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हास्य व्यंग्य

मुझको भी तो जेल करा दे
शरद तैलंग


मेरी तीन प्रबल इच्छाएँ हैं। पहली यह कि मैं प्यानो बजाऊँ। दूसरी मैं अपनी पत्नी की कम से कम एक बार पिटाई करूँ और तीसरी कि मैं भी जेल जाऊँ। अब पहली इच्छा पूरी करने के लिए २० गुणा ५० का मकान पर्याप्त नहीं है उसके लिए तो एक शानदार महलनुमा बंगला चाहिए। बँगले के बहुत बड़े हाल में रखा हुआ प्यानो चाहिए। हाल में चक्कर लगाती हुई सुन्दर प्रेमिका और गुस्से में आग बबूला होता हुआ उसका बाप भी चाहिए फिर प्यानो बजाने में एक परेशानी यह थी कि उसे दोनों हाथों से बजाना होता है। मैनें अबतक सिर्फ हारमोनियम ही बजाया है और वह भी एक हाथ से यदि दोनों हाथों से बजाता तो हवा कौन भरता। हवा भरने पर ही बहुत-सी चीजें बजतीं हैं। मेरी पत्नी ने सलाह दी कि वह पैर फैलाकर बैठ जाएगी और मैं उसके पैरों पर दोनों हाथों से प्यानो बजाने का अभ्यास कर लूँ इससे मेरा अभ्यास ठीक हो जाएगा और उसके पैरों का दर्द। इन सभी में बहुत-सी झंझटें तथा खर्चा अधिक होने के कारण मुझे इस इच्छा को छोड़ना पड़ा।

दूसरी इच्छा जो पत्नी की पिटाई से ताल्लुक रखती थी उसके विषय में मुझे एकाएक महसूस हुआ कि इस प्रकार की इच्छा दूसरी ओर भी जन्म ले सकती है। आग दोनों तरफ लग सकती है। महिलायें भी पुरुष के समान अधिकार प्राप्त करने की दिशा में सक्रिय हैं। मैं अपनी इच्छा के कारण इतना बड़ा जोखिम उठाने को तैयार नहीं था अत: इस इच्छा का भी त्याग करना पड़ा।

मेरी तीसरी और अन्तिम इच्छा जेल जाने की अभी भी बलबती बनी हुई है। जेल जाने में आसानी यह है कि इसके लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं होती। समाज में दो ही स्थान ऐसे हैं जहाँ योग्यता का कोई महत्व नहीं है एक जेल तथा दूसरा संसद। किसी चारदीवारी के बाहर लड़ने झगड़ने पर जब आपको जिस चारदीवारी के अन्दर कर दिया जाता है उसे जेल कहते है पर जब किसी चारदीवारी के अन्दर लड़ने झगड़ने पर आपको बाहर निकाल दिया जाए वह जगह संसद कहलाती है। आप सोच रहे होंगे कि यह मुख्य विषय से दूर हट रहा है। एक अच्छे व्यंग लेख की यही विशेषता है।

जेल और राजनीति का तो चड्डी बनियान जैसा साथ है। अपने देश में कुछ लोग जेल चले जाते हैं तो कुछ राजनीति में। कुछ राजनीति में जाकर जेल चले जाते हैं तो अधिकांश जेल से राजनीति मे चले आ रहे हैं। हमारी आयात और निर्यात नीति बहुत अच्छी है।

जेलों के विषय में हमारी हिन्दी फिल्मों ने सबको इतना विशद अध्ययन करवा दिया है जितना स्वयं जेल के अधिकारी भी नहीं जानते होंगे फिर भी जेल के विषय में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध कराना अपना फर्ज समझता हूँ क्योंकि जिस जगह जाना है उसके इतिहास और भूगोल की जानकारी तो होनी ही चाहिए। इसका तात्पर्य यह नहीं हैं कि मुझे जेलों के बारे मैं बहुत ज्ञान है अधिकतर लोग किसी विषय में जानकारी न होने पर भी उस विषय पर बात कर लेते है। साहित्य और कविता के क्षैत्र में भी यही हो रहा है। जेल की जानकारी होने से भविष्य में वह आप के काम भी आ सकती है।

जेल की दीवारे हमेशा ऊँची और चौकोर पत्थरों की बनी होतीं हैं जिन पर सिमेन्ट का प्लास्तर नहीं होता। वैसे प्लास्तर होता तो है पर जेल की दीवारों पर नहीं कागजों पर होता है। प्रसिद्व व्यंगकार शरद जोशी के अनुसार ऊँची-ऊँची ये दीवारें कैदियों के सामने एक चुनौती के रूप में खड़ी होकर उन्हे हमेशा लाँघने के लिए एक प्रेरित करती रहतीं हैं। बिना प्लास्तर की दीवारें होने का एक लाभ यह है कि कैदी इस बात की आसानी से जाँच कर लेते है कि किस स्थान के पत्थर हटा कर आसानी से भागा जा सकता है। जेल के अधिकारियों को भी यह पता करने में सुविधा रहती है कि कैदी किस जगह के पत्थर हटा कर भागा। दोनों को फायदा है।

जेल को कुछ मनचले ससुराल की भी संज्ञा देते है क्योंकि वहॉ खाना पीना तथा ठहरना मुफ्त में होता है। मेरे अनुभवों के आधार पर आजकल जेल को ससुराल मानने से बेहतर है कि ससुराल को जेल समान माना जाए। सास ससुर के इस वाक्य में कि ''हमारे दामाद तो हमारे बेटे जैसे हैं'' के पीछे एक भयंकर षड़यंत्र छुपा होता है। इस ब्रह्यवाक्य का प्रयोग कर वे आपसे घर के अनेक छोटे मोटे कार्य जैसे उनको डॉक्टर को दिखाना उनकी दवा लाना या उनके किसी रिश्तेदारों को रेल या बस में बैठाना इत्यादि करवाते रहते हैं।

जेल में एक जेलर भी होता है जो न तो कालिया फिल्म के प्राण जैसा होता है न ही कर्मा के दिलीप कुमार जैसा और न ही अंग्रेजों के जमाने के जेलर असरानी जैसा। पहले के जेलरों को बडा खूँखार किस्म का माना जाता था किन्तु आज के जेलर कायर भी हो सकते है और शायर भी। ऐसे भी हो सकते है जिनके न मूँछ हो न दाढी और ऐसे भी जिनके बदन पर लिपटी हो साड़ी।

आजकल जेलों में जगह जगह सुधार कार्यक्रम आयोजित किए जाते है। जब हमने एक जेलर से पूछा कि ऐसे कार्यक्रमों से क्या कैदियों में कुछ सुधार होता है तो वे बोले ''आम कैदियों में तो होता है किन्तु ख़ास कैदियों के लिए तो हमें जेल में ही सुधार कराना पड़ता है। अब तो यही डर लगा रहता है कि इन ख़ास कैदियों की सज़ा पूरी करवाने में कहीं हमें ही सज़ा न भुगतनी पड़े।

ईश्वर करे आप को भी जेल जाने का अवसर मिले जिससे मेरे द्वारा उपलब्ध जानकारी का आप लाभ उठा सकें।

१९ अप्रैल २०१०

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