सुमुखी
को जब से ‘दुलारी के जूते’ का विज्ञापन लिखने को कहा गया
था, तब से उसके तन-मन, चिन्तन-मनन सब पर जूतों की छाप
दिखाई देने लगी। हर किसी के पाँव में आँखें गड़ाये, नीची
नज़रों से चप्पलों-सैण्डिलों और जूतों के ब्रांड पर नजरें
टिकाये थी। विज्ञापन कम्पनी ने कहा था- विज्ञापन के लिए
पूरा रिसर्च वर्क कर लो, शोध करके इसका साहित्य तैयार कर
दो, जितना रूपया मरजी से ले लो लेकिन एक बढ़िया विज्ञापन
ऐसा तैयार करो कि हर कोई दाँतों तले अँगुली दबा ले।
सुमुखी को जब किसी ने चुनौती दी, उसने उसे चुनौती की तरह
ही लिया। शोध के लिए जूतों के मुहावरों पर दृष्टि डाली,
फिर सोचा, इसकी मुहावरेदार शैली में ही जूतों के विज्ञापन
के योग्य कोई मसाला अवश्य मिल जायेगा। फिर अपने मस्तिष्क
को ठोक-पीटकर उपनी इर बार, हरेक हरकत में जूतियों को
सम्मिलित करने का सोचकर वह इस शोध के बीहड़ मार्ग पर जैसे
नंगे पाँव चल पड़ी कि तभी जैसे काँटा चुभा। काँटों से भरी
डगर है, दुलारी के जूते रक्षा करें। ऐं! रक्षा के लिए
अस्त्र, अस्त्र वह जो फेंक कर मारा जाय, शस्त्र वह जिसको
हाथ में ही लेकर जमकर खबर ली जाय, जूते ही अस्त्र-शस्त्र
हैं। सुमुखी ने अपनी नयी सोच पर अपनी पीठ थपथपाई तो अपना
हाथ इतने जोर से लगा जैसे हाथ पर भी जूते बाँध रखे थे और
वही पीठ की ठुकाई करने लगे हों।
‘ऐं! हाथ के लिए भी’ दुलारी कम्पनी कुछ नयी चीज सोच तो
सकती है। वैसे भी जिन दिनों हम रेंगने की प्रक्रिया में
रहे होंगे, हमारे हाथ-पाँव में भी तो जूते रहे होगें!
दुलारी कम्पनी को चाहिए था ‘अपनी दुलारी के जूते आदिम युग
से लेकर आज तक चले आ रहे हैं’ का विज्ञापन करने पर किसी
महिला की नामधारी वस्तु को आदिम युग तक ले जाना, उसे उसकी
उम्र को बढ़ा-चढ़ाकर बताना है। लेकिन यह तो कह सकते थे न
‘दुलारी सबकी' आदिम युग से लेकर आज तक इस दुलारी के जूतों
ने ही कमाल दिखाये। इन्हीं जूतों से हमने सदियाँ चलकर पार
कीं, इन्हीं की बदौलत हम आगे बढ़ पाये, युग के लिए जूते,
युग-युग के लिए जूते। जूते बनवाने हैं तो दुलारी कम्पनी से
बनवाएँ। जूते बिगडैलों को दुलार से मारे जाते हैं। वे यही
जूते खाने के बाद, पहनकर रास्ते पर आ जाते हैं।
लैला-मजनूँ, शीरी-फरहाद, हीर-राँझा, सब प्रेम में
जूतियाँ-चटखाते फिरे, ताकि उन्हें उनकी लैला, शीरी, हीर
मिले। जूतों के बल पर साम्राज्य टिके हैं, कुछ जूते ऊँचे
दाम के, तो कुछ बेमोल बिके हैं।
असल में दुलारी के जूते क्या हैं, यह तो सैण्डिल हैं, जो
सिण्ड्रैला के पाँव से छूटी थी। यह वह चप्पल है जो चाँद पर
पाँव रखने के सिलसिले में चटक कर टूटी थी। चाँदनी के तारों
से बने यह जूते सचमुच वे चाँदी के जूते हैं। कोई भी मार
सकता है। दुलारी के जूतों की आज जग को ही क्या, समूचे
विश्व को आवश्यकता है।
लिखते-लिखते सुमुखी को ध्यान आया- तीस सैंकेंड की बात कैसे
की जाय। इतना संक्षिप्त कि ‘कहें, और चट, हर किसी का दिल
इस पर आ गया। उसमें गुण भी हो, आकर्षण भी, संगीत भी हो,
किसी धुन का अनुकरण भी। जूतों की भरमार बेशुमार...’ वह
झूमकर किसी न किसी धुन पर, तुक भिड़ाने के लिए ताबड़तोड़
शब्दों का प्रयोग करने लगी-
‘न रूठो, रूठो न रूठो न रूठो जो तुम
पाँव में पहनकर रूठो दुलारी के ही जूते तुम,
होश ही जाएँ गुम लेकिन
यह जूते हो न पायें गुम।’
‘आ प्यार करें थोड़ा-थोड़ा...तुम्हारा मेरा जोड़ा
यह जोड़ा यों जैसे, दुलारी के चप्पलों का जोड़ा।’
तुम्हारे बिना मैं अपंग लाचार...ज्यों चप्पलों का जोड़ा, एक
पाँव का गुम दूजा बेकार... तनातनी रहे, पर जूतों की तरह
हमारी जोड़ी बनी रहे... ऐं! आज तक किसी ने यह आर्शीवाद
क्यों न दिया... हाँ, दुलारी के जूते... आर्शीवाद भरे हाथ
हैं। खाइए खिलाइए मित्रों, पड़ोसियों, बहन-भाइयों को दीजिए।
हमेशा दुलारी कम्पनी के ही जूते लीजिए। सुमुखी ने अब दोहों
में भी जूते फिट करने की ठानी। इस पर पहेलियाँ लिखने का
सोचते ही लिख दिया ‘खाते हैं पर खाने की चीज नहीं, पहनते
हैं पर ओढ़ने-बिछाने की चीज नहीं... खरीदते हैं... पर
चरित्र अच्छा हो तो स्वतः मिल जाती है... देखने में
व्यक्ति पर छाप छूट जाती है। किस्म-किस्म की मिलती है...
इनसे भी दिल की कली खिलती है। चमड़े से नहीं... यह तो गुलाब
की मखमली पंखड़ियों को इकट्ठी करके ही बनाई जाती है। इसमें
वह हवाई हवा है जो बिना पंख के उड़ाती है। आप इन्हें पहनिए
आपको पंख लग जायेंगे। ऊँची उड़ानों में भी यह काम आयेंगे।
लोग तो कल्पना की ऊँची उड़ान भरते समय भी दुलारी के जूतों
को ही अपनाते हैं। उपहार में दें, त्यौहार पर दें, जीत पर
ही नहीं, हार पर भी दें। इनके हार पहनकर भी आप चल पड़ेंगे
तो लोग ईर्ष्या से जलेंगे क्योंकि दुलारी के मखमली पाँव से
अलग होकर भी हार का शृंगार बनकर भी यह जूते अव्वल दर्जे के
हैं... अव्वल दर्जे के रहेंगे।
जूते अव्वल दर्जे के, जूते अव्वल श्रेणी के, मन को ललचाएँ
जूते, किसी को पीटना हो तो भी इन्हीं चप्पलों का ध्यान
रहे, क्योंकि इससे पहले भी जिस-जिस ने खायी वह ‘एक बार और’
की माँग करता रहा, खानेवाले ने जमकर खाई, हालांकि मारने
वाला तो डरता रहा। निर्भय होकर जीने की कला का यह अस्त्र,
दूसरे के लिए हमेशा ईर्ष्या का विषय रहा। दुलारी दुलारी
दुलारी... जूते ही जूते... सुमुखी का तन, मन, चिन्तन सब अब
जूतों पर केन्द्रित हो रहा था। सामने से सासूजी अपनी
सहेलियों के साथ आयीं तो सुमुखी के मन में आया, एकदम
साष्टांग प्रणाम करे और एकदम कह उठी, ‘आपके जूतों का
स्पर्श करती हूँ। अगर आपने भी दुलारी के जूते पहने होते तो
मैं आपके चरण कमल उन जूतों सहित सिर पर धारण करती। उन
जूतों की आरती उतारती, उन जूतों का गुणगान करती’ और यही
सोचकर ज्योंही उसने माँजी के आर्शीवाद की मुद्रा देखी तो
गद्गद रह गई। उनके हाथों में दुलारी के जूते थे और उनकी
सारी सहेलियाँ भी वैसी ही मुद्रा में अपनी-अपनी कुलवधुओं
को आर्शीवाद देने के लिए दिशा-दिशा को मुड़ गईं। |