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हास्य व्यंग्य


उसका पसंदीदा देश
अमिताभ ठाकुर


उसे वह देश बहुत ज्यादा पसंद था। वह इसे अपनी खुशकिस्मती मानता था कि वह उसी देश में पैदा हुआ था।

इसके पीछे बहुत सटीक कारण भी था। उस देश में पूरी आजादी थी और पूरा न्याय। खास कर के आजादी। हर चीज़ की आज़ादी और हर आदमी को आज़ादी। यहाँ तक कि हर संस्था, संगठन, इकाई को भी पूरी स्वतंत्रता। यानि कि जिसकी जो इच्छा हो वह बके। जिसे जो गरियाना हो गरियाये। जिसे जहां जिस रूप में बहकना हो बहके। इस तरह से आदमी के रूप में जन्म लेने पर जिस तरह की आजादी की संकल्पना कई बड़े-बड़े विद्वानों और मनीषियों ने की थी वह सारा का सारा उस देश में नज़र आ जाता था।

फिर केवल बोलने की ही आजादी नही थी। सब कुछ करने की भी आज़ादी थी। जी हाँ, जो मन हो कीजिये। सरेआम कत्ले-आम। हाँ भाई, कोई रोक-टोक नहीं। अकेले में मारें या सरे आम में- यह आदमी की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर था। किस हथियार से मारे, किस जगह पर मारे, किस तरह से मारे इन सारी बातों की उसे पूरी आज़ादी थी।

एक और अच्छी बात जो वहाँ थी वह यह कि वहाँ की समस्त शासकीय व्यवस्थाएँ भी पूरी तरह से आज़ादी की भावना से अनुप्राणित थी। अधिकारी आज़ाद, कर्मचारी आज़ाद। आज़ाद हर रूप में- इच्छा हुई काम किया, नहीं इच्छा हुई। इच्छा हुई तो फाईल रखा, इच्छा हुई फाईल उठा कर फेंक दिया। बड़ी आजाद व्यवस्था थी, बड़े आज़ाद ख्याल थे। मन हुआ देश की बातें की, मन हुआ तो आज़ादी का नारा देने लगे। और ऊपर से कहते थे यह सब सुदूर स्थित भारत देश की महान विभूति महात्मा गाँधी के ही सिद्धांतों के अनुपालन में हो रहा है। उन लोगों का मानना था कि वे गाँधी की “रामराज्य” की भावना से पूरी तरह प्रभावित और अनुप्राणित थे और वास्तव में उस महापुरुष के उपकृत थे जिन्होंने ऐसा दिव्य-दर्शन प्रदान किया जिसे हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी समझ के अनुसार और अपनी-अपनी जरूरतों के अनुरूप उपयोग कर सकता था और लगातार करता भी रहता था।

एक अद्भुत देश जिसका मूल वाक्य था-“देर है पर अंधेर नहीं”। अतः लगातार जल्दीबाजी की कच-कच को उस देश में पसंद नहीं किया जाता था। बल्कि जो ज्यादा जल्दी में होता उसे जल्दी-जल्दी ऊपर भेज दिया जाता ताकि उसकी जल्दी की इच्छा एक ही बार में पूरी कर दी जाए।

एक और बात उस देश में बहुत अच्छी थी कि वहाँ के एक बड़े समुदाय को वहाँ की न्यायपालिका पर भीषण आस्था थी। इस आस्था के कारण भी थे। वहाँ की न्यायपालिका इस मत की थी कि उसके दरवाज़े पर आना तो आने वाले की मर्ज़ी पर है, पर जाना पूरी तरह न्यायपालिका के हाथों में। बल्कि “अतिथि देवो भव” की भावना से अनुप्राणित वे लोग जल्दी किसी मुवक्किल को छोड़ते भी नहीं थे जब तक या तो वह स्वाभाविक रूप से दम तोड़ थे या किसी बहाने उसका विपक्षी ही हथियार डाल दे। हाँ, गुस्सा वहाँ की न्यायपालिका को जरूर बहुत आता था- जल्दी-जल्दी आता था, कई बार तो एक दिन में कई बार आता था। और एक बार जब वे क्रोधित हुए तो पुराने मनीषियों की तरह ताबड़-तोड़ उस देश के और विदेशों के धर्म-शास्त्रों, विधि-शास्त्रों, काम-शास्त्रों, दर्शन-शास्त्रों और ना जाने कहाँ-कहाँ से बातें खोज कर बस लिखने ही लग जाते जिससे मूल मुद्दा तो वहीं का वहीं रह जाता और बड़ी-बड़ी दार्शनिक विवेचनाएँ शुरू हो जातीं। फिर जब मन हुआ अपने देश की कार्यपालिका को गरियाया, कभी विधायिका को फटकारा और कभी-कभी मूड में आ गया तो अपने नीचे की न्यायपालिका पर भी चढ़ बैठे।

लेकिन ये चढ़ने-उतरने की आदत उस देश में सबों की थी। सब सब से नाराज़ थे। नेता अधिकारियों से, अधिकारी अपने नीचे के अधिकारियों से, नीचे के अधिकारी जनता से, जनता नेता से, मीडिया इन सब से, ये सब लोग मीडिया से। न्यायपालिका मीडिया से भी और बाकी सब से भी।

एक और बात जो उस देश को विशिष्टता देती थी वह थी उसकी त्वरित निर्णय-क्षमता। कोई बात हुई नहीं की जाँच। तुरंत आदेश, आनन-फानन में आदेश। कभी-कभी तो इतनी तत्परता रहती कि गडबडी बाद में होती, जाँच के आदेश पहले हो जाते। इसके मूल में बस एक भावना रहती, रहीम की वह बानी जो एक सुदूर मुल्क से चल कर आई थी-“काल करे सो आज कर, आज करे सो अभी।”

बहुत ही अच्छा देश था वह, बहुत ही बेमिसाल। सभी आज़ाद, सभी स्वतंत्र। फिर यदि बाक़ी की चीजो का अभाव भी था तो क्या, जिंदगी चल ही तो रही थी। उस इंसान की एक ही तमन्ना थी कि यदि कई बार भी जन्म लेना पड़े तो वह उसी देश में जन्म ले। अब बाकी कहीं उसका गुज़ारा हो पाता भला।

६ नवंबर २०१०

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