पश्चिमी आँधी ऐसी चली कि गाँव में
लगने वाले स्वदेशी हाट धीरे-धीरे मेलों में बदले और अब देखते ही देखते ये मेले मॉल
का रूप ले रहे हैं। मेरे शहर में भी आजकल एक विशेष जाति की गंध पसरी हुई है यह गंध
शहर के नवनिर्मित शॉपिंग मॉलों से निकल रही है। आदमी, औरत, बच्चे, बूढ़े सभी
कस्तूरी मृग से मगन इसे सूँघते हुए मॉल के अंदर घूम रहे हैं। पहले शहर में एक मॉल
खुला फिर खुलते चले गए, लोग भी पहले एक में घुसे फिर बाकियों में भी घुसते चले गए।
शॉपिंग मॉल की कुछ विशेषताएँ होती है जो लोगों को बेहद आकर्षित करती है। इसमें
घूमने-फिरने हेतु पर्याप्त स्थान होता है, पार्किंग शुल्क नहीं होता है, ये
वातानुकूलित होते हैं तथा अति महत्त्वपूर्ण यह कि वस्तु खरीदना कतई जरूरी नहीं होता
है। शहरवासियों को फोकट में बोरियत भगाने का इससे बेहतर संसाधन कहाँ मिल सकता है।
मॉल अर्थात् आधुनिकता का नवीनतम लबादा पहना हुआ मेला।
मॉल हर दृष्टिकोण से मालामाल होता है यहाँ सब्जी
खरीदने से लेकर फिल्म देखने तक का इंतजाम होता है। मॉल चाहे पाश्चात्य सभ्यता से
प्रेरित हो उसमें जाने वाला तो अपना देशी आदमी ही है। मॉल में घुसते ही वह मॉल की
संस्कृति (?) में ढलने का प्रयास करने लगता है तथा शनै:शनै: अपनी सहजता को खोने
लगता है। भीड़ के भय से वो अपना बटुआ तो नहीं गिरने देता पर उसकी सहज़ता मॉल के
बाहर गिर जाती है और उसे पता भी नहीं चलता। अपने इस असामान्य व्यवहार में मॉल के
भीतर हर व्यक्ति यह बताने का प्रयास करता है कि वो यहाँ अनेकों बार आता-जाता रहता
है तथा इस ''संस्कृति'' को खूब जानता है।
मॉल में खाने हेतु कुछ विशेष प्रकार से रेस्टोरेंट
होते हैं। अमूमन यहाँ खाने हेतु जो भी मिलता है वो सामान्य रूप से घरों में न तो
बनाया जाता है और न ही खाया जाता है। पिज्जा खाना मॉल में जाने-घुमने की अघोषित
शर्त के समान होती है। जिनके बाप-दादाओं ने न कभी पिज्ज़ा देखा हो या खाया हो वे
अत्यन्त असहजता के साथ सहज पिज्जा को ऐसे देखते हैं मानो प्लेट में भूचाल आ गया हो।
जिन लोगों ने समोसे, कचौरी और आलू बड़े के स्वाद की व्याख्या और इन पर बहस -
मूबाहिसों में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया हो वे पिज्जा के गुणों-अवगुणों पर
चर्चा करने में अपने को सबसे पिछली कतार में खड़ा पाते हैं। अनेक अवसरों पर तो
रेस्टोरेंट में दिए जाने वाले मैन्यू में लिखे नाम लोगों की सामान्य समझ से ही बाहर
होते हैं पर जब सवाल पैसे चुकाने से जुड़ा हो तो व्यक्ति अपने आत्म सम्मान को
क्षणिक रूप से खूँटी पर टाँगकर पूछ ही लेता है कि इस आईटम में आखिर मिलेगा क्या और
कितने लोग खा सकेंगे ? मॉल में बने रेस्तरां आमतौर पर वे स्थान हैं जहाँ खाने वाला
स्वयं को बिना बात के गर्वित महसूस करता है यह अलग बात है कि अधिकांश लोग बाद में
यह समीक्षा करते पाए जाते हैं कि अगली बार यदि मॉल में चले तो घर से खा-पीकर ही
चलेंगे। मॉल में सब्जी-भाजी
भी मिलती है पर वो आनंद नहीं है जो भाजी वाले की मधुर आवाज ''कोथमीर ले लो, प्याज
ले लो . . . . में है।'' यहाँ तो सब सामान रखा है और उसके ऊपर दाम भी लिखे हुए हैं।
जब तक गिलकी-लौकी खरीदने में १-२ रूपये का मोलभाव न हो सब्जी खरीदने का सकून ही
नहीं है। नमक के बिना सब्जी खाई जा सकती है परन्तु मोलभाव के बिना सब्जी खरीद ही
नहीं जा सकती है ये अपने संस्कृति के ही विरूद्ध है। मॉल में सबसे ज्यादा बिक्री
कपड़ों की होती है परन्तु बात वही अपनी परम्परा और आदत की है। जब तक दुकानदार के
सामने पड़े सफेद चादर बिछे गद्दे पर बैठकर कपड़ों को न देखा जाए ऐसा लगता ही नहीं
कि कपड़े खरीदने आए हैं और मॉल में सारे कपड़े दाम समेत प्रदर्शित रहते हैं न किसी
की मान मनुहार न उधारी का सिस्टम ऐसे में कोई कैसे खरीदी कर सकता है। मॉल में अदद
स्थान सिनेमा देखने के लिए भी होता है। सरसरी तौर पर यह पता लगाना कठिन होता है कि
कौन सी फिल्म दिखाई जा रही है, कहाँ टिकट लेना है और किस दरवाज़े से अंदर
जाना। पर मेरे शहर के लोग सब कुछ सीख गए है पूछताछ कर लेते हैं और सिनेमा देखकर ही
घर वापस आते हैं।
मॉल से मिलने वाली सामग्री आम तौर पर खरीदने वाले को खरीदने का आत्मविश्वास नहीं दे
पाती यदि यहाँ पर इस बात की अनिवार्यता हो कि जो घुसेगा उसे खरीदना पड़ेगा तो शायद
५० लोग भी इस मॉल संस्कृति का रसास्वादन न करें परन्तु जब तक इस प्रकार की बात नहीं
है तो उसमें घुसने में बुराई ही क्या है चलो फिर आज एक मॉल का उद्घाटन है चक्कर लगा
आते हैं।
२४ मई २०१० |