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२५. ८. २०१४

इस सप्ताह-

1
अनुभूति में
-
चंद्र प्रकाश पांडेय, अर्चना पांडा, दर्शवीर, डॉ. सरस्वती माथुर और राजेश जोशी की रचनाएँ।

कलम गही नहिं हाथ में- अभिव्यक्ति के चौदहवें जन्मदिवस के अवसर पर नवगीत के लिये एक विशेष पुरस्कार की घोषणा।

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- त्यौहारों की गरिष्ठ तामझाम के बाद एक हल्का और पौष्टिक व्यंजन- दही के चावल

गपशप के अंतर्गत- परिवार का उत्तरदायित्व और समय की कमी ऐसे में सबकुछ ठीक से कर पाने का दम कैसे जुटाएँ जाने- दमदार रहें दिनभर के लिये

जीवन शैली में- शाकाहार एक लोकप्रिय जीवन शैली है। फिर भी आश्चर्य करने वालों की कमी नहीं। १४ प्रश्न जो शकाहारी सदा झेलते हैं- १०

सप्ताह का विचार- लोभी को धन से, अभिमानी को विनम्रता से, मूर्ख को मनोरथ पूरा कर के, और पंडित को सच बोलकर वश में किया जाता है। -हितोपदेश

- रचना व मनोरंजन में

क्या-आप-जानते-हैं- कि आज के दिन (२५ अगस्त को) सतगुरु शिव दयाल सिंह, विजयकांत, राजीव कपूर तस्लीमा नसरीन, विजयता पंडित...

धारावाहिक-में- लेखक, चिंतक, समाज-सेवक और प्रेरक वक्‍ता, नवीन गुलिया की अद्भुत जिजीविषा व साहस से भरपूर आत्मकथा- अंतिम विजय का तीसरा भाग

वर्ग पहेली-१९९
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल और रश्मि-आशीष
के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

विशेषांकों की समीक्षाएँ

साहित्य एवं संस्कृति में-

समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है भारत से
 मृदुला गर्ग की कहानी- यहाँ कमलिनी खिलती है

वीराने में दो औरतें मौन बैठी थीं। पास-पास नहीं, दूर, अलग, दो छोरों पर असम्पृक्त। एक नजर देख कर ही पता चल जाता था कि उनका आपस में कोई सम्बन्ध न था, वे देश के दो ध्रुवों पर वास करने वाली औरतें थीं। एक औरत सूती सफ़ेद साड़ी में लिपटी थी। पूरी की पूरी सफ़ेद, रंग के नाम पर न छापा, न किनारा, न पल्लू। साड़ी थी एकदम कोरी धवल, पर अहसास, उजाले का नहीं, बेरंग होने का जगाती थी। मैली-कुचैली या फिड्डी-धूसर नहीं थी। मोटी-झोटी भी नहीं, महीन बेहतरीन बुनी-कती थी जैसी मध्य वर्ग की उम्रदराज़ शहरी औरतें आम तौर पर पहनती हैं। हाँ, थी मुसी-तुसी। जैसे पहनी नहीं, बदन पर लपेटी भर हो। बेख़याली में आदतन खुँसी पटलियाँ, कन्धे पर फिंका पल्लू और साड़ी के साथ ख़ुद को भूल चुकी औरत। बदन पर कोई ज़ेवर न था, न चेहरे पर तनिक-सा प्रसाधन, माथे पर बिन्दी तक नहीं। वीराने में बने एक मझोले अहाते के भीतर बैठी थी वह। चारों तरफ से खुला, बिना दरोदीवार, गाँव के चौपाल जैसा, खपरैल से ढका गोल अहाता। दरअसल, वीराना वीरान था भी और नहीं भी। आगे-
*

अनिल कुमार मिश्र का
व्यंग्य- अभिभूत
*

डॉ. दिवाकर का आलेख-
चूड़ियाँ- इतिहास से संस्कृति तक
*

जयप्रकाश मानस की कलम से
ललित निबंध- जरा सुन तो लीजिये
*

पुनर्पाठ में- मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास
कस्तूरी कुंडल बसे से परिचय

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पिछले सप्ताह-  

मुक्ता की कलम से पुराणकथा
अभिमान का अंत
*

डॉ. हरगुलाल गुप्त का आलेख
ब्रजभाषा के अल्पज्ञात कवि और कृष्ण
*

जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी से जानें
मध्यकाल में मथुरा की शिल्पकला
*

पुनर्पाठ में- वीरनारायण शर्मा का आलेख
दो भूली बिसरी कृष्णभक्त कवयित्रियाँ

*

प्रसिद्ध कथाकारों की विशिष्ट कहानियों के स्तंभ
गौरव गाथा में प्रेमचंद की कहानी- झाँकी

कई दिनों से घर में कलह मची हुई थी। माँ अलग मुँह फुलाये बैठी थी, स्त्री अलग। घर की वायु में जैसे विष भरा हुआ था। रात को भोजन नहीं बना, दिन को मैंने स्टोव पर खिचड़ी डाली, पर खाया किसी ने नहीं। बच्चों को भी आज भूख न थी। छोटी लड़की कभी मेरे पास आकर खड़ी हो जाती, कभी माता के पास, कभी दादी के पास, पर कहीं उसके लिए प्यार की बातें न थीं। कोई उसे गोद में न उठाता था, मानो उसने भी अपराध किया हो। लड़का शाम को स्कूल से आया। किसी ने उसे कुछ खाने को न दिया, न उससे बोला, न कुछ पूछा। दोनों बरामदे में मन मारे बैठे हुए थे और शायद सोच रहे थे- घर में आज क्यों लोगों के हृदय उनसे इतने फिर गये हैं। भाई-बहिन दिन में कितनी बार लड़ते हैं, रोना-पीटना भी कई बार हो जाता है, पर ऐसा कभी नहीं होता कि घर में खाना न पके या कोई किसी से बोले नहीं। यह कैसा झगड़ा है कि चौबीस घंटे गुजर जाने पर भी शांत नहीं होता, यह शायद उनकी समझ में न आता था। झगड़े की जड़ कुछ न थी। आगे-

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"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है
यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी -|- मीनाक्षी धन्वंतरि
 

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