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हास्य व्यंग्य

सरकारी इकबाल कमाल है कमाल
-- मनोहर पुरी
 


‘‘अरे कनछेदी यह क्या हो रहा है, सरकारी इकबाल की तरह तुम्हारी तरकारी का इकबाल भी कहीं खो रहा है। कुछ अजब ही खिचड़ी पक रही है, कोई नहीं जानता कि किसकी दाल कहाँ खप रही है। जिसका जब मन होता है वह देगची में कड़छी चलाता है, कोई कोई तो कच्चे पकवान को चूल्हे से उतार जाता है। ‘‘पंजाबी शैफ’’ के हर पकवान में अड़ंगा अड़ाया जा रहा है, छोटे मोटे रसोइयों द्वारा बड़े बड़े खानसामाओं को नीचा दिखाया जा रहा है। कोई ‘चीफ शैफ’ की पगड़ी उछाल रहा है, तो कोई पूरी रसोई का ही हुलिया बिगाड़ रहा है। बड़े बुजुर्गों ने ठीक ही कहा है कि ढेर सारे रसोइये सारे खाने का सत्यानाश कर देते हैं, पकवानों की जगह दस्तरखान पर कच्ची पक्की खिचड़ी ही धर देते हैं। पहले घरों में एक ही चूल्हा जलता था, परिवार के मुखिया की एक आवाज में इकबाल पलता था। अब रसोई में गैस आ गई है और कई कई चूल्हों की चमक से इकबाल की रौशनी चौंधिया गई है। हर बर्नर पर अलग अलग रसोइया कुछ पका रहा है और अपना जायका दूसरे के पकवान में मिला रहा है। जिसमें शाकाहारी सब्जी पक रही होती है उसमें माँस वाली देगची का पलटा चला देता है। बिना किसी को बताए शाकाहारी को माँसाहारी बना देता है। वैसे भी धर्मनिपरपेक्ष रसोई है इसमें किसी भी धर्म के साथ भेदभाव नहीं होता है, केवल शाकाहारी वैष्णव ही सिर पकड़ कर रोता है।’’
 
‘‘क्या बताऊँ भैया यह रसोई ही अजब है, और इसका हर रसोइया भी गजब है। पंजाबी ‘शैफ’ घर की महारानी के लिए पास्ता बनाने की तैयारी कर रहे थे, उनके बच्चों के लिए ‘पीजा बेस’ पर एक से एक बढ़िया ‘टॉपिंग’ धर रहे थे। जानते थे कि ‘पीजा बेस’ पंजाब के सड़े गेहूँ के मैदे से बना था। खुले में पड़े इन गेहूँ की बोरियों पर कोई तंबू तक नहीं तना था। यह गेहूँ गोदामों के अभाव में वैसे ही सड़ गया था जैसे चुनावों में टिकट न मिलने पर नेताओं का इकबाल सड़ जाता है। जैसे सत्ता न मिलने पर एक छुट्टभैया भी बड़े से बड़े नेता से लड़ जाता है। ‘बेस’ पर पहला ‘टॉपिंग’ उत्तराखंड की उन सब्जियों का था जो सड़कों के अभाव में बाजार का मुँह तक नहीं देख पाती। पौधों पर झूमते हुए भी किसानों को नहीं भरमाती। दूसरा उत्तर प्रदेश के ‘चीज’ का था जो ‘सिंथैटिक’ दूध से बनाया जाता है, और जिसका खोया भी दिल्ली के हलवाइयों को बहुत भाता है। तीसरा मणीपुरी मशरूम का था जो अपने आप उग आती है जंगलों में उगाई नहीं जाती, इसीलिए राष्ट्रीय राजधानी के गलियारों में खाई नहीं जाती। सबसे ऊपर गोवा की फैनी की ड्रेसिंग करके उसे सजाया गया था, उससे बीच वाले ‘टॉपिंस’ को महकाया गया था। ‘चीफ शैफ’ को उम्मीद थी कि मालिक और उनके मेहमान इसे बहुत चाव से खाएँगे और अमरीकी फैशन की तर्ज पर अपने बच्चों के बच्चों के लिए ‘पैक’ करवा कर साथ ले जाएँगे।’’

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फिर क्या हुआ। सभी तो खाने को तैयार हो रहे थे, मालिक मेहमानों के साथ और भी बहुत से बिन बुलाए हकदारों के दावे ढो रहे थे।’’

‘‘होना क्या था। किसी बंगाली रसोइये ने उसका बंगाली झोल बना डाला, और उस पर मछली वाला मसाला छिड़क कर हिला डाला। मछली भात महारानी को भाता नहीं है, उनका कोई बच्चा भी देसी घटिया खाना खाता नहीं है। अभी बंगाली स्वाद का जादू सिर पर चढ़ कर बोला भी नहीं था कि दक्षिण का एक रसोइया आ गया, और उस खाने में श्रीलंका के तमिलों का स्वाद भी मिला गया। इतना ही नहीं जब उसे वह स्वाद भी पंसद नहीं आया तो उसने उसमें सांभर पाउडर मिलाया और इटली की डिश को इडली समझ कर पकाया। महारानी के मुँह का स्वाद बिगड़ा जा रहा है, उत्तर प्रदेश से थक हार कर लौटा भैया अब मुँह बना कर न्यूडल्स के स्थान पर डोसा वड़ा खा रहा है। रसोइया भी कम नहीं है वह रूठ कर रसोई से बाहर जा रहा है। जानता है कि इस विशाल रसोई पर उसका भी अधिकार है, पर उसके लिए इसमें एक कोने में जगह तक से इंकार है। उसका कहना है कि मुझे आज तक कोई मेहनताना मिला नहीं, दिल्ली की सड़कों तक पर उ
सका कोई शामियाना तना नहीं।’’

‘‘यह तो ठीक है एक एक शामियाने पर लाखों रुपये का खर्च आता है और ऐसा शामियाना दिल्ली में आए प्रवासियों को बहुत भाता है। यदि दूसरों को जगह मिली है तो एक कोठरी बंगाल वाले रसोइये को भी मिलनी चाहिए, उसकी हाँडी की सुंगध की कली भी दूसरों की भाँति खिल़नी चाहिये।’’
‘‘ठीक! मैं समझ गया। असल में यह अनेकता में एकता का कमाल है, अनेक केन्द्रों वाली इस रसोई की साँझी विरासत पर हर कोई निहाल है। फिर भी किसी न किसी को कुछ न कुछ एतराज है, इस रसोई पर आज भी मेहमानों का ही अधिकार है। आप जानते हैं कि हम मेहमानों का बहुत आदर करते हैं, जो कुछ भी पल्ले में होता है वह उनकी नजर करते हैं। आपको याद होगा हमने गोरों की रसोई के लिए मसाले भिजवाए थे, बदले में वहाँ से बन्दूकों की गोलियाँ और तोपों के गोले आए थे। दो सौ साल तक हम उनकी रसोई में माल भरते रहे, और हमारे बच्चे भूख से बिलख बिलख कर
मरते रहे। फिर भी हमने उफ तक नहीं किया, जैसा भी जीवन मिला वैसा ही जिया।’’

‘‘पर बाद में तो मसालों का व्यापार करने वाले गोरे अनूठा व्यवहार कर गए, और अपनी पूरी विरासत हमें मालोमाल कर गए। उन्हीं की कृपा से आज हम एक से अनेक होते जा रहे हैं, उनकी भाषा, संस्कृति और रीति रिवाजों के भंडार में अपनी रीति नीति सब कुछ खो रहे हैं। इस समय समस्या यह है कि यह गठबंधन की रसोई है, इसका एक ‘‘वली वारिस’’ भी कहाँ कोई है। पिछले दिनों जिसके जी में जो आ रहा था वह कह रहा था, अपनी खिचड़ी अलग ही पका रहा था। रसोइया तो क्या वेटर तक ‘चीफ शैफ’ को आँखें दिखा रहा था। हर एक को लगता था कि आखिर उसकी ही दाल गलेगी, जो खाना वह परोसेगा उसी से देश-प्रदेश के जन जीवन की रेल चलेगी। मुफ्त का खाने वालों ने उँगलियाँ तो चाटीं
अँगूठा चबा दिया, और अपने छुटके से भैया को पेट भर खिला कर साइकिल पर बिठा लिया।’’

‘‘गठबंधन की बात हर कोई कहाँ समझ पाता है, जो भी इसमें आता है केवल अपना ही जुगाड़ भिड़ाता है। यहाँ हर कोई अपना अपना चूल्हा जला रहा है और उस पर केवल अपनी ही हाँडी चढ़ा रहा है। भूल जाता है कि हाँडी पर चढ़ने वाला सामान इस देश की मिट्टी से आता है, पूरे राशन का एक ही घर से नाता है फिर भी अपनी ढफली और अपने ही राग की अलाप जारी है, एक दूसरे की बात तक समझना उनके संस्कारों पर भारी है। जानते हैं कि अन्त में तो खाना भी एक ही साथ परोसा जाएगा, जिसे सारे का सारा परिवार मिल जुल कर एक ही स्थान पर बैठ कर खाएगा। फिर भी एक दूसरे को पीठ दिखा रहे हैं, बात ६३ की करते हैं पर ३६ का आंकड़ा बना रहे हैं।’’
 
‘‘तुम जानते हो ऐसा हमेशा से होता है, बहती गंगा में हर कोई हाथ धोता है। पिछले दिनों तो कमाल हो गया, सारे घर का बुरा हाल हो गया। एक रसोइये ने खाने का बजट बनाया, और अपने स्वाद के अनुसार कुछ मसालों का अधिक छौंक लगाया। यह दाम उस रसोइये चुनने वाले अफसर तक को नहीं भाया, और उसने उस रसोइये को बाहर का रास्ता दिखाया। अब हर कोई जान गया कि जिसने हाँडी चढ़ाई थी उसने दाल नहीं पकाई, इसलिए उसका अलग ही स्वाद हो गया भाई। य
दि अधपकी दाल में से मसाले निकाले जाएँगे तो उस दाल को उँगली चाट चाट कर कैसे खाएँगे।

‘‘रसोइये ने तो साफ कह दिया था कि यह रसोई किसी एक की जागीर नहीं है, किसी एक के हाथ में इस की तकदीर नहीं है। रसोई को स्वाद बनाना है तो किसी सलीके से ही बनाना होगा, उसमें जरूरत का हर सामान ठीक मिकदार में पकाना होगा। उसकी बात नहीं मानी तो अब पछताओं, जैसी बनी है वैसी ही रसोई खाओ।’’

‘‘ मेरा कहना है कनछेदी कि यदि बात बात में एक के बाद एक रसोइये रूठ कर बाहर चले जाएँगे तो आने वाले महाभोज के लिए भोजन कैसे पकाएँगे। यदि सबको अपने लिए ही पकवान बनाने हैं तो चूल्हे अलग करने के तो कई बहाने हैं। जैसे गठबंधन की सरकार का इकबाल और ईमान नहीं होता, वैसे ही बँटी हुई रसोई का भी कोई तलबदार नहीं होता। यदि इसी तरह से हर रसोइया अपनी ही हेकड़ी चलाएगा, तो खुदा कसम इस रसोई का इकबाल तनिक भी नहीं बच पाएगा। मेरी एक प्रार्थना है कनछेदी जैसे भी हो इस रसोई का इकबाल सँभालो, और इस घर को बिखरने से बचा लो।’’

९ अप्रैल २०१२

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