हास्य व्यंग्य | |
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किस्सा कहावतों
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होता दर असल ये था कि जब भी हम कहावतों के बारे में सोचते तो वही दो चार घिसी पिटी कहावतें जेहन में उभरा करतीं - जैसे कि धोबी का कुत्ता घर का न घाट का, दिल्ली दूर है, आँख के अंधे, नाम नयनसुख, नौ दो ग्यारह होना या फिर न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी वगैरा वगैरा। इन मुहावरों का तड़का जब भी हम किसी रचना में लगाते तो नतीजा होता ढाक के वही तीन पात। जिस ज़ायके की हम उम्मीद किया करते, वह न आ पाता। लगता था कि जैसे कहावतें लुट-पिट चुकी हैं, उनमें जो धार, जो तासीर हुआ करती थी, वह रफूचक्कर हो चुकी है। हमें यह भी लगता कि जैसे वह घड़ी आ पहुँची है- जब जीर्ण-शीर्ण कहावतें त्याग कर नई कहावतें धारण की जाती हैं। मगर नई कहावतें आएँ कहाँ से? वे कोई खालाजान के घर में तो रखी न थीं कि गए और निकाल लाए। दिमाग के मरियल गधे-घोड़े चारों तरफ़ दौड़ाए। आखिर ध्यान आया अपने बचपन के दोस्त वेदपाठी का। हमें तो फ्रेश कहावतों की ज़रूरत
थी ही। सोचा -वेदपाठी जी के कहावत भंडार से कुछ नायाब मोती चुग लिए जाएँ। इसी बहाने
ज़रा देख भी लें कि कौन-कौन से गुल खिलाएँ हैं उन्होने कहावतों के खेत में। वेदपाठी
जी के भवन पर उनसे मिलते ही हमने पूछ लिया, ''महाराज, रचनाओं में थोक के भाव
कहावतें डालता हूँ, पर स्वाद नहीं आता। लगता है मसालों की तरह कहावतों का स्वाद भी
जाता रहा। सुना है, आप आजकल नई कहावतें रच रहे हैं।'' फिर वे मुस्करा कर बोले, इस
कहावत का ताल्लुक सीधा दिमाग़ से है। जब दिमाग़ का दही होने लगे, तो समझ जाइये कि अकल
के कुत्ते फेल हो गए।'' वेदपाठी जी बोले, ''एक और कहावत
है- रूट की सभी लाइनें अस्त होना। मतलब कि कहीं से भी उधारी मिलने की उम्मीद न
होना।'' बच्चों के मुखारविंद से ऐसी नायाब कहावतें सुन, हमारे सब संदेह मिट गए। लायक पिताओं की नालायक संतानें ही अब तक हमने देखी थीं। ये पहला मौका था जब हमें जीनियस पिता की सुपर जीनियस औलादों का पुण्य दर्शन हो रहा था। हमने काकली का सिर सहलाते हुए कहा, ''चाय रहने दे बेटी, ये तो घर में भी पी लूँगा। बस मेरे पास बैठ कर कुछ और कहावतें सुना दे।'' काकली चहकी, ''अरे वर्मा अंकल, जहाँ बाँस डूब चुके, वहाँ पोरियों की क्या गिनती! मैं तो कहती हूँ, ''न छीले कोई सौ तोरियाँ, बस एक कद्दू छील ले। पता नहीं कैसे थे वो लोग, जो मरा हाथी भी सवा लाख में भेड़ देते थे। एक हमारे पापा हैं। सारे डंगर मुफ़्त में लेने को तैयार हैं पर कोई दे तो। मीठा मीठा गड़प गड़प, कड़वा कड़वा थू थू। पीने को लपर लपर, उठाने को ना नुकर। है कोई हमारे पापा जैसा सच्चा गोभक्त? आखिरी साँस तक उन्होनें गोबर उठाने की कसम खाई है। उनका एक ही नारा है- 'तुम मुझे गोदान करो, मैं तुम्हें दूध बेचूँगा। जब तक सूरज चाँद रहेगा, गइया तेरा नाम रहेगा। देश भक्त तो आपने बतेरे देखे होंगे, पर हमारे पापा जैसा गुसाईं आपको न टकरा होगा। काकली बगैर अर्धविराम, पूर्णविराम, कौमा के दौड़ी जा रही थी। वेदपाठी जी का मुँह खुला था। सरपट दौड़ती बिटिया की कैंची-सी चलती जुबान को पलक झपकाए बगैर, निहारे जा रहे थे। खुशी की बिजलियाँ बीच-बीच में उनके चेहरे पर दमक उठतीं। उन्हें गर्व हो रहा था कि ऐसी होनहार कन्या के वह पिताश्री हैं। हम कहावतों के इस अथाह सागर में डूबकर अपनी पसंद के मोती चुनने लगे। इससे पहले कि ये मोती हाथ से छूट जाएँ, याद से गिन गिन कर उनकी माला यहाँ पिरो दी है। ये हमारे लेखन में तो चार चाँद लगाएँगे ही पाठको का मनोरंजन भी करेंगे इसी शुभकामना के साथ इस साल का पहला लेख यहीं पूरा करता हूँ। |
४ जनवरी २०१० |