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हास्य व्यंग्य

फिर से सुर्खियों में
- डॉ. सरोजिनी प्रीतम


हमारे घर के सामने की सड़क खोद दी गई है। बिजली के खंभे धराशायी हो चुके हैं। नाली की सफ़ाई चल रही है यानी उसकी गंदगी बाहर है और आस-पास का कूड़ा अंदर। ठेकेदार के कर्मचारी विध्वंस में व्यस्त हैं। पतलून-बुश्शर्ट और धूप का चश्मा चढ़ाए एक सरकारी निरीक्षक पेड़ की छाँव के नीचे कुरसी पर विराजमान इस विनाश का जायज़ा ले रहे हैं। पूरे महल्ले का बिजली-पानी बंद है। घर से हमें पत्नी ने इस संकट के कारण और निदान खोजने बाहर ठेल दिया है। हम सरकार से संपर्क का साहस जुटा रहे हैं।

इसके पहले एक बार हमारा सरकार से साबका पड़ चुका है। किसी स्कूटर चालक को एक ट्रक सामान्य-सा 'हैलो' कहकर हवा से बातें करता गुज़र गया। एक सहयोगी स्कूटर चालक के नाते हमने अपना दो-पहिया रोका और तत्काल जाकर पहले दिखे पुलिसवाले को इस दुर्घटना की ख़बर की। सिपाही लगन और निष्ठा से एक खोमचेवाले पर डंडा चलाने की रियाज़ कर रहा था। उसे अपने कार्यक्रम में हमारा खलल अच्छा नहीं लगा। उसने अपनी रियाज़ जारी रखी और गुर्राया,
"खामोशी से खड़े रहो। देखते नहीं, मैं 'बिज़ी' हूँ।"
हमने गुज़ारिश की "घायल की जान का सवाल है।"

हमें लगा कि डंडा चलाने की वर्ज़िश से वरदीवाले के हाथ थक गए हैं। वह पसीना-पसीना हो रहा है। हमारे मन में आशंका हुई कि कहीं इस कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी को दिल का दौरा न पड़ जाए। यकायक पिटते खोमचेवाले ने, "गल़ती हो गई हुजूर" की हाँक लगाई। डंडा रुका। उसने जेब से कुछ मुड़े नोटों-से वैसे वरदी की आरती उतारी, "इस बार माफ़ कर दें सरकार। आगे से कभी चूक नहीं होगी।"

सिपाही ने सिद्ध किया कि उसके भी दिल है। उसमें नोट देखकर दया हिलोरें लेती है। उसने कृपा कर खोमचेवाले के सौजन्य से मिठाई खाई। पानी पिया। फिर उसे हमारा ध्यान आया, "तुम अब भी यहाँ हो। चलो।" वह हमारे स्कूटर पर सवार होकर दुर्घटनास्थल पहुँचा। उस बेहोश आदमी के पास तब तक दर्शकों की भीड़ जमा हो चुकी थी। हम जब गए थे तो उसका 'हेलमेट' उसके सिर की शोभा बढ़ा रहा था। उसका 'ब्रीफकेस' उसके पास बंद पड़ा था। अब 'हैलमेट' गायब था और 'ब्रीफकेस' खुला। भारत दर्शकों का देश है। हम क्रिकेट से लेकर दुर्घटना तक गंभीरता और चाव से देखते हैं। हमें खुशी हुई कि किसी दर्शक ने दर्शन ही नहीं किए बल्कि दुर्घटना के हादसे में अपना व्यक्तिगत योगदान भी दिया है।

सिपाही स्कूटर से उतरा। उसने अपना जादुई बेंत हवा में हिलाकर दर्शकों को भगाया। बेहोश स्कूटरवाले के ऊपर झूककर उसका निरीक्षण किया और प्रमाण पत्र दिया, "साँस आ रही है।" उसने रुख हमारी ओर कर जाँच की प्रक्रिया आगे बढ़ाई
"टक्कर मारकर और पैसे पार कर हमें ख़बर करने चले आए।"

हमने गिड़गिड़ाकर ट्रक की टक्कर का आँखों देखा हाल सुनाया। उसने डपटकर ट्रक का नंबर जानना चाहा। हमने नंबर न नोट करने की विवशता बताई। उसने थाने चलने का आदेश दिया। अपनी रूह फाख़्ता हो गई। हमारे कई परिचितों की मान्यता है कि भारतीय थाने निर्दोष नागरिकों के 'यंत्रणा केंद्र' और अपराधियों के 'शरण-स्थल' हैं। सिपाही भाई के डंडे के कमाल के हम प्रत्यक्षदर्शी गवाह थे।

थाने ले जाकर कहीं इसका इरादा अपना वही हाल करने का न हो। हमने उससे थाने न ले जाने की प्रार्थना की। उसने जिज्ञासा जताई, "माल है?" हमने जेब खाली कर दी। स्कूटर 'स्टार्ट' किया और घर आकर दम लिया। इस हादसे के बाद से अपने को अक्ल आ गई है। हम भी दर्शकों की ज़मात में शामिल हो गए हैं। हमने सरकार से, जहाँ तक संभव हो, दूर रहने का निश्चय कर लिया है।

पर इस समय क्या करें? हमने पेड़ की छाँव में बैठे चश्मेवाले को ग़ौर से देखा। उसके आसपास कहीं कोई वरदीवाला तो नहीं शिकार की टोह में छुपा है? हममें हिम्मत आई। चश्मेवाला अकेला है। उसका एक चमचा अभी-अभी उसे पानी या शीतल पेय देकर गया है। हमने खुद को दिलासा दिया कि उसके पास जाने में कोई ख़तरा नहीं है। न उसके पास डंडा है न वरदी। यह थाने ले जाने की धमकी नहीं दे सकता है। हम स्वयं को आश्वस्त कर उसके पास पहुँचे। उसने अनमने भाव से हमें ताका और प्रश्न किया- "कहिए!!"
कहने को हमारे पास बहुत कुछ था पर हमने संपर्क को सीमित करने के लिए जानना चाहा-
"यह सब क्या हो रहा है? उसने जानना चाहा, आप यह किस 'सब' की बात कर रहे हैं?"
हमने खुलासा किया,
"हमारा अभिप्राय बिजली-पानी का न रहना, नाली-सड़क की खुदाई और खंबों के गिराए जाने से है।"
"आपके बाकी 'सब' का तो हमें पता नहीं है। नाली की सफ़ाई से हमारा वास्ता है। हम नहीं चाहते हैं कि नालियाँ नदी-नाले बनकर बारिश में आपको सताएँ।"

हमें चश्मेवाला एक कर्मठ जनसेवक प्रतीत हुआ। बेचारा अपनी व्यक्तिगत निगरानी में नाली का कबाड़ निकलवा रहा और सड़क का उसमें भरवा रहा है। हमने एक नागरिक के नाते अपनी जानकारी उसे पेश की-
"एक ओर नाली साफ़ की जा रही है और दूसरी तरफ़ उसमें बाहर का कचरा भरा जा रहा है। इससे तो नाली रुकी रहेगी।"
उसने हमारी बात ग़ौर से सुनी और किसी भोलू को आवाज़ लगाई। "यस सर!" कहते एक मरियल-सा इंसान प्रकट हुआ। चश्मेवाले ने उसे ठेकेदार को हाज़िर करने का निर्देश दिया। ठेकेदार किसी और महल्ले की नाली-सफ़ाई की निगरानी कर रहा था। उसे उसके 'सैल फ़ोन' पर ख़बर दी गई कि सफ़ाई-निरीक्षक साहब ने उसे तलब किया है। वह आयातित 'आफ्टर शेव' और गाड़ी में गमकता हुआ आया। उसके और 'साहब' के बीच कुछ देर कानाफूसी हुई और वह चला गया। हमने चश्मेवाले को उत्सुकता से देखा। उसने हमें ज्ञान दिया-
"नाली की सफ़ाई से हम समाज का विकास कर रहे हैं। विकास एक सतत प्रक्रिया है। सड़क का कूड़ा नाली में पड़ा तो एकाध वर्ष में उत्तम खाद बनेगा। सड़क अलग साफ़ होगी। खाद से शहर के बगीचे हरे होंगे। ज़िंदगी की 'क्वालिटी' सुधरेगी। अगर नाली वाकई साफ़ हो गई तो दो-तीन साल साफ़ रहेगी। विकास अवरुद्ध होगा। ठेकेदार को काम नहीं मिलेगा। उसके कर्मचारी बेकार होंगे। देश की बेकारी बढ़ेगी। रोज़गार के अवसर घटेंगे। आर्थिक तरक्की पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।"

हम चश्मेवाले के 'राष्ट्रीय दृष्टिकोण' से प्रभावित हुए। हमें यकीन होने लगा कि नाली रुकना, साफ़ होना और फिर उसमें कूड़ा भरना राष्ट्रीय हित की एक अनिवार्य प्रक्रिया है। नेहरू उद्यान की हरियाली इसी नीति की देन है। नाली रुकना हमारे लिए भले असुविधाजनक है पर देश के लिए ज़रूरी है। ज़्यादा से ज़्यादा यही तो होगा कि नाक पर रुमाल रखकर घर से निकलना पड़ेगा और घर पहुँचने के लिए 'गंद' के दरिया को पार करना होगा। कभी पैर फिसला तो उसमें डुबकी भी लग सकती है। हम कमर कसकर व्यक्तिगत स्वार्थ को देश के विकास के हित में त्यागने को तैयार हो गए।

हमारी सड़क के खुदने की चिंता ख़तम हो गई। सड़क बार-बार इसीलिए खुदती-बनती है क्यों कि वह विकास का राजपथ है। बिजली के साथ भी यही हो रहा है। बिजली रहती है तो खंबे नहीं रहते हैं और खंबे रहते हैं तो बिजली गुम होती है। कहीं तो बिजली भी है और खंबे भी तो तार ग़ायब हैं। जल के संकट का तो एक ही हल है। आदमी 'टयूब-वैल' का विकास करे।

हमें चश्मेवाले से चर्चा कर विश्वास हो गया है कि आज़ादी के बाद से विकास का संक्रामक रोग पूरे मुल्क में फैल चुका है। वरदीवाले, ठेकेदार, नेता, अधिकारी सभी इसके शिकार हैं। विकास का राजपथ ठेकेदार, 'इंस्पेक्टर' और दफ़्तर के अफ़सर बाबू के घर से होकर गुज़रता है। प्रजातंत्र की ज़िंदगी में पचास-पचपन वर्ष का समय पलक-झपकने और खोलने-जैसा है। भारत जैसा विशाल जनतंत्र तो पचास साल में जम्हाई भर ले ले तो बड़ी बात है। फिर कभी कारगिल हो जाता है, कभी गिल। यानी विकास के रास्ते में रोड़े अटकते ही रहते हैं। हमें संतोष है कि इस सबके बावजूद विकास लगातार हो रहा है। हर सड़क खुद रही है। हर 'गटर' उफन रही है। हर नल में जल का संकट है। यह विकास के लाज़मी लक्षण हैं। प्रसन्नता का विषय है कि इधर विकास की रफ़्तार भी बढ़ी है। कभी विकास साइकिल से होता था। फिर वह जीप-कार से होने लगा। अब तो हर सूबे में मंत्री-मुख्यमंत्री विकास 'हेलीकाप्टर' और 'हवाई जहाज़' से करने को आमादा हैं। विकास के लिए शासन और सरकार कटिबद्ध हैं।

अख़बारों में शिक्षा से लेकर शौचालय तक के विकास का विज्ञापन है। हर सरकार के विकास में योगदान के महँगे प्रकाशन हैं। उनमें आँकड़े हैं। आज़ादी के बाद करोड़ों पढ़े और करोड़ों अनपढ़ हैं। लाखों शौचालय बने और बिगड़े हैं। हज़ारों पुल और इमारतें खड़ी हुईं और ढही हैं। बस थोड़े धैर्य और धीरज की ज़रूरत है। विकास ऊपर से नीचे आ रहा है। सरकार में हर स्तर पर आ चुका है। जनता तक भी आ ही जाएगा।
 

१ अक्तूबर २०१६

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