वे पोर्टफोलियो थामे, पूरी सजधज
के साथ लाबी में इस तरह से जड़ीभूत थे जैसे बोल्ट से ठुँके हों। कोई कुर्ता-धोती
में, कोई शेरवानी-चूड़ीदार में, कोई सफारी सूट में, कोई कोट-पैन्ट-टाई में। सभी के
चेहरे पर परीक्षार्थी जैसी तनावपूर्ण गम्भीरता। यहाँ एक भूतपूर्व आलोचक भी विद्यमान
थे जिन्होंने एक पुस्तक लिखकर आलोचना को सादर प्रणाम कर लिया था और अब
उद्घाटन-लोकार्पण-अध्यक्षता के आकाश को नापने में अपने को जमा-रमा-खपा लिया था।
बताने की ज़रूरत नहीं कि जब यह सब करते थे, तो आनुशंगिक कर्म यानी राजनीति तो करते
ही थे। एक सम्पादक भी बैठे थे जिन्होंने छिछली कहानियाँ छापकर, देह-विमर्ष को
उभारकर और विवादास्पद-अन्तर्विरोधी सम्पादकीय लिखकर पत्रिका का सरक्युलेशन बढ़ाया
था। वह अपने को राजनीति से दूर बताते थे, पर यह भी उनकी राजनीति का हिस्सा था। एक
लेखक भाषणकला में सिद्धहस्त थे और ‘शार्टसप्लाई’ में रहते थे क्योंकि जिस कवि या
कथाकार के कार्यक्रम में जाते थे, उसे ही सर्वश्रेष्ठ घोषित कर देते थे। वह आलोचक
भी बैठे थे जो उ.उ.आ.क. के पेटेन्टधारक थे। जिस कहानी पर चाहते, उ.उ.आ.क. की मुहर
लगा देते थे, जिस कहानी को न चाहते, वंचित कर देते थे। उ.उ.आ.क. यानी
उत्तर-उत्तर-आधुनिक कहानी। कुल मिलाकर क़िस्म-क़िस्म के खुर्राट विराजमान थे। पर
इनमें एक साम्य था। वे राज करना चाहते थे, शिखर पर बैठना चाहते थे ---
बदनामी की अपनी-अपनी पाचनक्षमता तक जाकर भी।
भगवान् विष्णु ने सबसे पहले संवेदन जी को बुलाया। संवेदन जी ने कक्ष का द्वार खोला
और नमित सिर, करबद्ध मुद्रा में अभिवादन कर कुर्सी पर बैठ गए।
विष्णु जी ने सवाल किया, ‘‘क्या आप ‘बार्टर सिस्टम’ में विश्वास रखते हैं?’’
‘‘हे हरि, क्या मतलब?’’ संवेदन जी हक्का-बक्का हो गए।
‘‘अरे भई, क्या लेन-देन में विश्वास करते हैं यानी अपने प्रकाशन-संस्थान से किसी
उच्च पदाधिकारी की घटिया पुस्तक छापकर बदले में उसके सौजन्य से लखटकिया पुरस्कार
झटका है?’’
‘‘नहीं, पुरुषोत्तम।’’ संवेदन जी ने ज़ोरों से मुण्डी हिलाई।
‘‘क्या अपनी पुराकालीन प्रेमिका की पुराकालीन कहानियों का घटिया कहानी-संग्रह
प्रकाशित कर पुराकालीन प्रेम की पुराकालीन बुझी राख में चिंगारी पैदा करने की कोशिश
की है?’’
संवेदन जी हतप्रभ। थूक निगलते हुए बोले, ‘‘पद्मनाभ, एक ठो पुराकालीन प्रेमिका है
तो, पर वह कलमघसीटी नहीं करती। इसलिए उसे कैसे ‘ओब्लाइज’ करता?’’
‘‘तो क्या हुआ? जो प्रेमिका कहानी-कविता नहीं लिखती, उसे कहानीकार-कवि बना देना ही
असल चुनौती है। ख़ैर, यह तो बताइए क्या आपने अपने पूर्वाधिकारी द्वारा अस्वीकृत
कविता-संग्रह का नाम बदलकर छापने की सीनाजोरी की है?’’
‘‘नहीं श्रीधर, जो पुस्तक एक बार अस्वीकृत हो
गई, उसे पुनः वही प्रकाशन-संस्थान कैसे प्रकाशित कर सकता है?’’ स्वर में दृढ़ता थी।
‘‘क्यों नहीं कर सकता? बस थोड़ा-सा दुस्साहस चाहिए। क्या आपने सुनियोजित तरीके़ से
अपनी पत्रिका में किसी प्रतिष्ठित आलोचक से अपने उदीयमान चमचों पर लेख लिखवाया है
और अगले अंक में उन चमचों से उस प्रतिष्ठित आलोचक की धुनाई करवाई है या इसी से
मिलते-जुलते मल्लयुद्ध का आयोजन किया है?’’
‘‘नहीं श्रीवत्सवक्ष, ऐसी दाँवबाजी नहीं की है।’’
‘‘अच्छा, क्या आपने लेखकों के साक्षात्कार में अपनी ओर से कुछ विवादास्पद शब्द
डालकर और बाद में इस कुकृत्य से मुकर कर उनकी फ़ज़ीहत करवाई है?’’ विष्णु जी ने
टी.वी. ऐंकर के अन्दाज़ में धौंसियाते हुए कहा।
‘‘नहीं जगन्नाथ, गिरा तो हूँ, पर इतना नहीं।’’ संवेदन जी ने हाथ जोड़ दिये।
‘‘क्या आपने शेखचिल्ली के क़िस्से जैसी, झूठ के तड़केयुक्त आत्मकथा लिखी है जिसे पढ़कर
लगे कि आप जीवन भर हास्यपरक और हास्यास्पद स्थितियों के अतिसार से ग्रस्त रहे?’’
‘‘नहीं चतुर्भुज, ऐसा तो नहीं कर सका।’’
विष्णु जी ने त्योरियाँ तान दीं, ‘‘तब क्या साहित्यिक-जगत में सिर्फ़ मक्खी मार रहे
हैं?’’
संवेदन जी इस अचानक आक्रमण से अवाक रह गए और थूक निगलने लगे।
कहीं ग़श न आ जाए, इस नाते विष्णु जी ने उनका मनोबल उठाने की कोशिश की, ‘‘वत्स,
‘नर्वस’ लग रहे हो। एक गिलास पानी गटक लो। क्या विटामिन की गोली मँगवाऊँ?’’
‘‘नहीं पद्मपाणि, पानी से काम चल जाएगा।’’
संवेदन जी ने पानी गटका।
थोड़ी देर बाद साक्षात्कार फिर शुरू हुआ,
‘‘अच्छा बताओ, क्या तुम्हारी पत्रिका में आरक्षण-व्यवस्था लागू है?’’
वह चौंके, ‘‘कैसा आरक्षण, नारायण?’’
‘‘क्या तुम्हारी पत्रिका दोस्तों, चाटुकारों और झूठे प्रशंसकों के लिए आरक्षित रहती
है?’’
‘‘जनार्दन झूठ न बोलावे। मैं इस वर्ग की कुछ रचनाएँ छापता ज़रूर हूँ, पर अन्य लेखकों
का भी खुले दिल से स्वागत करता हूँ।’’
‘‘क्या आपने पत्रिका को गृह-उद्योग का रूप देते हुए अपनी और पत्नी, पुत्रों-बहुओं,
पुत्रियों-दामादों आदि पारिवारिकजनों की रचनाएँ छापी हैं?’’
‘‘नहीं कौस्तुभविभूशित, मैं इस सीमा तक निर्लज्ज नहीं हूँ।’’
‘‘क्या आप अपने संस्थान के पैसे से युवा, सुन्दर लेखिकाओं को पंचसितारा होटल में
दावत देते हैं और अन्य लेखकों को --- जिसमें वरिष्ठ लेखक भी शामिल हैं --- सूखी चाय
या ‘कुछ नहीं’ पर टालते हैं?’’
‘‘नहीं कमलनयन, ऐसा तो नहीं करता। आयु-लिंग का भेद किए बिना लेखकों को चाय या काफी
पिलाता हूँ।’’
‘‘यही तो मुष्किल है आपके साथ कि ‘पिक ऐन्ड चूज़ पालिसी’ नहीं अपनाते। अच्छा बताइए
कि आपने अपने ऊपर ऐसे विशेषांक प्रायोजित
करवाए हैं जिसमें स्वार्थी मित्रों और चाटुकार शिष्यों ने आपकी झूठी,
अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा की हो?’’
‘‘नहीं केशव, ऐसा तो नहीं कर सका। हाँ, अपने ऊपर छुटपुट लेख ज़रूर छपवाए हैं जिनमें
प्रशंसा के वाइरस उपलब्ध हैं।’’ लगा वह ‘कन्फेशन बाक्स’ में ईष्वर को हाज़िर-नाज़िर
मानकर सफ़ाई दे रहे हैं।
भगवान विष्णु ने अगला सवाल दागा, ‘‘क्या आपने सस्ती लोकप्रियता पाने और सरक्युलेशन
बढ़ाने के इरादे से महाझूठ, महाधोखा, महाखिलंदड़ापन, महाचाटुकारिता, महाईर्श्या जैसे
नकारात्मक विशयों पर महाविशेषांक प्रकाशित किये हैं?’’
‘‘नहीं पीताम्बर, इस सीमा तक नहीं गिरा हूँ। महत्वपूर्ण विषयों और गम्भीर समस्याओं
का अकाल तो है नहीं जो ऐसे विशयों के जंगल में भटकने लगूँ।’’ उन्होंने सफ़ाई दी।
‘‘अच्छा, क्या आप ‘बल्क सेल’ में केवल दोस्तों, समर्थकों और चाटुकारों की ही
पुस्तकें भेजते हैं और महत्वपूर्ण लेखकों तक
की पुस्तकें ‘कोल्ड स्टोरेज’ में बन्द किये रहते हैं?’’
‘‘नहीं लक्ष्मीपति, ऐसा तो नहीं कर पाया।’’ चेहरे पर असमर्थता तैर आई।
‘‘ये बताइये, आपने कितने चाटुकारों को लेखक बनाया और कितने लेखकों को चाटुकार
बनाया?’’
‘‘माधव, ये काम तो मैंने किये नहीं।’’
‘‘तब तो वाक़ई तुमसे हमदर्दी है।’’
‘‘क्या आप राजधानी में आने से पहले अपने गृहनगर में नित्यकर्म की तरह स्कूटर से
लेखकों के घर या दफ़्तर के चक्कर लगाया करते थे और जमालो की तरह चुगली करते हुए
उनमें महाभारत करवाने में जुट जाया करते थे?’’
‘‘शेषशायी, आपसे झूठ नहीं बोलूँगा।
‘ऐड्वेन्चर’ के तौर पर दो बार ऐसा किया था, पर इसे धन्धे के तौर पर कभी नहीं
अपनाया।’’
‘‘अच्छा सही-सही बताइए कि आप संगोष्ठी-समारोह में लोगों के साथ अपशब्दों के प्रयोग
या अभद्र व्यवहार के कारण कितने बार पिटे हैं?’’ विष्णु जी ने अपेक्षाकृत ऊँचे स्वर
में पूछा।
‘‘एक बार भी नहीं, गरुड़वाहन। मैं पीकर इस सीमा
तक होश नहीं खोता।’’
विष्णु जी ने अगला सवाल दागा, ‘‘क्या आपने नियमों की अनदेखी करते हुए अपने संस्थान
के किसी कर्मचारी को संस्थान द्वारा आयोजित कथा-प्रतियोगिता में पुरस्कृत करवाया
है?’’
संवेदन जी ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं बलिध्वंसी, मैं इतना दुस्साहसी नहीं। ऐसी
प्रतियोगिता में तो मेरे संस्थान का कोई कर्मचारी भाग तक नहीं ले सकता।’’
‘‘अपने गृह-जनपद में निहायत मामूली ‘टेब्लायड’ प्रकाशित करने का आपका इतिहास रहा
है। इस पृष्ठभूमि के बावजूद क्या आपने किसी स्तरीय साहित्यिक पत्रिका को दो कौड़ी का
बताया है?’’
‘‘नहीं गदाधर, ऐसी हिमाकत नहीं कर सकता।’’ संवेदन जी ने हाथ जोड़ दिये।
‘‘जिनसे आपका पंगा रह चुका हो, स्वार्थ निकलने पर उन्हें पटाने के लिए क्या आप अपनी
पत्नी या बेटे को नियोजित करते हैं जो संबंधित व्यक्ति से इस शैली में लाड़ जताते
हों उनके मन में कुछ नहीं रहता... उनका दिल मोम से भी नरम है... ऊपर से भले ही
बेइज़्जत किया हो, पर अन्दर से आपको पसन्द करते हैं... अजी उनकी गालियों को
गम्भीरता से मत लो, उस समय वह लगाए हुए थे...
परसों आपकी याद आई, तो बिलख-बिलखकर रोने लगे...।’’
‘‘नहीं सुदर्शनचक्रधारी, मैं स्वार्थ साधने के लिए ‘संबंध सुधारो अभियान’ नहीं
चलाता। ऐसे काम में पारिवारिकजनों को लगाने का तो सवाल ही नहीं उठता।’’ संवेदन जी
ने कानों की लवों का उसी तरह स्पर्श किया जैसे संगीतकार अपने गुरु का नाम लेते समय
करते हैं।
‘‘आप अपनी प्रकाशन-संस्था के चेयरमैन का कैसे अभिवादन करते हैं?’’ विष्णु जी के
ओठों पर मुस्कुराहट थी।
‘‘अच्युत, जैसे करना चाहिए यानी हाथ जोड़कर कर नमस्कार करता हूँ।’’ यह कहते हुए
संवेदन जी ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया।
‘‘उनके पैर नहीं छूते?’’
‘‘नहीं त्रिविक्रम, पैर-घुटने नहीं छूता।’’
‘‘तभी ऐसी गति है।’’ भगवान् विष्णु ने साक्षात्कार का समापन किया, ‘‘आप अपने को भले
‘धूर्तराज’ समझते हैं, पर हैं नहीं। सॉरी, आप
जा सकते हैं।’’
भगवान् विष्णु ने बाहर बैठे घाघ, से भी घाघ और अल्पघाघ सभी कोटि के अभ्यर्थियों को
एक-एक कर बुलाया और साक्षात्कार लिया।
साक्षात्कार ख़त्म होने के बाद भगवान् विष्णु स्वयं लॉबी में पधारे और बोले,
‘‘प्यारे प्रतिभागियो, आपमें से कोई भी इस योग्य नहीं पाया गया कि ‘धूर्तराज’ की
पदवी दी जा सके। दरअसल वर्तमान पदवीधारक नटवरकुमार हमारे मानक हैं। आप लोग उनके
पासंग भी नहीं है - उनका एक ही नियम है कि नियम बेकार होते हैं उनका पालन मत करो।
उनके शब्दकोश में आदर्श केवल एक ही स्थान पर वह भी आदर्शहीन में! सच तो यह है कि
हिन्दी साहित्यिक-जगत में एक-से-एक धूर्त हुए हैं, पर नटवरकुमार जैसा कोई नहीं हुआ।
वह सार्वकालिक, सर्वनिकृष्ट धूर्त हैं। अतः उन्हें ही सेवा-विस्तार दिया जाता है।
आपमें से किसी का चयन नहीं हुआ, इसका अफ़सोस है। पर इस अफ़सोस में इतनी रजतरेखा ज़रूर
है कि आने वाले समय में लोग गर्व करेंगे कि
आपने ‘धूर्तराज’ नटवरकुमार को देखा था! आप लोग जा सकते हैं --- शुभास्ते पंथानः!’’
भगवान् विष्णु गरुड़ पर आरूढ़ होकर उड़ चले। साक्षात्कारदाता भी अपने-अपने वाहन पर
आरूढ़ होकर चल दिये।
धूर्तराज नटवरकुमार को जब यह पता चला, तो बहुत ख़ुश हुए--‘‘आह, वाह, वल्लाह, कमाल
है! इस असार संसार में मेरे जैसा कोई नहीं!’’
जब शुरू में उन्हें यह पदवी मिली थी, तो बुद्धिमती पत्नी बहुत मायूस हुई थीं,
‘‘सांसद बनते, विधायक बनते, मंत्री बनते, तब तो कोई बात थी। ये क्या है ‘धूर्तराज’?
इससे तो बड़ी बदनामी होगी।’’
नटवर कुमार बोले थे, ‘‘डियर, यहीं मात खा जाती हो तुम। राजा बनना बहुत बड़ी बात है
--- भले ही वह नरक का हो या मूर्खों का या धूर्तों का...। ‘धूर्तराज’ बना, यह बहुत
बड़ी उपलब्धि है। इसी बहाने तुम्हें भी राजमहिशी बनने का सुअवसर मिला! ‘राज’ के पहले
क्या है, इसे भूल जाओ। सिर्फ़ ‘राज’ याद रखो, प्राणप्रिये!’’
पत्नी मुस्कुरा उठी थीं। अन्ततोगत्वा मुस्कुरा देना उनका स्वभाव था, उनका चरित्र
था, उनका इतिहास था...। |