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                      हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है।  पिछले बीस साल से गाड़ी 
                      हाँकता है हीरामन। बैलगाड़ी। सीमा के उस पार, मोरंग राज 
                      नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है। कंट्रोल के ज़माने में 
                      चोरबाज़ारी का माल इस पार से उस पार पहुँचाया है। लेकिन कभी 
                      तो ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में! कंट्रोल का जमाना! हिरामन 
                      कभी भूल सकता है उस जमाने को! एक बार चार खेप सीमेंट और 
                      कपड़े की गाँठों से भरी गाड़ी, जोगबनी में विराटनगर पहुँचने 
                      के बाद हिरामन का कलेजा पोख्ता हो गया था। फारबिसगंज का हर 
                      चोर-व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता। उसके बैलों की 
                      बड़ाई बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी खुद करते, अपनी भाषा में। गाड़ी पकड़ी गई पाँचवी बार, 
                      सीमा के इस पार तराई में।  महाजन का मुनीम उसी की 
                      गाड़ी पर गाँठों के बीच चुक्की-मुक्की लगाकर छिपा हुआ था। 
                      दारोगा साहब की डेढ़ हाथ लंबी चोरबत्ती की रोशनी कितनी तेज 
                      होती है, हिरामन जानता हैं। एक घंटे के लिए आदमी अंधा हो 
                      जाता है, एक छटक भी पड़ जाए आँखों पर! रोशनी के साथ कड़कती 
                      हुई आवाज, ''ऐ-य! गाड़ी रोको! साले, गोली मार देंगै?''
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