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हास्य व्यंग्य

पुलिस बनाम लोकतंत्र
- रमेश राज


लोकतंत्र में पुलिस की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अब आप कहेंगे कि लोकतंत्र से पुलिस का क्या वास्ता! है क्यों नहीं साहब! अजी पुलिस का डंडा और लोकतंत्र का झंडा एक दूसरे के ऐसे पूरक हैं जैसे देशी घी में चर्बी। पुलिस की कर्तव्यनिष्ठा, लगन और ईमानदारी पर आपके शक करने का अर्थ, लोकतंत्र के साथ विश्वासघात करना है। इसलिये पुलिस चाहे गंगाजल परीक्षण के अन्तर्गत आपकी आँखों का कोफ्ता बनाकर लोकतंत्र की भेंट चढ़ा दे या वर्दी का डकैती में इस्तेमाल कर आपके सीने पर गोलियों के ठप्पे लगाये। खून की होली खेले या थाने की चार-दीवारी की भीतर किसी बेबस नारी के तन पर शराब के भभकों के साथ बलात्कार का काला इतिहास लिख दे, आपको यह सब चुप रहकर लोकतंत्र की रक्षा के लिये हँसते-हँसते झेलना है। आपके माथे की एक भी नस तनने का अर्थ होगा कि आप फासिस्ट हैं, देशद्रोही हैं, नक्सलवादी हैं। गाँधीजी के सपनों की हत्या कर रहे हैं।

लोकतंत्र की रक्षा के लिये आपका कर्तव्य पुलिस-तंत्र को फलने-फूलने के पूर्ण अवसर देकर उसे सुदृढ़ बनाना है। भले ही पुलिस लोकतंत्र की दूबिया जड़ों को मट्ठा डालकर खोखला कर दे।

मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखते। अगर आप विश्वास रखते होते, तो जब भी पुलिस आपकी किसी बेटी का शील-भंग करती तो आप उसे अपनी दूसरी बेटी भी सौंप देते और तपाक से अहिंसावादी होने का तमगा ले लेते। लेकिन आप हैं कि बेटी की तो बात छोड़िये, किसी दूसरे की बहू-बेटी के साथ यदि कोई पुलिसवाला मुँह काला कर ले तो आपके सीने का शांत ज्वालामुखी धधकने लगता है। आप थाने पर पथराव और प्रदर्शन की बातें सोचने लगते हैं। न्याय के लिये अदालत के दरवाजे खटखटाना शुरु कर देते हैं। जबकि पुलिस है कि ऐसी विकट परिस्थितियों में भी आपके साथ लोकतान्त्रिक तरीके अपनाते हुये, आपको सिर्फ बन्द करने की धमकी देती है। जबकि वह चाहे तो ऐसे नाजुक मौकों पर लोकतंत्र की रक्षा के लिये, जज साहब से मिलकर या उनके लाख विरोध के बावजूद आपको भरी अदालत से उठवा सकती है, थाने में बेलन चढ़ा सकती है। बिजली के तारों से चिपका सकती है। किसी भी ऐरे-गैरे नत्थू खैरे से आपके मुँह में पेशाब करा सकती है। भले ही आप शहर के कितने ही बड़े तुम्मनखाँ व्यापारी हों, समाजसेवी हों, पत्रकार हों या कोई और।

मैं पूछता हूँ आपसे- अगर आपके यहाँ चोरी हो जाती है तो आप थाने में रपट लिखाने जाते ही क्यों है? हो सकता है आपकी सामान्य-सी रिपोर्ट थाने में दर्ज होने पर लोकतंत्र खतरे में पड़ जाये। अगर आपके यहाँ डकैती पड़ गयी है तो थाने या लोकतंत्र में तो डकैती नहीं पड़ गयी कि जिसके लिये दरोगाजी चिन्तित हों और वे सुरा-सुन्दरी के जायके को किरकिरा कर डकैतों का पता लगाने के लिये आपके साथ दौड़-धूप शुरू करें और छानबीन के बाद उन्हें पता चले कि जिसने डकैती डाली थी, वह व्यक्ति यह सब कुछ लोकतंत्र की रक्षा के लिये कर रहा है। तब आप ही सोचें कि दरोगाजी लोकतंत्र की रक्षा करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार करके क्या अलोकतांत्रिक कहलाना पसंद करेंगे? क्या पुलिस में बग़ावत फैलाना चाहेंगे?

अगर आपको कोई चाकू मार दे तो भाई डाक्टर किसलिये हैं? आप उनके पास जायें, टाँके लगवायें, मरहमपट्टी कराएँ। लेकिन आप हैं कि रिक्शे में बैठकर पहुँच गये थाने और लगे रिपोर्ट लिखाने। आखिर आप क्यों तुले हैं दरोगाजी और लोकतंत्र की मिट्टी पलीद करने और कराने। हो सकता है जिस वक्त आप रिपोर्ट लिखाने पहुँचे हों, उस वक्त आपको चाकू मारने वाला, दरोगाजी की जेब गरम करके लोकतंत्र की जेबें गरम करने के सारे प्रयास कर चुका हो।

मैं फिर कहूँगा कि आपसे लोकतंत्र की रक्षा हो ही नहीं सकती। अगर आप लोकतंत्र की रक्षा कर रहे होते तो किसी खालसा, बोड़ो, गोरखा, कश्मीरी आन्दोलन से जुड़ गये होते और फिर संविधान की प्रतियाँ जलाकर, बड़े-बड़े पुलिस अधिकारियों को अपनी लोकतांत्रिक बंदूक से भूनकर, रेल की पटरियाँ तोड़कर, लोकतंत्र का झंडा थामे होते। आप किसी देश-भक्त के पाजामे होते।

आप कोई नेता भी तो नहीं, जो सीमेन्ट, चावल, तोप, पाइपलाइन, चारा, यूरिया, तहलका, ताबूत आदि में घोटाला कर जायें और पुलिस विभाग आपके इस लोकतांत्रिक ढंग की हृदय से प्रशंसा करे और आपको गिरफ्तार करने से डरे। अजी आप तो ठहरे निरीह जनता। आपसे लोकतंत्र का कुछ नहीं बनता।
 

जनवरी २०१७

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