मैंने
पीछे पण्डित गोपालप्रसाद व्यास की एक काव्य-पंक्ति का
उल्लेख किया है- ‘एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी
नारी।’ इसे कहते हैं तोलने पर अचूक अधिकार। आप कहोगे- खुदा
भी कितना बेगैरत है! व्यासजी के करकमलों में पकड़ाना तो
चाहिए था तराजू, पर पकड़ा दी निगोड़ी कलम। पर मैं कहता हूँ,
वह बड़ा दूरद्रष्टा है, उसके हाथ बड़े लम्बे हैं। उसके यहाँ
देर है, अंधेर नहीं। अब देखिए न, उसने निपट बुढ़ापे में
इनके हाथ में कबीर-सूर-परम्परा के/की स्टैनो की उँगली पकड़ा
ही दी न! टाइम तो लगता ही है!
देखिए, व्यासजी ने कितना बड़ा सच कहा है-‘नारी’ सचमुच ‘नर’
से दुगुनी भारी है। ‘नर’ में मात्र दो मात्राएँ हैं और
नारी में चार। इस पर भी नारी की तुलना में यह ‘अद्धा’
(आधा) उसके बोझ को सारी उम्र ढोता है, उठाता है (आप मुझसे
सहमत न होना चाहें तो यह अधिकार है आपको)। पर बेचारी, नर
से भारी (बड़ी) नारी सदियों से घर की चारदीवारी में बन्द
अपने को ‘जाया’ तथा ‘आया’ ही समझे बैठी थी। अब तक
बड़े-बूढ़ों की अंकुश-छाया में ही बेजुबान हुई-सी, साँसें
लेकर जीना उसके नसीब में बदा था। अब जाकर कहीं-इस सदी के
बुढ़ापे में-उसके दिन फिरे हैं, नीके दिन आए हैं। उसके नाम
से दुनिया-भर ने महिला-वर्ष मनाए हैं। अब वह आधुनिका हुई
है, हुई जा रही है। अब उसके सामने मुक्ति और स्वच्छन्दता
के द्वार खुले हैं। परिवर्तन में ही तो ‘सुन्दरतम्’ छिपा
है।
अब
वर्तमान बता रहा है कि भविष्य में पुरुष बच्चों को
खिलाएगा, खेलाएगा, चूल्हा फूँकेगा, झाडू लगाएगा, फर्श पर
पोछा लगाते समय अपने पौरुष से उसे इतना चमकाएगा कि घर में
रखे आईनों को कूड़ेदान का शरणागत हो जाने की नौबत आ जाएगी।
वह रोटी पकाकर ‘पाक-कला-कुशल’ और कपड़े धोकर
‘मैल-प्रक्षालन-प्रवण’ कहलाएगा। फिर हौले-हौले नारी के
बेलन, चिमटा, कड़छी, थापी, झाड़ू आदि अचूक अदम्य
अस्त्रों-शस्त्रों पर नर बिना एक बूँद पसीना बहाए ही
कुण्डली मारकर बैठने में सफल हो जाएगा। नर के अधिसंख्य काज
नारी करेगी और नारी के नर। इस प्रकार नारी अपनी दिनचर्या
का अधिकांश समय आराम करने में, बड़े बाप की बेटी अथवा धनी
बाप के बेटों की तरह फिजूलखर्ची में गुजारेगी। तब वह सचमुच
‘बड़े घर की बेटी’ हो लेगी चुपचाप।
मैं कहता हूँ, इस सन्दर्भ में यदि नारी के ऐसे दिन आने
वाले हैं, तो इसमें बुरी बात क्या है? आप जल-भुन क्यों रहे
हैं? यदि घर से बाहर नर किसी का नौकर है, तो घर के भीतर तो
नारी नर की ही नौकर है न! भले ही, बेचारे, किस्मत के मारे
नर को उसकी आज्ञा का पालन करते हुए कोई दर्जन-भर छोटी-मोटी
चीजें लाने के लिए बाजार के सिर्फ पौन दर्जन चक्कर लगाने
पड़ जाते हैं।
ऑफिसवालों (ऑफिसवालियों को भी) को हफ्ते में कम-से-कम एक
या दो दिन की तो छुट्टी मिलती है, पर इस घर की नौकरानी को
तो घर की चाकरी से हफ्ता तो दूर, साल-भर में भी कभी सण्डे
का मुँह देखना नसीब नहीं होता सच्चे मायनों में। बीमारी या
बारी की बात अलग। यह अलग बात है कि वह पीहर की ओर मुँह मोड़
ले, तो पिय-घर (ससुराल) की ओर महीने-भर से पहले आँख उठाकर
भी न देखे। भले ही, पीहरवाले कुढ़ें सड़ें (पंजाबी में)
मन-ही-मन - ‘ब्याह कर दिया, अब इतने दिन इसका यहाँ क्या
काम? एक दिन आए, दूसरे दिन रहे और तीसरे दिन अपने घर को
जाती बने। हमने कोई जिन्दगी-भर का ठेका ले रखा है?’ ऐसी
सुखद स्थिति में वह अपनी तो भले ही नहीं, पर अपने
आर्यपुत्र (पतिदेव) की आबरू (जैसी भी सही) को यमुना के
गन्दे पानी में जरूर बरधा (प्रवाहित) देती है।
अस्तु, नरो! नारी को, घर की कामकाजी नारी को कम-से-कम
सण्डे की इकलौती छुट्टी तो जरूर ही मिलनी चाहिए। यदि तुम
रसोई पकाने में कच्चे हो, तो पके हुए मौसमी फल खाकर चादर
तान लो। डबल रोटी खाकर, पानी के घूँट पीकर रह जाओ। मुँह
खोलो, मगर जुबान को लगाम दे दो। नरो! इसे अधिकारों की
वंचना की याद दिलाकर लज्जित मत करो! यह तुमसे किसी भी
क्षेत्र में पीछे नहीं है। जीवन के हर क्षेत्र में, हर
गली-कूचे में, हर मोड़ पर तुम इसे अपने कन्धे-से-कन्धा
मिलाकर चलती हुई पाओगे। पौरुषमय पुरुषो! सँभलो! कहीं अबला
की टक्कर से गिर मत जाना!
सुनो, गौर से सुनो! यह कह रही है- "नरो! मुझे किसी बात में
कम मत समझो। वे दिन लद गए जब मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चला
करती थी, हाथ-भर का लम्बा घूँघट काढ़े। तब मेरे सिर पर गाढ़ा
चूनर होता था या धोती, साड़ी का पल्लू। मैंने अपने सिर पर
सवार इस नर (चूनर या पल्लू पुल्लिंग जो है) को पहले सिर पर
से उतारा, (सिर पर चढ़ जाने वालों के साथ ऐसा सलूक होना भी
चाहिए) जान-बूझकर पटका नहीं, गले का हार बनाया। मैं पहले
इसे लाज के कारण सिर पर ले लिया करती थी, आज मारे लाज के
ही इसे सिर पर से बेदखल कर दिया। मैंने ऐसा तुम्हारे लाभ
को ध्यान में रखकर ही किया है। तुम्हारे घरेलू बजट में
साबुन/सर्फ का इजाफा न हो इसीलिए मुझे यह क्रान्तिकारी कदम
उठाना पड़ा है। अब मैंने महसूस किया है कि यह निगोड़ा चूनर
तो मेरी फिगर पर आवरण बनकर बैठ गया है। तो क्या मैं
स्वाभाविक रूप से दोषपूर्ण हूँ? अपने को पूर्ण परदे में
क्यों रखूँ? कविवर बिहारी का सिर फिर गया था जो उन्होंने
‘अर्ध ढके छवि देत’ वाला दोहा लिख डाला। उन्होंने वह
शब्द-शिल्प मुझ आधुनिका के लिए नहीं, तो किसके लिए किया था
भला? परिणामतः मैंने अब इसे अन्तिम नमस्कार कर ही दिया है।
आखिर मुझे अब बीसवीं सदी में भी तो कदम रखना है। अब यह
दुपट्टा उर्फ चूनर दुकानदारों के डिब्बों में बन्द
घुट-घुटकर दम तोड़ रहा है। दूसरों पर हावी होने वालों के
साथ ऐसा ही होना चाहिए। ऐसों की ऐसी ही सद्गति होती है। अब
वेशभूषा में, मैं तुम मर्दों जैसी ही हो गई हूँ। अब यह
निगोड़ा दुपट्टा कहीं फँसकर, अटककर मेरी प्रगति की राह में
रोड़ा नहीं बन सकेगा।"
"अधिकारी नरो! तुम मुझे मेरे अधिकार क्या दिलवाओगे?
तुम्हारे पास अधिकारों की दानवीरता तो दूर, अपना-आप भी
नहीं है। तुम तो मेरे गुलाम हो।- ‘जोरू का गुलाम’ भूल गये
क्या? कितने नर जानते हैं कि स्नेहिल नारी मात्र
सुख-सुविधा नहीं, वह तो हृदय भी चाहती है। मेरा हृदय तो
प्रेम का रंगमंच है। खूब देख लो, जाँच-परख लो। मेरी
सहानुभूति में तो पराजय को भी विजय में बदल देने की शक्ति
है। मैं जब भी प्रेम करती हूँ, असीम करती हूँ। बस, अब यानी
आज, आज के इस तरक्की पसन्द युग में, मुझमें एक ही गुण या
दोष है, वह यह कि मैं पुरुषों के अनुरूप बनने की
महत्वाकांक्षिणी होने लगी हूँ। मैं यह भलीभाँति जानती हूँ
कि मेरे एक ही कृपा-कटाक्ष से तुम्हारे पौरुष-द्योतक सारे
देवता सहज ही कूच कर जाया करते हैं। अब तो मैं पीने भी लगी
हूँ- तरल भी और गैस भी। अब तुम मेरे नयनों को रतनारा तो
पाओगे, मगर..."
"गीले नेत्रों वाले पिताओ! अब उचित समय आ गया है। तुम मुझे
पुत्रवत् समझो, धरोहर नहीं, दान किए जाने की वस्तु नहीं।
मुझसे, मेरी कमाई से घृणा मत करो! मुझे बोझ समझकर दुत्कारो
नहीं! मेरे पीले हाथ करके तुम जिस मासूम के हाथ में
थमाओगे- उसे, उस अपने जँवाई श्री को ‘जामाता दशमो ग्रहः’
मत समझो!"
"हाय! इस पर भी मैं भयभीत हूँ, तो अपने ही से, अपनी ही
जाति से। मेरी आशंका, मेरा भय बनती जा रही है। मुझे
‘दिनकर’ की ये काव्य-पंक्तियाँ बार-बार सशंकित/भयभीत करती
रहती हैं-
‘गृहिणी जाती हार दाव, सम्पूर्ण समर्पण करके,
जयिनी रहती बनी अप्सरा, ललक पुरुष में भरके'।"
"मैं मानती हूँ, जानती हूँ कि अप्सरा का प्रतीक जब-तब इसी
धरती पर जहाँ-तहाँ नारी-जाति में समाचार-पत्रों की सुर्खी
बन जाता है, बनी जा रही हूँ। न नर मेरे चंगुल से मुक्त हो
पाया है और न ही नारी नर के जटिल पाश से।"
हे पाठक! मैं इस नारी-गाथा को, उसकी आत्मोक्ति को यहीं
विराम देता हूँ। पर, आज मैं नर और नारी की युवा पीढ़ी को
देखकर बहुत खुश हूँ। बाल और बाला में समता का भाव बरसाती
बाढ़-सा उछालें मार रहा है। सामान्य वेशभूषा में उनकी पहचान
की व्यावर्तक रेखा खींचने के लिए कुछ ढूँढ़ना पड़ता है। इस
क्या, हर स्थिति में ‘नारी! तुम केवल श्रद्धा हो’ की
पुष्टि करते हुए कहना पड़ेगा, मानना पड़ेगा-
नर से भारी नारी, क्या करे बेचारी! |