होली
विशेषांक का अतिथि संपादक
- अरविन्द
तिवारी
उन्होंने और मैंने लिखना साथ
ही शुरू किया, इसलिए वह मेरे बहुत पुराने मित्र हैं। होली
से एक माह पहले उनका फोन आया कि वह मुझे मिलने मेरे शहर आ
रहे हैं। मैंने कहा, "होली दीवाली फोन करते नहीं, अचानक
इतना स्नेह ...बात हज़म नहीं हो रही। "
वह बोले "वही बैकलॉग पूरा करने आ रहा हूँ। " मैं खुश था
क्योंकि बहुत अरसे बाद उनसे मिलना संभव हो रहा था। वह
प्रतिभाशाली लेखक थे, लेकिन लेखन के शुरुआती दौर में ही एक
घाघ संपादक ने उन्हें अपनी पत्रिका का अतिथि संपादक बना
कर, उनकी प्रतिभा पर ग्रहण लगा दिया था। उसके बाद उन्होंने
खुद ही एक साहित्यिक पत्रिका निकाली थी, जो मासिक से
त्रैमासिक होकर अब बन्द होने के कगार पर थी।
आए, तो गर्मजोशी से मिले। चाय पान से भोजन तक हम लोग
पुराने समय को शिद्दत से याद करते रहे। उन्होंने बताया, वे
अपनी पत्रिका का होली विशेषांक निकाल कर फिर से पत्रिका को
लाइम लाइट में लाना चाहते हैं। इस महती कार्य के लिए वे
मुझे इस विशेषांक का अतिथि संपादक बनाना चाहते हैं। इतना
सुनते ही मेरे सफेद से चेहरे पर लालिमा दौड़ गई, गो कि हम
तीन साल तक सरकारी पत्रिका के संपादक रह चुके थे। पर
साहित्यिक पत्रिका की और बात है। मेरे मन में अबीर और
गुलाल के फब्बारे फूट पड़े! तन मन होली से पहले ही रंगों
से सराबोर हो गया। मैंने भोजन के बाद मिठाई की डिश पेश की,
जो उनके भोजन के मीनू में पहले नहीं थी। उन्होंने यह भी
बताया कि इस विशेषांक को वे फोर कलर में छापना चाहते हैं,
हालाँकि अब तक उनकी पत्रिका ब्लैक एँड व्हाइट ही है। मेरे
सपने के रंग और गाढ़े हो गए। मैंने अतिथि संपादक बनने की
हामी भर दी।
चलते समय उन्होंने एक ऐसी बात कही कि मेरे मन के सभी
फव्वारे अचानक सूख गए। उनका कहना था कि पत्रिका को रंगीन
बनाने के लिए अतिथि संपादक को बीस हज़ार रुपए की आर्थिक
सहायता पत्रिका फंड में करनी होगी। मैंने फ़ौरन से पेशतर
उनका प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए, उन्हें सूचित किया इन
दिनों मेरी राशि पर शनि की साढ़ेसाती चल रही है। आप कोई और
अतिथि संपादक खोज लें। मेरा जवाब सुनकर उनके फागुनी मन पर
बर्फबारी शुरू हो गई!
इसके दस दिन बाद उनका फोन आया कि कोई मिल नहीं रहा है, अतः
आप अपने शहर के किसी नए लेखक या कवि को तैयार कर लें।
मैंने अनमने मन से लोकल कवि घसीटा से बात की तो आश्चर्य का
ठिकाना न रहा! घसीटा उनकी शर्तों पर तैयार हो गए। घसीटा ने
शर्त रखी कि इस विशेषांक हेतु रचनाएँ जुटाने का काम मुझे
करना होगा। मैं मान गया।
मैंने पुरानी पत्रिकाओं और अख़बारों के अंकों से लेखक
मित्रों की रचनाएँ घसीटा को उपलब्ध करवाईं। कुछ अभिन्न
मित्रों से लिखवा भी लीं। मित्र की पत्रिका का होली
विशेषांक रंगीन पन्नों में बड़ी सजधज के साथ निकला। मेरे
पुराने संपादक मित्र के साथ कवि घसीटा भी खूब गदगद थे।
ज़ाहिर है मुझे भी गदगद होना पड़ा।
अभी गदगद होने को कायदे से सेलिब्रेट भी नहीं कर पाए थे कि
ऐन होली से एक दिन पहले, सबके चेहरों का रंग उड़ गया!मध्य
प्रदेश और बिहार के एक एक लेखक ने अतिथि संपादक और स्थाई
संपादक, दोनों को कानूनी नोटिस भेजते हुए पूछा कि उनकी
रचनाएँ बिना अनुमति के कैसे छाप लीं? असल में मेरे मना
करने के बावजूद पुराने मित्र ने लेखकों के पते पर विशेषांक
भेज दिया। चूँकि रचनाएँ मैंने उपलब्ध करवाईं थीं, इसलिए
घसीटा मुझे रोज रोज तंग करने लगे। बिहार के लेखक ने दस
हजार रुपये और मध्य प्रदेश के लेखक ने बीस हजार रुपये का
हर्जाना माँगा था। हकीकत यह थी कि जिन पत्रिकाओं से मैंने
उनकी रचनाएँ लीं थी, वे पत्रिकाएँ पारिश्रमिक ही नहीं
देतीहैं! उधर पत्रिका के स्थाई संपादक भी मुझे फोन करके
मामले को सुलटाने का निवेदन कर रहे थे। उन्होंने अपने जवाब
में पूरी जिम्मेदारी कवि घसीटा के ऊपर डाल दी थी। कॉपी
राईट एक्ट का पहली बार सार्थक प्रयोग हो रहा था।
घसीटा मेरे शहर के थे, सो सम्बन्धों को लेकर मेरा चिंतित
होना स्वाभाविक ही था। मैंने बिहार और मध्य प्रदेश के अपने
खास मित्रों से मामले को सुलटाने का निवेदन किया। जिन
मित्रों से बेहद गर्मजोशी के सम्बन्ध थे, वे बर्फीले तूफान
में तब्दील हो रहे थे। कोई इस मसले पर हमारा साथ देने को
तैयार नहीं था। उनके अपने राज्य के व्यंग्यकार से वे अपने
सम्बन्ध तोड़कर मेरी मदद करने में असमर्थ थे। बिहार का
मामला तो सुलट गया, पर मध्य प्रदेश का लेखक नहीं माना।
चूँकि वह लेखक मूँछें भी रखता था, सो उसने इस प्रकरण को
मूँछ का सवाल बना लिया। देश के बेहद लोकप्रिय व्यंग्यकार
मित्र ने भी इस मामले में अपने हाथ खड़े कर दिए। अंततः वह
दो हज़ार के हर्जाने पर मान गया। ये रुपए घसीटा की जेब से
गए, पर उन्होंने खुशी-खुशी इसलिए दे दिये, क्योंकि,
पत्रिका की अच्छी सामग्री के कारण पत्रिका लाइम लाइट में आ
गई थी। साहित्य में चर्चा होने लगी कि छोटे शहर में भी
प्रतिभाशाली संपादक रहते हैं! |