‘हम भ्रष्ट हैं और हमें भ्रष्ट
होने का पूरा-पूरा अधिकार है’ – यह नारा लगाते हुए भ्रष्ट संघ ने भारत बंद का आवाहन
किया। चूँकि भ्रष्ट होना कोई पाप नहीं है और भारतीय भ्रष्टों ने पिछले कई सौ वर्षों
से भी अधिक समय से इसे सप्रमाण सिद्ध भी किया है, इस लिये हर क्षेत्र के भ्रष्टों
ने बंद में बढ़-चढ़कर भाग लिया। परिणामस्वरूप सारे सरकारी दफ़्तर बंद हो गये,
बाज़ार बंद हो गये, न्यायालय बंद हो गये, पुलिस थाने बंद हो गये, रेल गाड़ियाँ और
यात्रा के साधन बंद हो गये और यहाँ तक कि संसद भी बंद हो गई। भ्रष्टों के तर्क
मजबूत थे। उनके भारत बंद का आधार मजबूत था और सबसे बड़ी बात यह कि भ्रष्ट लोग मानव
हैं, जिनके मानवाधिकारों और उनके शांतिपूर्वक हड़ताल करने के अधिकारों की संविधान
भी रक्षा करता है, इस लिये पूरा भारत बंद हो गया। बचे केवल भ्रष्टाचार के विरुद्ध
आन्दोलन और अनशन करने वाले मुट्ठी भर ईमानदार लोग, जिनकी ईमानदारी शंका के घेरे में
आ रही थी तथा सरकार के थोड़े-से मन्त्री, जो इस बंद के समर्थक होते हुए भी
राष्ट्रीय कारणों से इसमें शामिल नहीं हो सकते थे।
कुछ वर्ष पहले भ्रष्टों ने जब अपनी यूनियन बनाई थी, तो सम्बन्धित क़ानूनों का
पूरा-पूरा पालन किया था और उसे सरकार के श्रम मन्त्रालय से मान्यता भी दिलवाई थी।
सरकार के मन्त्रियों ने भ्रष्टों के इस अखिल भारतीय भ्रष्ट संघ की पूरी-पूरी
मिन्नत-समाजत की और उन्हें रिश्वत देने की कोशिश भी की, लेकिन भ्रष्ट अपने भारत बंद
से टस-से-मस नहीं हुए। उनका कहना था रिश्वत तो हम रोज ही लेते हैं, इसमें नई बात
क्या है। सरकार हमारी सारी माँगों को माने और हमें रिश्वत के अलावा और भी बहुत कुछ
दे, तब हम बंद वापस लेने पर विचार कर सकते हैं।
अखिल भारतीय भ्रष्ट संघ की माँगें न तो नाजायज थीं और न ही गलत। वह केवल यही चाहता
था कि एक तो सरकार ऐसे सारे कानून रद्द कर दे, जो उन्हें भ्रष्ट होने पर अपराधी और
दंडनीय मानते हैं। दूसरे, वह भविष्य में जनलोकपाल या लोकपाल नियुक्त करने का कोई
प्रस्ताव पारित न करे। वह दंड संहिता को आमूल-चूल बदलकर यह स्वीकार करे कि भ्रष्ट
होना मानवीय स्वभाव का अंग है और हर कोई भ्रष्ट हो सकता है। शास्त्रों के अनुसार
मनुष्य तो जन्म से ही भ्रष्ट यानि गंदा होता है, इस लिये मनुष्य हज़ारों सालों से
भ्रष्ट रहे हैं और हमेशा होते आये हैं। रामायण और महाभारत को देख लीजिये। आपको
विभीषण और शकुनि मिल जायेंगे। लाक्षागृह बनाने वाले मिल जायेंगे। इतिहास में आम्भी
और जयचंद भी हुए हैं और मीर जाफर भी। अंग्रेज़ी की इस प्रसिद्ध कहावत का हवाला देते
हुए कि गलती करना मनुष्य की प्रकृति है, अखिल भारतीय भ्रष्ट संघ ने दावा किया कि
भ्रष्ट व्यक्ति दुश्चरित्र या पतित नहीं होता। मनुष्य अगर भ्रष्ट न हो, तो आज
दुनिया के सारे काम ठप्प हो जायेंगे, देशों के बीच चीज़ों का क्रय-विक्रय नहीं
होगा, शस्त्रास्त्र निर्माता देश अन्य देशों को कोई सामरिक सामग्री नहीं देंगे और
सारे लेन-देन बंद हो जायेंगे। यही नहीं, संसार की अर्थव्यवस्थाएँ समाप्त हो जाएँगी।
यह दलाली, दस्तूरी, सर्विस चार्जिज और कमीशन जैसी चीज़ें ही हैं, जो अर्थव्यवस्थाओं
को फूलने-फलने देती हैं। इन्हें अन्य देश भ्रष्टाचार की संज्ञा नहीं देते। तब जाने
क्यों, भारत जैसे पुरातन नैतिकता वाले देश ही देते जा रहे हैं। यह सब समाप्त होना
चाहिये, ताकि हम सीना तान कर पूरी ईमानदारी से कह सकें कि हम सच्चे और असली भ्रष्ट
हैं। इससे हमारा देश भी संसार की महाशक्ति बन सकेगा।
भारत बंध के दौरान अखिल भारतीय भ्रष्ट संघ ने एक और ऐतिहासिक घटना का हवाला दिया कि
कैसे एक बार सम्राट् अकबर ने भी दलाली को भ्रष्टाचार मानते हुए इसपर प्रतिबन्ध
लगाने की गलती की थी, जिससे उनका युवराज सलीम यानि जहाँगीर तक बिक गया था। हुआ यह
था कि सम्राट अकबर के किसी मुँहलगे मुसाहिब ने उन्हें यह कह दिया कि जहाँपनाह,
सामान बेचने वालों और सामान खरीदने वालों के बीच दलाल तो कुछ भी नही करते और पूँजी
निवेश तक नहीं करते, लेकिन दलाली लेते हैं चोखी। उनका किसी भी सौदे में कोई नुक्सान
नहीं होता, लेकिन मुनाफा जरूर होता है। सम्राट् अकबर को यह बात सही लगी, इस लिये
उन्होंने दलाली पर प्रतिबंध लगा दिया। हालांकि बीरबल ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह
दी थी, लेकिन ज़िल्ले सुभानी नहीं माने। नतीजा यह हुआ कि अकबर के राज्य में दलाल
भूखे मरने लगे। आख़िर वे अपने अत्यन्त अनुभवी और रिटायर्ड मुखिया के पास गये।
मुखिया ने उनकी तकलीफों पर गौर करते हुए उन्हें आश्वासन दिया कि आप निशाख़ातिर
रहें। मैं बादशाह सलामत को मनवा कर छोडूँगा कि दलाली बेईमानी नहीं है, इस लिये वे
अपने इस प्रतिबंध को हटा लें।
मुखिया ने महारानी जोधाबाई का नमक खाया था। उसने उनके दरबार में फरियाद की, लेकिन
बड़ी चतुराई के साथ। उसने महारानी से कहा – आपके इकलौते पुत्र और लाखों
पीरों-फक़ीरों की दुआओं से प्राप्त हुए युवराज सलीम की जान खतरे में है।
यह सुनकर महारानी जोधाबाई की तो जान ही निकल गई। वे मुखिया से इसका उपाय पूछने
लगीं।
तब मुखिया ने उन्हें सलाह दी कि वे सलीम को बेच दें, क्योंकि लोग मानते हैं अगर
संकटग्रस्त सन्तान को किसी दूसरे को बेच दिया जाये, तो उसपर आई बला टल जाती है।
महारानी जोधाबाई ने फिर भी शंका जताई और मुखिया से सवाल किया कि भला युवराज को
खरीदेगा कौन ?
स्वयं सम्राट अकबर – मुखिया ने उत्तर दिया।
लेकिन उन्हें इस काम के लिये राज़ी कौन करेगा – महारानी ने पूछा।
मैं करूँगा। आप यह काम मुझे सौंप दें – मुखिया ने कहा।
और मेरे लाल की कीमत ? जोधाबाई ने एक और जायज सवाल किया।
क़ीमत होगी पूरी अकबरी सल्तनत – मुखिया के पास जवाब तैयार था।
महारानी जोधाबाई सलीम को बादशाह अकबर को बेचने को तैयार हो गईं। घर की बात थी। न
सलीम को किसी गैर को देना था, न ही महलों से बाहर निकालना या अपने से जुदा करना था।
महारानी को राज़ी करने के बाद दलालों के मुखिया ने सम्राट् अकबर के सलाहकार और परम
प्रिय नवरत्न बीरबल का द्वार खटखटाया। बीरबल पहले ही बादशाह सलामत द्वारा लगाये
प्रतिबंध का विरोधी था। उसने मुखिया की बात मानकर सम्राट् अकबर को यह कहकर मना लिया
कि अगर इस मामूली से सौदे से युवराज पर आया संकट टल जाये, तो उसे बेचने में हर्ज ही
क्या है। आख़िर महारानी अपने पुत्र को महाराज को ही तो बेच रही हैं, जो कोई गैर
नहीं, स्वयं युवराज का बाप है।
सम्राट अकबर मान गये और उन्होंने जोधाबाई को पूरी सल्तनत देकर खरीद लिया। महारानी
जोधाबाई ने मुखिया को मालामाल कर दिया। उधर बीरबल ने बादशाह सलामत को यह मानने के
लिये मजबूर कर दिया कि देख लीजिये, दलाल कितने चतुर और बुद्धिमान होते हैं, जो
चाहें तो युवराज और पूरी सल्तनत तक को बेचने का सौदा भी करा सकते हैं। सम्राट् अकबर
के लिये अपने प्रतिबंध को समाप्त करना लाजमी हो गया।
अखिल भारतीय भ्रष्ट संघ ने यह ऐतिहासिक उदाहरण देकर सरकार को ऐसा कायल किया कि उसे
उसकी माँगें माननी पड़ीं और उसने भ्रष्टों को वचन दिया कि हम न केवल भारतीय दंड
संहिता को बदल देंगे, बल्कि जन लोकपाल और लोकपाल का प्रस्ताव भी संसद में हरगिज
पारित नहीं करेंगे। |