हास्य व्यंग्य

छपती का नाम कहानी
हरीश नवल


उस दिन मेरे एक फिल्म निर्माता मित्र मिल गए और बोले कि अति गंभीर फिल्म बना रहा हूँ जैसे कि वर्षों पहले बनी थी, पुरानी फिल्म थी ’चलती का नाम गाड़ी।‘ मेरी फिल्म का नाम होगा ’छपती का नाम कहानी।‘ मेरे अनुरोध पर जो स्टोरी उन्होंने मुझे सुनाई, वही मैं आपको सुना रहा हूँ।

’....तीन भाई हैं। बड़े भैया धर्मवीर भारती, मझले कमलेश्वर और छोटे हैं राजेन्द्र यादव। बड़े भैया बहुत गंभीर स्वभाव के हैं। उनका अतीत एक ‘अंधायुग’ है जब ’कनुप्रिया‘ से उन्हें प्यार था। ‘बंद गली के आखिरी मकान’ में रहने वाली प्रिया से अकारण बातचीत तक भी बंद हो गई थी, गुनाह जाने किसका था, पर यों समझो कि बड़े भैया ‘गुनाहों के देवता’ थे।

बड़े भैया एक जबरदस्त कथा-मैकेनिक हैं, उन्होंने अपने दोनों भाइयों के साथ मिलकर एक रिपेयर गैराज खोला, दोनों भाई भी कथा में हर दाँव-पेच से वाकिफ हैं।

मझले भैया यूँ तो ‘कस्बे का आदमी’ हैं, पर ’राजा निरबंसिया‘ से कम नहीं हैं। वे जिस कालोनी में मटरगश्ती करते रहे हैं, वहाँ ‘एक सड़क सत्तावन गलियाँ हैं, ‘माँस का दरिया’ बहता है और वे ‘काली आँधी हो साफ मौसम’ गाते रहते हैं, उनके गाए गीत दुष्यंतकुमार के हैं।

गाते तो छोटे भैया भी हैं, पर टूटी तान से ‘अनदेखे अनजाने पल’ उनके जेहन में रहते हैं। वे कहाँ नहीं जाते ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ समझो कि वे तो ‘हंस’ हैं, अपने ही मानस में घूमते रहते हैं।

तीनों भाइयों के पास एक खटारा गाड़ी है, जो पुरानी थी पर तीनों ने साथ मिलकर उसे नई बना लिया और उसमें घूमते-डोलते रहते हैं।

अब आ जाओ मेन थीम पर। एक रात बड़ी बरसात होती है। तीनों भाई गैराज बंद कर कंबलों में दुबके होते हैं। मझले भैया को सदा की भाँति नींद नहीं आ रही होती है, तभी बाहर किसी नारी के कोमल स्वर की ध्वनि होती है, वे उठ बैठते हैं और गैराज खोलते हैं, क्या देखते हैं कि सामने एक मदमस्त नवयौवना सिर पर घूँघट अपनी फाइल लिए आती है। यह हमारी फिल्म की नायिका होगी, यह हमने सिंबोलिक पात्र यानी प्रतीक रखा है, जिसका नाम बेबी नकहा है, जिसके पीछे कालांतर में समाक आंदो नामक खलनायक पड़ता है।

बेबी नकहा बेहद खूबसूरत है, भोली-भाली है, भीगी-भीगी-सी और भी प्यारी लगती है, जिसे देखकर मझले भैया के दिल का जलतरंग बजने लगता है। हाँ, यह बताना भूल गया कि उसने घूँघट हटा दिया था, जब वह गैराज में प्रवेश कर गई थी।

नायिका मझले से कहती है, ’बड़े भैया को बुला दो, मुझे रिपेयर करानी है, मैं ठीक से चल नहीं पा रही, यहीं गैराज में बैठ जाती हूँ।‘ मझले भैया ने कहा, ’बड़े भैया को सोने दो, यूँ रात में किसी का आना उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। मैं भी अच्छा रिपेयरर हूँ। आओ, स्कैनिंग कर लें, फाल्ट देख लें, तभी आँधी-तूफान आ जाता है, सोंग सिचुएशन बनती है और मझले गा उठते हैं, ’इक लड़की ढीली-ढाली-सी, मिली इस मैकेनिक से, कोई आगे न पीछे तुम ही कहो कि कोई बात है ... हूँ ... वाँ वाँ वाँ वाँ वाँ वाँ वाँ वाँ वाँ ...

उपचार के बाद मझले भैया बतौर फीस पाँच रुपये बारह आने माँगते हैं। नायिका कहती है कि पुराने सिक्के बंद हो चुके, बारह आने की जगह पिचहत्तर नए पैसे ले लो, पर मझले मानते नहीं। नकहा कहती है, ‘कल घर आकर ले जाना’ और पता लिखा कार्ड हाथ में थमाकर गायब हो जाती है। पैसे न मिलने पर सारी रात सपने में मझले भैया गाते रहे-‘पहले दे दो पाँच रुपए बारह आना, मारेगा भैया ना ना ना’।

अगले दिन मझले भैया बेबी नकहा के घर जा धमकते हैं, नायिका के डैडी अपनी स्टडी लिख रहे होते हैं। डैडी का रोल नामवर सिंह निभाएँगे, ऐसा सोचा गया है। मझले भैया बिल देने के साथ-साथ दिल भी दे देते हैं, तनिक-सा दिल नकहा भी देती है, तभी डैडी के कदमों की आहट होती है। नायिका बताती है कि ‘डैडी बड़े सख्त आलोचक हैं, शक्की मिजाज हैं-उपमान, प्रतिमान सभी बायीं आँख से देखते हैं’।

यह सुनकर मझले, नायिका के साथ वहीं कहीं छिप जाते हैं, इस लुकाछिपी में वे और भी करीब आ जाते हैं। उनकी मैत्री गाढ़ी होती है। अब सीन आता है, छोटे भैया का, वे गाते हुए पूछते हैं, ‘तेरा हुआ अब मेरा क्या होगा ?’ कोई उत्तर ना पाकर वे मझले को कहते हैं, ‘भैया, मुझे भी ‘छोटे-छोटे ताजमहल’ बनाने हैं, आखिरकार ‘सारा आकाश’ तुम्हारा तो नहीं है’।

फिल्म के अंत तक नामवरसिंह नकहा की पर्याप्त आलोचना करने के बाद उसे कमलेश्वर को सौंप देते हैं, उधर धर्मवीर भारती पर्याप्त शक्ति-परीक्षण के बाद (वे पुराने युग के धाँसू मुक्केबाज होते हैं। सभी को परास्त कर ’धर्मयुग‘ में प्रवेश कर जाते हैं। छोटे भैया राजेंद्र यादव भी खुशियाँ हासिल करते हैं और अक्सर ’मन्नू-मन्नू‘ पुकारते गाते हैं।

तीनों भाई मिलकर गैराज का काम और नाम चमका देते हैं-दाम भी खूब मिलते हैं, कितने ही उत्साही सहायक मैकेनिक के रूप में काम पा जाते हैं, जिनके रोल निभाने के लिए सुदीप, जितेंद्र भाटिया, दूधनाथ सिंह मिथिलेश्वर आदि से बात की जा रही है।

फिल्म का अंत बड़ा मजेदार है। सभी की गाड़ियों को धता बताकर इन्हीं तीनों की खटारा गाड़ी अल्ट्रा मॉडर्न हो जाती है और सभी अखबारी सड़कों पर उसके टायर हमेशा टायर रहते हैं।

समापन अंश में एक बढ़िया गीत है, जो रामनाथ अवस्थी से वीरान के सहारे भीड़ में लिखवाया था, जो बड़े भैया को अत्यंत प्रिय है, ‘यहाँ/छपती को कहानी/कहते हैं प्यारे/लिख लिख/बाबू/समझो इशारे/पढ़ पढ़/रि बा बा बा बा बा बा री रि बाबा बा ....‘

निर्माता मित्र यद्यपि जल्दी में थे, पर मैंने दो सवाल पूछ ही लिए कि ‘नकहा’ नाम क्यों दिया नायिका को तथा खलनायक का नाम ‘समाक आंदो’ देसी नहीं है-क्यों?

निर्माता खड़े हो चुके थे, जाते-जाते बोले, ’प्यारे समझो इशारे, ‘नकहा’ का अर्थ नई कहानी तथा समाक आंदो है, तुम्हारा ही समांतर कथा आंदोलन, शेष कुछ याद आया, फोन करके पूछ लेना।‘
पर फोन नंबर तो दिया ही नहीं।

११ नवंबर २०१३