा सुझाइए जिससे कुँवर उदैभान हाथ आ जावे।" राजा 
					इंदर ने कहा - जितने गवैए और गायनें हैं, उन सबको साथ लेकर हम 
					और आप सारे बनों में फिरा करें। कहीं न कहीं ठिकाना लग जाएगा।" 
					गुरू ने कहा - अच्छा।
 हिरन हिरनी का खेल बिगड़ना 
					और कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप का नए सिरे से रूप पकड़ना एक रात राजा 
					इंदर और गोसाई महेंदर गिर निखरी हुई चाँदनी में बैठे राग सुन 
					रहे थे, करोड़ों हिरन राग के ध्यान में चौकड़ी भूल आस पास सर 
					झुकाए खड़े थे। इसी में राजा इंदर ने कहा - "इन सब हिरनों पर 
					पढ़के मेरी सकत गुरू की भगत फूरे मंत्र ईश्वरोवाच पढ़ के एक एक 
					छींटा पानी का दो।" क्या जाने वह पानी कैसा था। छीटों के साथ 
					ही कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जनें हिरनों का रूप 
					छोड़ कर जैसे थे वैसे हो गए। गोसाई महेंदर गिर और राजा इंदर ने 
					उन तीनों को गले लगाया और बड़ी आवभगत से अपने पास बैठाया और 
					वही पानी घड़ा अपने लोगों को देकर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर 
					मंुडवाते ही ओले पड़े थे।
 राजा इंदर के लोगों ने जो पानी के छीटें वही ईश्वरोवाच पढ़ के 
					दिए तो जो मरे थे सब उठ खड़े हुए; और जो अधमुए भाग बचे थो, सब 
					सिमट आए। राजा इंदर और महेंदर गिर कुँवर उदैभान और राजा 
					सूरजभान और रानी लक्ष्मीबास को लेकर एक उड़न - खटोलो पर बैठकर 
					बड़ी धूमधाम से उनको उनके राज पर बिठाकर ब्याह का ठाट करने 
					लगे। पसेरियन हीरे-मोती उन सब पर से निछावर हुए।
 
 राजा सूरजभान और कुँवर उदैभान और रानी लछमीबास चितचाही असीस 
					पाकर फूली न समाई और अपने सारे राज को कह दिया - "जेवर भोरे के 
					मुँह खोल दो। जिस जिस को जो जा उकत सूझे, बोल दो। आज के दिन का 
					सा कौन सा दिन होगा। हमारी आँखों की पुतलियों का जिससे चैन 
					हैं, उस लाडले इकलौते का ब्याह और हम तीनों का हिरनों के रूप 
					से निकलकर फिर राज पर बैठना। पहले तो यह चाहिए जिन जिन की 
					बेटियाँ बिन ब्याहियाँ हों, उन सब को उतना कर दो जो अपनी जिस 
					चाव चीज से चाहें; अपनी गुड़ियाँ सँवार के उठावें; और तब तक 
					जीती रहें, सब की सब हमारे यहाँ से खाया पकाया रींधा करें। और 
					सब राज भर की बेटियाँ सदा सुहागनें बनी रहें और सूहे रातें छुट 
					कभी कोई कुछ न पहना करें और सोने रूपे के केवाड़ गंगाजमुनी सब 
					घरों में लग जाएँ और सब कोठों के माथे पर केसर और चंदन के टीके 
					लगे हों। और जितने पहाड़ हमारे देश में हों, उतने ही पहाड़ 
					सोने रूपे के आमने सामने खड़े हो जाएँ और सब डाँगों की चोटियाँ 
					मोतियों की माँग ताँगे भर जाएँ; और फूलों के गहने और बँधनवार 
					से सब झाड़ पहाड़ लदे फँदे रहें; और इस राज से लगा उस राज तक 
					अधर में छत सी बाँध दो। और चप्पा चप्पा कहीं ऐसा न रहें जहाँ 
					भीड़ भड़क्का धूम धड़क्का न हो जाय। फूल बहुत सारे बहा दो जो 
					नदियाँ जैसे सचमुच फूल की बहियाँ हैं यह समझा जाय।
 
 और यह डौल कर दो, जिधर से दुल्हा को ब्याहने चढ़े सब लाड़ली और 
					हीरे पन्ने पोखराज की उमड़ में इधर और उधर कबैल की टटि्टयाँ बन 
					जायँ और क्यारियाँ सी हो जायें जिनके बीचो बीच से हो निकलें। 
					और कोई डाँग और पहाड़ी तली का चढ़ाव उतार ऐसा दिखाई न दे जिसकी 
					गोद पंखुरियों से भरी हुई न हों। राजा इंदर का कुँवर उदैभान का 
					साथ करनाराजा इंदर ने कह दिया, 'वह रंडियाँ चुलबुलियाँ जो अपने 
					मद में उड़ चलियाँ हैं, उनसे कह दो - सोलहो सिंगार, बास गूँध 
					मोती पिरो अपने अचरज और अचंभे के उड़न खटोलों का इस राज से 
					लेकर उस राज तक अधर में छत बाँध दो। कुछ इस रूप से उड़ चलो जो 
					उड़न-खटोलियों की क्यारियाँ और फुलवारियाँ सैंकड़ों कोस तक हो 
					जायें। और अधर ही अधर मृदंग, बीन, जलतरंग, मुँहचग, घुँघरू, 
					तबले घंटताल और सैकड़ों इस ढब के अनोखे बाजे बजते आएँ। और उन 
					क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनवेधे मोतियों के झाड़ और 
					लाल पटों की भीड़भाड़ की झमझमाहट दिखाई दे और इन्हीं लाल पटों 
					में से हथफूल, फूलझड़ियाँ, जाही जुही, कदम, गेंदा, चमेली इस ढब 
					से छूटने लगें जो देखनेवालों को छातियों के किवाड़ खुल जायें। 
					और पटाखे जो उछल उछल फूटें, उनमें हँसती सुपारी और बोलती करोती 
					ढल पड़े। और जब तुम सबको हँसी आवे, तो चाहिए उस हँसी से 
					मोतियों की लड़ियाँ झड़ें जो सबके सब उनको चुन चुनके राजे हो 
					जायें। डोमनियों के जो रूप में सारंगियाँ छेड़ छेड़ सोहलें 
					गाओ। दोनों हाथ हिलाके उगलियाँ बचाओ। जो किसी ने न सुनी हो, वह 
					ताव भाव वह चाव दिखाओ; ठुडि्डयाँ गिनगिनाओ, नाक भँवे तान तान 
					भाव बताओ; कोई छुटकर न रह जाओ। ऐसा चाव लाखों बरस में होता 
					है।' जो जो राजा इंदर ने अपने मुँह से निकाला था, आँख की झपक 
					के साथ वही होने लगा। और जो कुछ उन दोनों महाराजों ने कह दिया 
					था, सब कुछ उसी रूप से ठीक ठीक हो गया। जिस ब्याह की यह कुछ 
					फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, और कुछ 
					फैलावा क्या कुछ होगा, यही ध्यान कर लो।
 ठाटो करना गोसाई महेंदर 
					गिर का  जब कुँवर 
					उदैभान को वे इस रूप से ब्याहने चढ़े और वह ब्राह्मन जो अँधेरी 
					कोठरी से मँुदा हुआ था, उसको भी साथ ले लिया और बहुत से हाथ 
					जोड़े और कहा - ब्राह्मन देवता हमारे कहने सुनने पर न जाओ। 
					तुम्हारी जो रीत चली आई है, बताते चलो।
 एक उड़न खटोले पर वह भी रीत बता के साथ हो लिया। राजा इंदर और 
					गोसाई महेंदर गिर ऐरावत हाथी ही पर झूलते झालते देखते भालते 
					चले जाते थे। राजा सूरजभान दुल्हा के घोड़े के साथ माला जपता 
					हुआ पैदल था। इसी में एक सन्नाटा हुआ। सब घबरा गए। उस सन्नाटे 
					में से जो वह ९० लाख अतीत थे, अब जोगी से बने हुए सब माले 
					मोतियों की लड़ियों की गले में डाले हुए और गातियाँ उस ढब की 
					बाँधे हुए मिरिगछालों और बघंबरों पर आ ठहर गए। लोगों के जियों 
					में जितनी उमंगे छा रही थी, वह चौगुनी पचगुनी हो गई। सुखपाल और 
					चंडोल और रथों पर जितनी रानियाँ थीं, महारानी लछमीदास के पीछे 
					चली आतियाँ थीं। सब को गुदगुदियाँ सी होने लगीं इसी में भरथरी 
					का सवाँग आया।
 
 कहीं जोगी जातियाँ आ खड़े हुए। कहीं कहीं गोरख जागे कहीं 
					मुछंदारनाथ भागे। कहीं मच्छ कच्छ बराह संमुख हुए, कहीं 
					परसुराम, कहीं बामन रूप, कहीं हरनाकुस और नरसिंह, कहीं राम 
					लछमन सीता सामने आई, कहीं रावन और लंका का बखेड़ा सारे का सारा 
					सामने दिखाई देने लगा कहीं कन्हैया जी की जनम अष्टमी होना और 
					वसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका बढ़ चलना, गाए चरानी और मुरली 
					बजानी और गोपियों से धूमें मचानी और राधिका रहस और कुब्जा का 
					बस कर लेना, वही करील की कंुजे, बसीबट, चीरघाट, वृंदावन, 
					सेवाकुंज, बरसाने में रहना और कन्हैया से जो जो हुआ था, सब का 
					सब ज्यों का त्यों आँखों में आना और द्वारका जाना और वहाँ सोने 
					का घर बनाना, इधर बिरिज को न आना और सोलह सौ गोपियों का 
					तलमलाना सामने आ गया। उन गोपियों में से ऊधो क हाथ पकड़कर एक 
					गोपी के इस कहने ने सबको रूला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे 
					रूँधे हुए जी को खोले थी।
 
 चौचुक्का
 जब छांड़ि करील को कँुजन को हरि द्वारिका जीउ माँ जाय बसे।
 कलधौत के धाम बनाए घने महराजन के महराज भये।
 तज मोर मुकुट अरू कामरिया कछु औरहि नाते जाड़ लिए।
 धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए।
 अच्छापन 
					घाटों का कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियों में 
					थे, पक्के चाँदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे 
					थे। निवाड़े, भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, 
					रामसुंदर, और जितनी ढब की नावे थीं, सुनहरी रूपहरी, सजी सजाई 
					कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, ठहरातियाँ, 
					फिरातियाँ थीं। उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ, 
					डोमिनियाँ भरी हुई अपने अपने करतबों में नाचती गाती बजाती 
					कूदती फाँदती घूमें मचातियाँ अँगड़ातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ 
					नचातियाँ और ढुली पड़तियाँ थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो सोने 
					रूपे के पत्तरों से मढ़ी हुई और सवारी से भरी हुई न हो। और 
					बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे। उनपर गायनें बैठी 
					झुलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हड़ों में गा रही थीं। 
					दल बादल ऐसे नेवाड़ों के सब झीलों में छा रहे थे।  आ पहुँचना कुँवर उदैभान का
					 ब्याह के ठाट 
					के साथ दूल्हन की ड्योढ़ी पर इस धूमधाम के साथ कुँवर उदैभान 
					सेहरा बाँधे दूल्हन के घर तक आ पहुँचा और जो रीतें उनके घराने 
					में चली आई थीं, होने लगियाँ। मदनबान रानी केतकी से ठठोली करके 
					बोली - 'लीजिए, अब सुख समेटिए, भर भर झोली। सिर निहुराए, क्या 
					बैठी हो, आओ न टुक हम तुम मिल के झरोखों से उन्हें झाँकें।" 
					रानी केतकी ने कहा - 'न री, ऐसी नीच बातें न कर। हमें ऐसी क्या 
					पड़ी जो इस घड़ी ऐसी झेल कर रेल पेल ऐसी उठें और तेल फुलेल भरी 
					हुई उनके झाँकने को जा खड़ी हों।" मदनबान उसकी इस रूखाई को 
					उड़नझाई की बातों में डालकर बोली - 
 बोलचाल मदनबान की अपनी बोली के दोहों में -
 यों तो देखो वा छड़े जी वा छड़े जी वा छड़े।
 हम से जो आने लगी हैं आप यों मुहरे कड़े।।
 छान मारे बन के बन थे आपने जिनके लिये।
 वह हिरन जीवन के मद में हैं बने दूल्हा खड़े।।
 
 तुम न जाओ देखने को जो उन्हें क्या बात है।
 ले चलेंगी आपको हम हैं इसी धुन पर अड़े।
 है कहावत जी को भावै और यों मुड़िया हिले।
 झांकने के ध्यान में उनके हैं सब छोटे बड़े।।
 साँस ठंड़ी भरके रानी केतकी बोली कि सच।
 सब तो अच्छा कुछ हुआ पर अब बखेड़े में पड़े।।
 वारी फेरी होना मदनबान का 
					रानी केतकी पर और उसकी बास सूँघना और उनींदेपन से ऊँघना 
					 उस घड़ी 
					मदनबान को रानी केतकी का बादले का जूड़ा और भीना भीनापन और 
					अँखड़ियों का लजाना और बिखरा बिखरा जाना भला लग गया, तो रानी 
					केतकी की बास सँूघने लगी और अपनी आँखों को ऐसा कर लिया जैसे 
					कोई ऊँघने लगता है। सिर से लगा पाँव तक वारी फेरी होके तलवे 
					सुहलाने लगी। तब रानी केतकी झट एक धीमी सी सिसकी लचके के साथ 
					ले ऊठी : मदनबान बोली - 'मेरे हाथ के टहोके से, वही पांव का 
					छाला दुख गया होगा जो हिरनों की ढूँढने में पड़ गया था।" इसी दु:ख की चुटकी से रानी केतकी ने मसोस कर कहा - "काटा अड़ा 
					तो अड़ा, छाला पड़ा तो पड़ा, पर निगोड़ी तू क्यों मेरी पनछाला 
					हुई।"
 सराहना रानी केतकी के जोबन का केतकी का भला लगना लिखने पढ़ने 
					से बाहर है। वह दोनों भैवों का खिंचावट और पुतलियों में लाज की 
					समावट और नुकीली पलकों की रूँधावट हँसी की लगावट और दंतड़ियों 
					में मिस्सी की ऊदाहट और इतनी सी बात पर रूकावट है। नाक और 
					त्योरी का चढ़ा लेना, सहेलियों को गालियाँ देना और चल निकलना 
					और हिरनों के रूप से करछालें मारकर परे उछलना कुछ कहने में 
					नहीं आता।
 सराहना कुँवर जी के जोबन 
					का  कुँवर उदैभान 
					के अच्छेपन का कुछ हाल लिखना किससे हो सके। हाय रे उनके उभार 
					के दिनों का सुहानापन, चाल ढाल का अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपल 
					की काली फबन और मुखड़े का गदराया हुआ जोबन जैसे बड़े तड़के 
					धंुधले के हरे भरे पहाड़ों की गोद से सूरज की किरनें निकल आती 
					है। यही रूप था। उनकी भींगी मसों से रस टपका पड़ता था। अपनी 
					परछाँई देखकर अकड़ता जहाँ जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक ठीक उनके 
					पाँव तले जैसे धूप थी।  दूल्हा का सिंहासन पर 
					बैठना  दूल्हा 
					उदैभान सिंहासन पर बैठा और इधर उधर राजा इंदर और जोगी महेंदर 
					गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिये कुछ 
					गुनगुनाने लगा। और नाच लगा होने और अधर में जो उड़न खटोले राजा 
					इंदर के अखाड़े के थे। सब उसी रूप से छत बाँधे थिरका किए। 
					दोनों महारानियाँ समधिन बन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने 
					दाखने को कोठों पर चन्दन के किवाड़ों के आड़ तले आ बैठियाँ। 
					सर्वांग संगीत भँड़ताल रहस हँसी होने लगी। जितनी राग रागिनियाँ 
					थीं, ईमन कल्यान, सुध कल्यान, झिंझोटी, कन्हाड़ा, खम्माच, 
					सोहनी, परज, बिहाग, सोरठ, कालंगड़ा, भैरवी, गीत, ललित भैरी रूप 
					पकड़े हुए सचमुच के जैसे गानेवाले होते हैं, उसी रूप में अपने 
					अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियाँ। उस नाच का जो ताव भाव 
					रचावट के साथ हो, किसका मुँह जो कह सके। जितने महाराजा 
					जगतपरकास के सुखचैन के घर थे, माधो बिलास, रसधाम कृष्ण निवास, 
					मच्छी भवन, चंद्र भवन सबके सब लप्पे लपेटे और सच्ची मोतियों की 
					झालरें अपनी अपनी गाँठ में समेटे हुए एक भेस के साथ मतवालों के 
					बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे।
 बीचो बीच उन सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी छत और किवाड़ 
					और आंगन में आरसी छुट कहीं लकड़ी, इंर्ट, पत्थर की पुट एक 
					उँगली के पोर बराबर न लगी थी। चाँदनी सा जोड़ा पहने जब रात 
					घड़ी एक रह गई थी। तब रानी केतकी सी दुल्हन को उसी आरसी भवन 
					में बैठकर दूल्हा को बुला भेजा। कुँवर उदैभान कन्हैया सा बना 
					हुआ सिर पर मुकुट धरे सेहरा बाँधे उसी तड़ावे और जमघट के साथ 
					चाँद सा मुखड़ा लिए जा पहुँचा। जिस जिस ढब में ब्राह्मन और 
					पंडित बहते गए और जो जो महाराजों में रीतें होती चली आई थी, 
					उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठजोड़ा हो लिया।
 
 अब उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले।
 घास के जो फूल कुम्हालाए हुए थे फिर खिले।।
 चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन।
 रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन।।
 ऐ खिलाड़ी यह बहुत सा कुछ नहीं थोड़ा हुआ।
 आन कर आपस में जो दोनों का, गठजोड़ा हुआ।।
 चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें।
 दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरें।।
 
 वह उड़नखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी बाँधे हुए थिरक रही थी, 
					भर भर झोलियाँ और मुठि्ठयाँ हीरे और मोतियाँ से निछावर करने के 
					लिए उतर आइयाँ और उड़न-खटोले अधर में ज्यों के त्यों छत बाँधे 
					हुए खड़े रहे। और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी 
					फेर होने में पिस गइयाँ। सभों को एक चुपकी सी लग गई। राजा इंदर 
					ने दूल्हन को मुँह दिखाई में एक हीरे का एक डाल छपरखट और एक 
					पेड़ी पुखराज की दी और एक परजात का पौधा जिसमें जो फल चाहो सो 
					मिले, दूल्हा दूल्हन के सामने लगा दिया। और एक कामधेनू गाय की 
					पठिया बछिया भी उसके पीछे बाँध दी और इक्कीस लांैड़िया उन्हीं 
					उड़न-खटोलेवालियों में से चुनकर अच्छी से अच्छी सुथरी से सुथरी 
					गाती बजातियाँ सीतियाँ पिरोतियाँ और सुघर से सुघर सौंपी और 
					उन्हें कह दिया - "रानी केतकी छूट उनके दूल्हा से कुछ बात चीत 
					न रखना, नहीं तो सब की सब पत्थर की मूरत हो जाओगी और अपना किया 
					पाओगी।" और गोसाई महेंदर गिर ने बावन तोले पाख रत्ती जो उसकी 
					इक्कीस चुटकी आगे रक्खी और कहा - "यह भी एक खेल है। जब चाहिए, 
					बहुत सा ताँबा गलाके एक इतनी सी चुटकी छोड़ दीजै; कंचन हो 
					जायेगा।" और जोगी जी ने सभों से यह कह दिया- "जो लोग उनके 
					ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में चालीस दिन रात सोने की 
					नदियों के रूप में मनि बरसे। जब तक जिएँ, किसी बात को फिर न 
					तरसें।"
 
 ९ लाख ९९ गायें सोने रूपे की सिगौरियों की, जड़ाऊ गहना पहने 
					हुए, घुँघरू छमछमातियाँ महंतों को दान हुई और सात बरस का पैसा 
					सारे राज को छोड़ दिया गया। बाईस सौ हाथी और छत्तीस सौ ऊँट 
					रूपयों के तोड़े लादे हुए लुटा दिए। कोई उस भीड़भाड़ में दोनों 
					राज का रहनेवाला ऐसा न रहा जिसको घोड़ा, जोड़ा, रूपयों का 
					तोड़ा, जड़ाऊ कपड़ों के जोड़े न मिले हो। और मदनबान छुट दूल्हा 
					दूल्हन के पास किसी का हियाव न था जो बिना बुलाये चली जाए। 
					बिना बुलाए दौड़ी आए तो वही और हँसाए तो 
					वही हँसाए। रानी केतकी के छेड़ने के लिए उनके कुँवर उदैभान को 
					कुँवर क्योड़ा जी कहके पुकारती थी और ऐसी बातों को सौ सौ रूप 
					से सँवारती थी।
 
 दोहरा
 
 घर बसा जिस रात उन्हीं का तब मदनबान उसी घड़ी।
 कह गई दूल्हा दुल्हन से ऐसी सौ बातें कड़ी।।
 जी लगाकर केवड़े से केतकी का जी खिला।
 सच है इन दोनों जियों को अब किसी की क्या पड़ी।।
 क्या न आई लाज कुछ अपने पराए की अजी।
 थी अभी उस बात की ऐसी भला क्या हड़बड़ी।।
 मुसकरा के तब दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा।
 मोगरा सा हो कोई खोले जो तेरी गुलछड़ी।।
 जी में आता है तेरे होठों को मलवा लूँ अभी।
 बल बें ऐं रंडी तेरे दाँतों की मिस्सी की घडी।।
 बहुत दिनों पीछे कहीं रानी 
					केतकी भी हिरनों की दहाडों में उदैभान उदैभान चिघाडती हुई आ 
					निकली। एक ने एक को ताडकर पुकारा-अपनी तनी आँखें धो डालो। एक 
					डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड हुई। गले लग के ऐसी रोइयाँ जो 
					पहाडों में कूक सी पड गई। 
 दोहरा
 छा गई ठंडी साँस झाडों में।
 पड गई कूक सी पहाडों में।
 दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छांव को ताडकर आ बैठियाँ और अपनी 
					अपनी दोहराने लगीं। बातचीत रानी केतकी की मदनबान के साथ रानी 
					केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झीका की 
					और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया 
					था, सब कहा। जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी। रानी 
					केतकी उसके हंसने पर रूककर कहने लगी-
 
 दोहरा
 हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे।
 हैं वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसे॥
 अब तो सारा अपने पीछे झगडा झाँटा लग गया।
 पाँव का क्या ढूँढती हाजी में काँटा लग गया॥
 
 पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पुँछते चले। उन्ने यह बात 
					कही-जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजडे हुए माँ-बाप को 
					ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ। गोसाई महेंदर गिर जिसकी 
					यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजडे हुओं की मुट्ठी में 
					हैं। अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढें, तो गए हुए दिन 
					फिर सकते हैं। पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पडी बकती 
					है। मैं इस पर बीडा उठाती हूँ। बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने 
					इस पर अच्छा कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और 
					चिट्ठी अपने हाथों से लिख भेजी जो आपसे हो सके तो उस जोगी से 
					ठहरा के आवें। मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर आना 
					चितचाही बात सुनना मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड कर राजा 
					जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड पर बैठी थीं, झट से आदेश 
					करके आ खडी हुई और कहने लगी-लीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर 
					से बसा और अच्छे दिन आये। रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं 
					हुआ। उन्हीं के हाथों की लिखी चिट्ठी लाई हूँ, आप पढ लीजिए। 
					आगे जो जी चाहे सो कीजिए।
 
 महाराज ने उस बधंबर में एक रोंगटा तोड कर आग पर रख के फूँक 
					दिया। बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया 
					सर्वाग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखा; सबको छाती लगाया और 
					कहा- बघंबर इसीलिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो तो 
					इसका एक बाल फूँक दीजियो। तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक क्या कर 
					रहे थे और किन नींदों में सोते थे? पर तुम क्या करो यह खिलाडी 
					जो रूप चाहे सौ दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे। भभूत लडकी को 
					क्या देना था। हिरनी हिरन उदैभान और सूरजभान उसके बाप और 
					लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था। फिर उन तीनों को जैसा का 
					तैसा करना कोई बडी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई। अब उठ चलो, 
					अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को 
					समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं 
					ब्याहने चढूँगा।
 
 महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी घडी यह कह 
					दिया सारी छतों और कोठों को गोटे से मढो और सोने और रूपे के 
					सुनहरे सेहरे सब झाड पहाडों पर बाँध दो और पेडों में मोती की 
					लडियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ 
					पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठा रहूँगा, और छ: महिने कोई 
					चलने वाला कहीं न ठहरे। रात दिन चला जावे। इस हेर फेर में वह 
					राज था। सब कहीं यही डौल था। जाना महाराज, महारानी और गुसाई 
					महेंदर गिर का रानी केतकी के लिये फिर महाराज और महारानी और 
					महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे 
					हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आन पहुँचे। गुरूजी ने रानी 
					केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढावा दिया और 
					कहा-तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने घर सिधारो। अब मैं बेटे 
					उदैभान को लिये हुए आता हूं। गुरूजी गोसाई जिनको दंडित है, सो 
					तो वह सिधारते हैं। आगे जो होगी सो कहने में आवेंगी-यहाँ पर 
					धूमधाम और फैलावा अब ध्यान कीजिये। महाराज जगतपरकास ने अपने 
					सारे देश में कह दिया-यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत 
					होवेगी। गाँव गाँव में अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपडे 
					उन पर लगा के मोट धनुष की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें 
					और डाँक टाँक टाँक रक्खो और जितने बड पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ 
					पर हों, उनके फूल के सेहरे बडे-बडे ऐसे जिसमें सिर से लगा पैदा 
					तलक पहुँचे बाँधो।
 
 चौतुक्का
 पौदों ने रंगा के सूहे जोडे पहने।
 सब पाँण में डालियों ने तोडे पहने।।
 बूटे बूटे ने फूल फूल के गहने पहने।
 जो बहुत न थे तो थोडे-थोडे पहने॥
 जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही 
					मेहंदी की रचावट के साथ जितनी सजावट में समा सके, कर लिये और 
					जहाँ जहाँ नयी ब्याही ढुलहिनें नन्हीं नन्हीं फलियों की ओर 
					सुहागिनें नई नई कलियों के जोडे पंखुडियों के पहने हुए थीं। सब 
					ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन बरस 
					का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे जिस 
					ढण से हो सकता था खेती बारी करके, हल जोत के और कपडा लत्ता 
					बेंचकर सो सब उनको छोड दिया और कहा जो अपने अपने घरों में बनाव 
					की ठाट करें। और जितने राज भर में कुएँ थे, खँड सालों की 
					खँडसालें उनमें उडेल गई और सारे बानों और पहाड तनियाँ में लाल 
					पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी। और जितनी झीलें थीं 
					उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड गया और केसर भी थोडी थोडी 
					घोले में आ गई।
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