हमारे
चैनल के बहुचर्चित कार्यक्रम ‘मेरी तेरी और उसकी बात’ में
मैं आप सबका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ, स्वागत करता हूँ।
आज हम जिस शख़्स से आपको मिलवाने जा रहे हैं, उनका नाम
सुनते ही पचास-पचास कोस दूर के बच्चे सो जाया करते हैं।
जिनका नाम लेते हुए जुबाँ लड़खड़ाने लगती है। रूह काँप उठती
है और आँखों की बत्ती गुल हो जाया करती है। जी हाँ आपने
ठीक गेस किया, मैं उसी गब्बर सिंह की बात कर रहा हूँ जिनके
जीवन की रियल घटनाओं को लेकर सत्तर के दशक में फिल्म बनी
थी ‘शोले’। जिसकी पटकथा लिखी थी सलीम जावेद ने। जिसमें
गब्बर सिंह के किरदार को पर्दे पर जिया था स्व. अमजद खान
ने। फिल्म सुपर-डुपर हिट हुई। गब्बर सिंह का बोलना-चलना,
हँसना-रोना, उनकी एक-एक स्टाईल पर भारतीय दर्शक टूट पड़े थे
पर्दे पर। जी हाँ, मैं उसी गब्बर सिंह की बात कर रहा हूँ
जिसके डायलाग्स घर-घर, गली-गली उसी श्रद्धा-भाव से सुने
जाते थे जैसे कि तुलसी कृत रामचरित मानस। जी हाँ, मैं उसी
गब्बर सिंह की बात कर रहा हूँ जिसके पी॰ए॰ थे साम्भा और
जिनको त्यौहारों में सबसे प्रिय था होली। जो रामगढ़ का बिन
पगड़ी वाला सरदार था और जिन्होंने असरदार भूमिका निभाई समाज
को भयाक्रांत करने में। तो लीजिए साहब आपका ज्यादा वक़्त न
लेते हुए हम सीधे उन्हीं से मुख़ातिब होते हैं जो अभी-अभी
जेल से सज़ा काटकर बाहर निकले हैं और उनसे करते हैं हम
‘मेरी तेरी और उसकी बात’।
(टेलीविजन स्क्रीन पर एक मरियल सा, ढिकना, काला और बदसूरत
व्यक्ति खैनी रगड़ता हुआ प्रकट होता है। जिसे देखकर कहीं से
भी नहीं लगता है कि यही वो गब्बर है, जिस किरदार को अमजद
खान ने पर्दे पर निभाया था।)
"परम आदरणीय गब्बर सिंह जी ‘मेरी तेरी और उसकी बात’ में
आपका स्वागत है।"
(गब्बर सिंह खाँसते हुए, पतली आवाज में ) "भई आपका
बहुत-बहुत शुक्रिया!"
"परम आदरणीय गब्बर सिंह जी! आप पहली बार किसी टी॰वी॰ चैनल
में आ रहे है, कैसा लग रहा है?"
"जाहिर सी बात है कि अच्छा ही लग रहा है। भई आज तक किसी
चैनलवालों ने मेरी सूरत दिखाने की कोशिश नहीं की, भई आपने
जुर्रत की, इसलिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ।"
"गब्बर सिंह जी! आपसे पहला सवाल, आपकी जो कदकाठी है, आई
मीन जो आपका कायाकल्प है उसे देखकर तो नहीं लगता है कि आप
वही गब्बर हैं, जिस शख़्स को हमने ‘शोले’ के जरिये महसूस
किया था या यूँ कहें कि गब्बर सिंह का मतलब हम समझ रहे थे
कि बेहद खूँखार, डरावना, रोबदार और लम्बी-लम्बी दाढ़ी मूँछ
वाला, मगर आप तो बिल्कुल उसके उलट... आप मेरे कहने का
तात्पर्य समझ रहे न!"
"भई आपने सही फरमाया! बात दरअसल ये है कि रील लाईफ और रियल
लाईफ में अन्तर तो होता ही है। ‘शोले’ फिल्म में जिस गब्बर
को दिखाया गया, वो दरअसल सलीम और जावेद की लेखकीय कल्पना
थी किन्तु वास्तविकता बिल्कुल ही उससे उलट है।"
"तो क्या आप यह कहना चाहते है कि ‘शोले’ फिल्म में जिस
गब्बर सिंह के इर्द-गिर्द पूरी कहानी घूमती है, आप वो
गब्बर नहीं हैं ? आप रामगढ़ के निवासी नहीं हैं या फिर आपने
कोई गिरोह नहीं बनाया था जिसके सरदार आप थे और साँभा,
कालिया आदि आपके गिरोह के सदस्य नहीं थे?"
(गब्बर सिंह थोड़ा मुसकुराते हुए) "भई ऐसा है कि मैं ही वो
गब्बर सिंह हूँ जो कि रामगढ़ का निवासी है, जो कि उस ज़माने
में पूरे रामगढ़ में ठाकुर बलवन्त सिंह से भी ज़्यादा
पढा-लिखा था। ये बात अलग है कि ऊपरी सेटिंग की बजह से
ठाकुर साहब को पुलिस में नौकरी मिल गई और मैं ताउम्र
बेरोजगार रहा। ठाकुर साहब कम पढ़े-लिखे होने के बाबजूद भी
पुलिसया नौकरी और रुतबे से जरूरत से ज़्यादा गद्गद् हो
गये। उन्हें बहुत जल्द ही पद-प्रतिष्ठा पर गुमाँ हो गया।
उन्होंने रामगढ़ में जुल्म ढाने शुरू कर दिये। हमने उनकी
ख़िलाफ़त की। एक सामाजिक संस्था भी बनाई जिसमें साँभा और
कालिया आदि हमारे निष्ठावान कार्यकर्ता थे। पूरा रामगढ़ उस
वक्त हमारे साथ था। हमने निर्भीकता से कई दफ़ा ठाकुर साहब
के ख़िलाफ जन आन्दोलन भी किये। हमारी अदावत यही से शुरू
होती है।"
"लेकिन फिल्म ‘शोले’ में जो दर्शाया गया वो तो इससे उलट
है।"
"भई ऐसा हुआ कि उन दिनों जब मैं जेल में था तब सलीम-जावेद
हमसे मिले थे, उन्होंने कहा कि हम आपके जीवन पर फिल्म
बनाना चाहते हैं तो मैंने यह सोचकर अनुमति दे दी कि मेरी
लाइफ-स्टोरी से समाज को प्रेरणा मिलेगी, बच्चों को कुछ
सीखने को मिलेगा, किन्तु उन दोनों ने मुझे धोखा दिया। पूरी
कहानी ही बदल डाली। नायक को खलनायक और खलनायक को नायक बना
दिया। मेरी छवि ही बिगाड़ के रख दी।"
"अगर आप मानते हैं कि आप नायक हैं, निर्दोष हैं तो फिर आप
इतने दिनों तक जेल में क्यों थे?"
(थोड़ा-सा झेंपतें हुए फिर अचानक अपने आप को सँभाल कर) "भई
ऐसा है कि जेल जाने का मतलब गुनाहगार तो नहीं होता! जेल तो
गाँधी जी भी गये, सुभाष बाबू भी गये, नेहरु चाचा भी गये।
इसका मतलब ये सभी अपराधी तो नहीं! हाँ ये सब लोग देष की
आजादी के लिए गये और मैं रामगढ़ को पुलसिया जुल्म से आजाद
करने के लिए। (सहसा हँसते हुए) जो पकड़ा गया वो चोर है, बच
गया वो सयाना।"
"मगर सवाल यह है कि ठाकुर साहब किस तरह से जुल्म ढाते थे।
ये आरोप सिर्फ आप लगा रहे हैं जबकि फिल्मी-कहानी के अनुसार
तो वे कानून के रक्षक थे, ईमानदार पुलिस अफसर थे, पूरा
रामगढ़ उनसे बेपनाह मुहब्बत करता था।"
(सहसा खैनी को होठों के बीच भींचते हुए) "भई ऐसा है कि आप
रील लाईफ की बात कर रहे हो और मैं रियल लाईफ की। कहना नहीं
चाहिए अब तो बेचारे इस दुनिया में नहीं रहे। असल में ठाकुर
साहब निहायत घटिया क़िस्म के आदमी थे। राह चलते हुए किसी की
भी बहू-बेटियों को छेड़ना, उनका शगल था। वे अपनी आदतों से
मजबूर थे। रामगढ़ के भोले-भाले काष्तकारों को शराब पिलाकर
उनकी खेती हड़प लेना ये उनका पैतृक धंधा था। जो बेचारे शराब
नहीं पीते थे। अँगूठा लगाने से मना कर देते थे। उन सब पर
पुलसिया हथकण्डे अपनाकर लूट, हत्या, बलात्कार के केस में
अन्दर ठूँस दिये जाते थे, जैसा कि उन्होंने मेरे साथ भी
किया। फिल्म ‘शोले’ में ठाकुर साहब की जितनी भी
जमीन-जायदाद दिखायी गई है, वह दरअसल हड़पी हुई है।"
"आपकी बातों से मुझे राजनीति की बू आ रही है। आप कहानी को
पूरा घुमा रहे हैं। जो किरदार रील लाईफ में ठाकुर साहब का
था रियल लाईफ में वो अपना बता रहे हैं। लगता है कि दाल में
कुछ काला है।"
गब्बर सिंह मन ही मन मुस्कुराते हुए - 'भई! आप लोग पत्रकार
हैं, लेखक हैं, जिसका चाहे चरित्र हनन कर दें। मैं तो वैसे
भी सलीम-जावेद की वजह से कहीं का न रहा। अब मैं जेल से
छूटा हूँ, वकीलों से चर्चा कर रहा हूँ, बहुत ही जल्द
सलीम-जावेद के खि़लाफ़ कानूनी कार्रवाई करूँगा। बात दरअसल
यह है कि पूरी कहानी बदली है मेरे नाम की बजह से। अब आप
कल्पना कीजिए कि गब्बर सिंह नाम का कोई पात्र क्या कभी
किसी हिन्दी फिल्मी-कथानक का नायक हो सकता है? सम्भवतः कभी
नहीं! दरअसल सिर्फ गब्बर सिंह नाम की वजह से ही सलीम-जावेद
ने मुझे विलेन के रुप में प्रस्तुत कर दिया। इसमें मेरी
क्या ग़लती है? किसी के नामकरण पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं
होता। मैं अपने माँ-बाप की करनी का फल भोग रहा हूँ।
सलीम-जावेद को लगा कि गब्बर सिंह नाम विलेन के रुप में खूब
जँचेगा सो उन्होंने कहानी ही बदल दी। खैर उनका
एक्सपिरिमेण्ट खूब फला, खूब पैसे कमाये रमेश सिप्पी ने,
मगर रायल्टी के नाम पर मुझे एक ढेला तक नहीं मिला।"
"एक बात समझ में नहीं आ रही है कि ठाकुर साहब जब इतने बुरे
आदमी थे तो फिर आपने उनका सिर्फ हाथ ही क्यों काटा, जान से
क्यों नहीं मार दिया?"
गब्बर सिंह मुहँ बिचकाते हुए- "राम राम! मैं और मार-पीट,
कभी नहीं! मैं तो कबीरदास का चेला हूँ और गाँधीजी का
अनुयायी। जैसे कबीरदास ने कलम-दवात हाथ नहीं लगाये वैसे ही
मैं भी ‘चाकू-छूरी छूयो नाहि, बन्दूक न लियो हाथ।’ जैसे कि
मैंने अभी-अभी बताया था ठाकुर साहब की कुछ गंदी आदतें थीं।
अपनी आदतों से परेशान ठाकुर साहब ने जब एक रात मौका देखकर
गाँव की एक विधवा की इज्ज़त पर हाथ डाल दिया और दूसरे दिन
विधवा औरत ने जब पंचों के सामने अपनी आपबीती सुनायी तब
पंचों के फ़रमान से ठाकुर के "फाँसी के फंदों वाले हाथों को
हमेशा के लिए उनके शरीर से अलग कर दिया गया, हाँ इस काम
में हमारे संगठन के नौजवानों ने मदद जरूर की थी।"
"लेकिन जय को तो आपके आदमियों ने मारा था।"
"देखिये यह बिल्कुल असत्य है। हमने कभी भी हिंसा से काम
नहीं लिया। हम ठाकुर साहब का विरोध गाँधीजी की तरह
अहिंसात्मक रूप में करते थे। हमारा तो मानना ही यही है कि
पाप से घृणा करो पापी से नहीं। जहाँ तक जय भैया की बात है,
उनका मर्डर तो ठाकुर साहब ने ही करवाया था।"
"ठाकुर साहब ने, मगर क्यों?"
"देखिये हमारा तो मानना है कि आदमी के साथ आदमी की बुराई
भी चली जाती है। अब ठाकुर साहब तो रहे नहीं, उनकी शान में
क्या कसीदे पढ़ें। मगर आप लेखकीय संवर्ग वाले बिना उगलवाये
कहाँ मानेंगे। सो बतलाता हूँ, जैसा कि मैंने कहा था कि
ठाकुर साहब बहुत दुष्ट और पाजी के साथ-साथ दकियानूसी
विचारों के भी थे। जैसे ही उन्हें पता चला कि उनकी
बाल-विधवा पुत्रवधू के साथ जय भैया का प्रेम-प्रसंग चल रहा
है वैसे ही उन्होंने जय भैया को मरवा दिया। ठाकुर साहब
गाँव भर की बहू-बेटियों को छेड़ते थे मगर कोई उनकी
बहू-बेटियों को ताके ये उन्हें मंजूर नहीं था। बेचारे जय
भैया, बहुत ही नेक इंसान थे। गाँव के समस्त विधवाओं के
प्रति उनके मन में सम्मान था। उनका तो दिल ही कुछ ऐसा था।
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।"
"मगर कालिया और अपने अन्य साथियों को तो आपने अपने हाथों
से मारा था।"
"देखिये हुजुर! मैंने पहले भी फरमाया कि मैं कबीरदास का
चेला हूँ और गाँधीजी का अनुयायी। ‘चाकू-छूरी छूयो नाहि,
बन्दूक न लियो हाथ।’ दूसरी बात यह है कि भला मैं अपने
साथियों को क्यों मारता? उन्हें तो ठाकुर साहब ने मरवाया
था।"
"आखिर ठाकुर साहब और आपके बीच रंजिश के मूल कारण क्या थे
?"
"जैसे कि हर लड़ाई के पीछे तीन ही कारण होते हैं- जर, जोरू
और जमीन। ठाकुर साहब ने हमारी और गाँव के अन्य भोले-भाले
किसानों की जमीन तो पहले ही हड़प ली थी। अब वो आये दिन गाँव
की औरतों को हड़पने की फ़िराक में रहते थे। यहीं से हमारी और
उनकी दुश्मनी हो चली। हालाँकि मेरे मन में उनके प्रति कोई
कटुता नहीं थी। हमारा तो मानना ही था कि पाप से घृणा करो
पापी से नहीं।"
"आप ठाकुर साहब पर आरोप लगाते हैं कि वे महिलाओं का शोषण
किया करते थे जबकि सच्चाई यह है कि बसन्ती को आपके आदमी
उठाकर लाते हैं और आप महाशय जबरदस्ती बन्दूक की नोक के
नीचे उस मजबूर महिला को नाचने के लिए बाध्य करते हैं। क्या
इस संबंध में हमारे दर्शकों के सामने कुछ रोशनी डालना
चाहेंगे ?"
"देखिये आज आया हूँ तो पूरी घटना पर रोशनी डालकर ही
जाऊँगा। बात दरअसल यह है कि बसंती हमारे गाँव की सबसे
होनहार लड़की थी। बसन्ती हँसमुख भी थी और दिल से बिन्दास
भी। वह जितनी सुंदर थी उतनी ही वाकपटु। पूरा गाँव उस पर
जान छिडकता था। बच्चे, बूढ़े और जवान सब उसके करीब आने के
लिए आह भरते थे। बसन्ती की जितनी सुन्दर काया थी उतनी ही
कुशल और आकर्षक नृतका भी थी वो। गाँव के त्योहारों में
शादी-ब्याह में और सांस्कृतिक कार्यक्रम में उसका नृत्य
आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था। इसी तरह के एक कार्यक्रम
में उसने ‘जब तक है जाँ जाने जहाँ’ गीत पर डांस किया था
जिसमें मैं मुख्य अतिथि था। बस इससे ज़्यादा और कुछ नहीं।
(सहसा जोर जोर से हँसते हुए) लोग-बाग तो तिल का ताड़ बनाते
हैं सलीम-जावेद ने तो तिल का पूरा पहाड़ ही बना दिया।"
"मगर मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही है कि जब आपकी तरफ से
कोई ख़तरा नहीं था तो फिर ठाकुर साहब जय और वीरू को गाँव
में क्यों लेकर आये थे?"
"देखिये इसके पीछे भी वही जर, जोरू और जमीन की कहानी है।
जब ठाकुर साहब के दोनों हाथ कट गये और विभाग ने भी उन्हें
रिटायर कर दिया, तब उन्हें अपना सम्राज्य ढहता हुआ नज़र आने
लगा। ऐसे वक़्त पर उन्हें जेल में कैद संगीन धाराओं के
आरोपी जय और वीरू की याद आई। चूँकि जय और वीरु शार्प शूटर
थे और पैसे के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते थे। सहसा
ठाकुर साहब ने उनके जरिये फिर से गाँव में दहशत फैलाने की
कोशिश की। आपने फिल्म में देखा होगा कि ठाकुर साहब की इस
कदम का गाँववालों ने विरोध भी किया था। सभी लोग इकठ्ठे
होकर जय और वीरू को गाँव से बाहर निकालने के लिय राजी हो
गये थे। मगर ऐन वक्त पर इमामसाहब ठाकुर के हाथों बिक गये।
जय और वीरू को गाँव में लाने की दूसरी वजह बसन्ती है।
चूँकि अब तक ठाकुर साहब ने जिसे चाहा हासिल किया किन्तु
बसन्ती ही गाँव की एकमात्र ऐसी लड़की थी जो कि ठाकुर के
चंगुल में नहीं आई। इसके पीछे मुख्य वजह मैं ही था। मैं ही
बसन्ती की ठाकुर से रक्षा किया करता था। मेरी बजह से ठाकुर
साहब अपने इरादों में कामायाब नहीं हो पा रहे थे। मैं
बसन्ती को अपनी बहन की तरह मानता था। इसी से क्षुब्ध होकर
ठाकुर साहब ने मुझे मरवाने के लिए जय और वीरू को गाँव में
आने का न्यौता दिया। मगर ठाकुर की किस्मत की बानगी देखिये।
ठाकुर साहब ने जिस हथियार का प्रयोग बसन्ती को पाने के लिए
किया, वही हथियार मेरा मतलब है कि वीरू बसन्ती को लेकर
चंपत हो गया।"
"न जाने क्यों मुझे आपकी बातों से सियायत की बू आ रही है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि आप जेल से आजाद होने के बाद राजनीति
में जाना चाह रहे हैं?"
गब्बर सिंह ने अपने आपको सम्भालते हुए जबाब देना प्रारम्भ
किया। "देखिये आपने सही पकड़ा, जब इस देश में राजनेता
अपराधी हो सकते हैं तो फिर अपराधी राजनेता क्यों नहीं हो
सकते? वैसे भी जब दस्युरानी फूलन को राजनीति में आने का
मौका मिला तो मुझे मिलने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती
है? चूँकि मैं इस देश का सबसे बड़ा खलनायक हूँ, इसीलिए मेरा
आइडिया थोड़ा चेंज। मैं किसी और की पार्टी जॉइन करने नहीं
जा रहा हूँ बल्कि अपनी खुद की पार्टी बनाने जा रहा हूँ।
अगर हमारी पार्टी सत्ता में आती है तो मैं तो सर्वोच्च पद
पर बैठूँगा किन्तु सूचना और प्रसारण मंत्री होंगे हमारे
प्रिय चेला साम्भा।"
"शायद आपको जानकारी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने सज़ायाफ़्ता
मुजरिमों पर चुनाव लड़ने से पाबन्दी लगा दी है।"
"देखिये, अव्वल तो यह है कि इस देश की सरकार जनहित में
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को संसद में बदल देगी और अगर न भी
बदले तो की फर्क पेंदा। प्रधानमंत्री बनना मेरी
महत्वकांक्षा नहीं है, महत्वकांक्षा है तो किंगमेकर बनने
की। हमारे देश में प्रधानमंत्री संवैधानिक रूप से बड़ा पद
हो सकता है किन्तु वास्तव में किंगमेकर सबसे बड़ा है। वो
जिसे चाहे अपनी ऊँगली से नचाये। एकदफ़ा हमारी पार्टी की
सरकार बनने तो दीजिए फिर देखिये पाकिस्तान और सलीम-जावेद
की किस तरह से खबर लेता हूँ। बस आप मीडिया वालों का
आशीर्वाद चाहिए। सत्ययुग में नारद के बिना और कलियुग में
मीडिया के बिना किसी का फला है, जो मेरा फलेगा?" |