सोच रहा हूँ ऑफिस आने जाने के लिए
एक रिक्शा खरीद ही लूँ। स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा और अतिरिक्त आय की संभावना भी
बनेगी। मेरे जैसा वेतनभोगी के लिए दुतरफे लाभ को ध्यान में रखना ज़रूरी है। जब तक
दुपहिया वाहन था तब तक सबको नि:शुल्क ही लाता-लेजाता रहा हूँ। बाद में जब हेलमेट की
अनिवार्यता हो गई तब एक अतिरिक्त हेलमेट भी साथ रखता था। दो पहियों के बाद सीधे एक
सैकेंड हैंड कार खरीदने का जुगाड़ कर लिया और उसमें सीएनजी किट लगवा ली। वो भी तीन
साल खूब दौड़ाई सिर्फ आफिस से घर या घर से आफिस तक ही नहीं। उसमें आगरा, रोहतक,
रिवाड़ी, पानीपत, ग्रेटर नोएडा तक घूम फिर कर आता रहा और लोगों को मुफ़्त ढोता रहा।
बाद में लोन लेकर एक नई इंडिका ले ली, उसमें भी लिफ्ट फ्री में ही देता हूँ
क्यों कि उसमें तो हेलमेट की भी जरूरत नहीं होती।
जब पुरानी कार बेच दी थी और नई
नहीं ली थी उस अवधि में, क्योंकि अपना पुराना स्कूटर भी प्रयोग में न आने के कारण
बेच चुका था, साईकिल के विषय में सोचा था परन्तु साइकिल चालकों की होती दुर्गति को
देख हिम्मत नहीं कर पाया। वैसे भी जब मैं अपने पास से गुज़रती कारों और मोटर
साइकिलों के बजबजाते हॉर्न सुनता हूँ तो यकबयक गुजर जाने का अहसास होने लगता है और
मैं भीतर तक सहम जाता हूँ। इस सहमने की प्रक्रिया से बचने के लिए मुझे रिक्शा ही
सबसे उपयुक्त सवारी मालूम होता है।
जब से दिल्ली उच्च न्यायालय ने कल
ट्रैफिक पुलिस को गैर लाइसेंसी रिक्शा चालकों को राजधानी से हटाने संबंधी एक याचिका
पर फटकार लगाई है सोच रहा हूँ कि एक रिक्शा मैं भी खरीद लूँ। अभी तक दिल्ली पुलिस
ने रिक्शों के पंजीकरण पर रोक लगा रखी थी उनका कहना है कि रिक्शों से सड़कों पर
यातायात जाम होता है अतः उनकी संख्या सीमित रहनी चाहिए इस पर फटकार लगाते हुए
न्यायालय ने कहा है कि जब सड़कों पर चलनेवाले वाहनों की संख्या पर कोई रोक नहीं है
तो फिर रिक्शों के लिए लाइसेंस जारी करने पर पाबंदी क्यों है। मैं भी माननीय
न्यायालय के इस जनहितकारी रवैये से पूरी तरह सहमति रखता हूँ। आप इंसानों की बढ़ती
संख्या तो रोक नहीं पा रहे हैं पर रिक्शों को सड़कों पर चलने से रोकना चाहते हैं।
जब वाहनों का जाम लगना ही है तो रिक्शों को क्यों दलित मानकर उन्हें हटाने की
मानसिकता बन रही है या बनाई जा रही है। जाम का पूरा मजा उठाना ही आधुनिकता में
पुरातन की जुगलबंदी है।
रिक्शा चलाने पर कम से कम यह तो
होगा कि जो बैठेगा वह किराया देगा। कार और स्कूटर चालक के सम्मान पर किराया लेने से
ठेस पहुँचने की संभावना बनती है परन्तु रिक्शा चालक को किराया देने और उसके लेने पर
ऐसी कोई संभावना नहीं होती। सम्मान होगा तब तो ठेस पहुँचेगी?
रिक्शे में न तो पेट्रोल का खर्च और न गैस का, फिर तो मुनाफा भी अच्छा रहेगा। कम से
कम नौकरी में मिलने वाले ओवरटाइम से तो अधिक ही मिल जाया करेगा और इसे सुबह घर से
जल्दी निकल कर और देर से लौटकर और भी अधिक बढ़ाया जा सकता है। मतलब यह कि अगर मेहनत
करूँगा तो लक्ष्मी अवश्य ही विनत होंगी। (आयकर विभाग इस पर कर लगाने के बारे में न
ध्यान दे तो साहस करूँ?)
रिक्शों के चलने से पर्यावरण को
अगर फायदा नहीं होता है तो नुकसान भी नहीं होता है। वैसे मैं यहाँ पर यह भी स्पष्ट
कर दूँ कि रिक्शा चलाना कोई आसान काम नहीं है, वो बात अलग है कि इनके चलाने के लिए
ड्राईविंग लाईसेंस की अनिवार्यता अभी तक नहीं है परन्तु जनता और पुलिस दोनों के
द्वारा रिक्शाचालकों के साथ रोज़ की जाती बदसलूकी जरूर इस धंधे को अपनाने में एक
बहुत बड़ी बाधा है। पब्लिक दस की जगह दो रुपये देकर ही काम चलाना चाहती है और पुलिस
देना तो दूर, जो मिलता है उसमें भी हथियाने को तैयार रहती है बल्कि हथिया लेती है।
पुलिस की डंडाक्रेसी (डेमोक्रेसी की तर्ज पर) से पीडि़त रिक्शाचालक टू-व्हीलर,
थ्री-व्हीलर, फोर-व्हीलर और सिक्स व्हीलर की हिकारत भरी नजरों से भी यहाँ वहाँ जब
तब घायल होते ही रहते हैं।
लेकिन मुझे लगता है कि अब जब उच्च
न्यायालय जाग गया है तो अन्य विभाग भी कब तक सोते रहेंगे, वे रिक्शों पर दो से अधिक
सवारी बैठाने पर चालान या रिक्शा जब्ती इत्यादि के नियमों को सही करके ही मानेंगे।
यह सब सुधार आएँगे इसका मुझे विश्वास तो है लेकिन कब आएँगे इसका पता तो कोई भी नहीं
लगा सकता। कभी कभी मुझे डर भी लगता है रिक्शा चलाने के बाद मुझे कहीं आम रिक्शाचालक
की तरह पीडित न होना पड़े। तो आपको क्या लगता है कि मुझे रिक्शा खरीद लेना चाहिए अब
या...?
८ मार्च २०१० |