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"हुश आवाज़ नहीं आनी चाहिए, आँख में एक बूँद आँसू न आए, ले इसे खा ले, नीचे मत गिराना, नो क्रायिंग।" रेवती बड़बड़ाई और कटोरी में दही भात और चम्मच अनु के हाथ में पकड़ा दिया। भर्राए गले और आंखों में रूलाई को भीतर ही रोकते हुए, अनु कटोरी हाथ में लेकर स्वयं ही डायनिंग टेबल के पास जा, कुर्सी खींच बैठ गई और चम्मच से भात ले बड़ी मुश्किल से खाने लगी।
बेबस लाचार आँसू बहाती पद्मावती के मन में बच्ची को गोद मे बिठा कर चिड़िया की कहानी सुनाते हुए उसके कोमल मुँह में भात डालने की इच्छा बलवती हो उठी।
आपाद मस्तक तन तड़प उठा।
- छू नहीं सकती।
- छू देंगी तो प्रलय मच जाएगा।
- ज्वालामुखी फट पड़ेगा।
- घर युद्धस्थल में बदल जाएगा।
क्या करूँ? क्या करूँ? पद्मावती कर ही क्या सकती थी? अनु ने खाना खत्म कर लिया। सिंक में कटोरी डाल, हाथ मुँह धो लिया। "गो टू बेड अनु, स्लीप।" रेवती का आदेश सुनाई पड़ा।

अनु बैठक में एक कोने में लुढ़क गई और बैठक के अन्तिम छोर पर बने छोटे कमरे में बैठी दादी को तरसाती निगाहों से निहारती रही।
अनु के लिए तो दादी ही सब कुछ थी।

सुबह आँखे खुलते ही ...
"दादी, अनु जग गई हैं -..।" भोर की उजली मुस्कान सहित कहती।
"दाँत साफ़ कर दो दादी मुँह कुल्ला करा दो दादी..."
"खाना खि...ला दो दादी..."
"गोद में बिठा लो दादी।"
इस प्रकार दादी की छाया बन उनसे चिपकी रहती थी। सोते समय तो दादी का साथ उसे अवश्य ही चाहिए था।
दादी की नरम गोद में लेटी हुई... उनकी उँगली थामे... एक ओर करवट ले "गाना सुनाओ दादी...।" कहकर गाना सुनते हुए पल भर में सो जाती। ऐसा सबकुछ पहले होता था। अब नहीं होता । अब तो, पद्मावती को उस छोटे कमरे से बाहर आने की इजाज़त नहीं थी और अनु को भीतर जाने की मनाही थी।

उस कमरे के बाहर भी किवाड़ था। बाहर निकलना हो तो वहीं से जाना पड़ता। कमरे में ही गुसलखाना, स्नानगृह, खाने की प्लेट, कॉफी के लिए गिलास, पानी का नल, दरी, तकिया, चादर, छोटा रेडियो और पोर्टेबल टी. वी. लगा दिया था।

उस कमरे का किवाड़ बाहर सिटआऊट में खुलता था। अपने कपड़े खुद धोकर सुखाने पड़ते थे। स्टूल पर बैठे सड़क की चहल-पहल देख सकती थी। जो चाहे करने की आज़ादी थी। परन्तु कमरे से बाहर निकल इस तरफ़ आने पर प्रतिबंध था। सुबह से लेकर रात सोने तक यह आठ फीट लम्बा कमरा ही सब कुछ था।

केवल घर ही नहीं, परन्तु जीवन भी कारागार बन गया था। महरी भी कमरा झाड़ने पोंछने नहीं आती थी। बाहर के किसी व्यक्ति को देखे बिना महींनों गुज़र जाते। मानव-स्पर्श के लिए तरसते हुए कई दिन बीत जाते, अब तो स्पर्श की अनुभूति ही मिट-सी गई थी।

छप... छप... छप... अनु के अंगुठा चूसने की आवाज़ कानों में पड़ी। पद्मावती का मन भर आया। मन हुआ कि जा कर उस नारियल के पौधे को गोद में सुलाकर उसके कटे छोटे बाल सहला दूँ। रोएँ समान कोमल एड़ियों को गोद में रख धीरे-धीरे सहला दूँ, उस कोमल लता को भींच कर सोने का मन चाहा पर... पर यह कैसे संभव होता? लगा दु:ख से छाती फट जाएगी और पद्मावती वेदना से छटपटाने लगी।

"मेरी पोती है अनु... मैं उसे छूना चाहती हूँ। पर उसकी छटपटाहट रेवती के कानों में नही पड़ी। स्पीकर फोन पर अमेरिका की लाईन...
"हूँ... मैं बोल रही हूँ...।"
"अनु ठीक तो है ना? माँ..."
"माँ की दयनीय स्थिति के बारे में तो मैंने लिखा था।"
"हूँ...हूँ... पढ़ा था... विश्वास ही नहीं होता...दुर्भाग्य..."
"दुर्भाग्य या कपट... बदबू आती हैं। आई कांट मॅनेज एनी मोर..." मैं उसे अब बर्दाश्त नहीं कर सकती।"
"प्लीज डार्लिंग, चार महीने में मैं आ जाऊँगा, और समस्या का हल ढूँढ़ दूँगा।''
"हूँ।"
"माँ है क्या? फोन उन्हें दो न?"
"चुप रहिए, कहने को कुछ नहीं है, बंद कीजिए फोन...", रेवती क्रोध से फुफकारती हुई बच्ची को गोद में लिए बेडरूम में गई और ज़ोर से किवाड़ बंद कर दिया।
दुबारा बाहर आई।

"वैसे ही मेरी कोई सहेली घर नहीं आना चाहती।" होम" में जाकर रहने को कहती हूँ तो मानती नहीं हैं, क्या आप भी चाहती हैं कि हम लोग भी यह कष्ट भुगतें?" "क्यों?  यह बदला लेने की प्रवृत्ति क्यों? मैं दूसरा घर ढूँढ़ लेती हूँ आप इस घर में खुशी से रहिए, कल मैं ही चली जाती हूँ यही एक रास्ता है।" दीवारों और हवाओं को सुनाते हुए रेवती बड़बड़ाने लगी।

उसकी चिढ़ भी हाल में ही बढ़ी थी। पहले तो दोनो बड़े प्रेम से रहती थीं। "सास बहू जैसे थोड़ी रहती हैं? अपनी बेटी से भी शायद कोई इतना प्यार करता होगा।" लोग उन दोनो के बारे में ऐसा कहते थे। पता नहीं किसकी नज़र लग गई। पहले दोनों साथ-साथ घर सजाती थीं। नये नये पकवान बनाती थीं। रेवती की कायनेटिक हौण्डा पर बैठ पार्क, मंदिर, प्रदर्शनी, समुद्रतट आदि सभी स्थलों की सैर करने जातीं।

"क्लब की मीटिंग छे बजे ख़त्म होगी। वहीं रहिएगा मैं पिक अप कर लूँगी।" रेवती अपनी सास से कहती और ठीक छे बजे पहुँच भी जाती थी।

"होटल चलकर कश्मीरी नान खाएँ सासू माँ?"
"हाँ, क्यों नहीं?"
"माँ मैं आइसक्रीम लूँगी।" तीनों अन्नानगर के चतुरा रूफ गार्डन जाते। बजाय जल्दी जल्दी खाना खाने के पौना घंटा बैठ आराम से खाते पीते। घर लौटने पर पैर फैला कर सुस्ताते, टी वी देखते, संगीत सुनते, कैरम खेलते, खूब मज़ा लेने के बाद बारह बजे के करीब सोने जाते।

ये बातें पिछले जनम की लगती हैं पद्मावती को अब।

छे महीने पहले शुरू हुई थी दुर्दशा की यह कहानी। नारी निकेतन की संचालिका ने उत्साहपूर्वक कहा था, "हमारा यह संगठन बहुत मशहूर हो गया है, आप लोग जानती हैं न?" हाँ, हाँ... पत्रिका में फोटो देखी थी और इसके बारे में पढ़ा भी था। जिन-जिन लोगों ने जोश में काम शुरू किया सब किसी न किसी बहाने पीछे हट गईं। परन्तु पद्मावती बोली, "कोई बात नहीं, मेरा बेटा विदेश जा रहा है, मेरे पास वक्त बहुत है मैं करूँगी, इन लोगों की मदद ईश्वर की सेवा करना होगा।"

उसने सच्ची निष्ठा से इन लोगों की सेवा की। उनका शरीर पोंछना, कपड़े बदलना, कहानी सुनाना, भय दूर भगाना, फूल काढ़ना आदि सिखाते हुए जब उनकी मदद करने लगी, तभी समस्या शुरू हुई।

आश्रम से घर लौटने पर बहू कहती, "जाइए, जाकर साबुन से अच्छी तरह नहाकर आइए, करीब आनेपर उबकाई आती हैं।"
"क्यों बेटी रेवती... मदर टेरेसा ने क्या-क्या नहीं किया... इनकी मदद करनेवालों को ईश्वर फूल समान सुरक्षा करते हैं। चिंता न कर।"
कहकर हँस देती। पर सब बेकार... सब काल्पनिक हो गया। सच तो कुछ और ही हो गया। विश्वास टूट-फूट गया।"

यह आठ फीट लम्बा कमरा उसका सब कुछ बनकर रह गया। अब जब तक उसकी अंतिम किया नहीं होती तब तक यहीं रहना है। इस तरह के ख्यालों के कारण दुख और तीव्र हो गया और इस दुख के सागर में डूबते-उतराते वे सो गई। थाली में रखा भात पड़ा-पड़ा सूख कर कड़ा हो गया।

सिट-आऊट में बैठे-बैठे बाहर का नज़ारा देख रही थी पद्मावती। सुबह की धूप, सड़क पर तेज़ी से भागती गाडियाँ... बिना रुके तेज़ रफ्तार से भागते लोग... तेज़ी से भागती भीड़। इनमें किसी को यह बीमारी लगी होगी? मेरी तरह इनका हृदय भी विदीर्ण हुआ होगा? क्या अकेलापन के सूने सागर में ये भी मेरी तरह डूबे उतराए होंगे? पद्मावती ने सोचा।

बगल के फ्लैट में रहने वाला भी तो कोई नहीं आता। उसकी ओर देख मुसकुराते भी तो नहीं वो लोग। क्या मुसकुराने से भी कोई बीमारी फैलती हैं? पद्मावती को लगा जैसे सारा संसार सूना - - सूखा कहनेवाला और उजाड़ हो गया। मित्र-भाव मिट गया है। अकेलापन... अकेलेपन की आग, जी को भी जलकर भस्म कर रही हैं, अपना कोई नहीं हैं। चारों ओर लोगों की भीड़ है पर अपना आत्मीय कोई भी नहीं हैं... अकेलापन ही साथी है। सवेरा होते ही रेवती भी अनु को लेकर चली जाती है।

रेवती ने अनु को क्रेच में भर्ती कर दिया हैं।

"आपको उसकी देखभाल करने की ज़रूरत नहीं हैं, मैं स्वयं ही छोड़ भी आऊँगी और ले भी आऊँगी।"
एक दिन बेलगाम जुबाँ से उसने ये शब्द उच्चारित किए थे।
"मेरी बेटी के लिए आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं है... उसे हाथ नहीं लगाएँ बस वही काफ़ी है। आपकी शुक्रगुज़ार रहूँगी।" घाव पर शूल चुभोते से लगे रेवती के शब्द।

"बच्ची है... वह तो नासमझ हैं पर बुजुर्गों की अक्ल भी क्या मारी गई हैं? "
"बच्ची की आपको ज़रा भी परवाह होती तो क्या आप उसे छू कर बातें करती?"

नरक की आग में उन्हें भून रही थी बहू। क्या करूँ? सोचने लगी पद्मावती... अगर मैं घर से बाहर निकलकर न जाऊँ तो खुद घर छोड़ देने की धमकी दे रही हैं बहू। शायद मुझे ही चले जाना चाहिए? रेवती तो कम से कम खुश हो जाएगी। चार महीने में मेरा बेटा आ जाएगा। क्या तब तक स्थिति टाली नहीं जा सकती।"

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