हास्य व्यंग्य | |
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डेंगू परिवार
जाली के उस पार |
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दूसरे प्रहर में अचानक मेरी नींद किसी के पुकारने की आवाज से खुली तो देखा कि खिड़की की मच्छर जाली पर एक मच्छर परिवार बदहवास-सा मुझे पुकार रहा है,''ताम्बट साहब, ओ ताम्बट साहब!'' मैंने झल्लाते हुए पूछा, ''क्या है! क्यों इतनी रात को नींद खराब कर रहे हो!'' मच्छर परिवार का मुखिया कातर आवाज में बोला, ''थोड़ी जाली खोल दो भाई साहब! मैंने कहा, ''बेवकूफ समझ कर रखा है क्या! तुम्हारी धींगा-मुश्ती बंद करने के लिए ही तो मैंने मच्छर जाली लगवाई है, अब खोल दूँ ताकि तुम मेरा और मेरे परिवार का जीना हराम कर दो...!'' मच्छर बोला, ''भाई साहब कसम खाकर
कहता हूँ जो किसी का खून पीया तो, आप कहो तो अपनी इस सुई में गठान लगा लेंगे, बाहर
ही निकालकर रख देंगे! हमें तो बस थोड़ा-सा पानी चाहिए रहने के लिए, किसी टंकी में
पड़े रहेंगे!'' मच्छरनी मेरे असहयोग और रुखे
व्यवहार से रुआँसी होती हुई बोली, ''बहन समझकर अन्दर आ जाने दो भैया, कसम खाकर कह
रहीं हूँ बाहर तो हमारा जीना हराम हो गया है। मुन्सीपाल्टी वाले कभी-कभी फॉग मशीन
लेकर निकल पड़ते हैं, दोयम दर्जे की उन मशीनों से खैर हमारा कुछ बिगड़ता नहीं लेकिन
नकली केमिकलों के उस फॉग से हमारे बच्चों को अस्थमा हो जाता है, खाँसी होने लगती
है। बताओ भैया जाएँ तो जाएँ कहाँ?'' मेरी इस बात पर उस मच्छर को गुस्सा आ गया, वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, ''खाली-पीली धौंस क्यों दे रहा हैं बे! तू क्या समझता है जाली नहीं खोलेगा तो क्या हम अन्दर ही नहीं आ सकते? एक मौका चाहिए बस! कचरा फैंकने के लिए तो खिड़की खोलेगा! जरा जगह मिली कि हम घुस जाएँगे अपना जुलूस लेकर। शाम को जब दफ्तर से लौटकर घर में घुसेगा तो तेरी खोपड़ी पर बैठकर अन्दर घुस जाएँगे तुझे पता तक नहीं चलेगा। अभी समझा रहे हैं तो समझ में नहीं आ रही तुझे!'' मुझे भी गुस्सा आ गया, मैंने कहा,
''अच्छा! रंगदारी करोगे तुम? तुम्हारी ये औकात?'' मच्छर ठठाकर हँसता हुआ बोला, ''हौ ऐसे बीड़ी के धुएँ से हम डरने लगे तो हो गया काम। नकली है सारा धुआँ नकली। सारी मशीनें घटिया हैं। अरे हम से ज़्यादा तुम्हारे भाई बंदों को हमारी फिक्र है। हमी मर जाएँगे इन थर्ड क्लास मशीनों और उनके धुएँ से तो दवा कंपनियाँ क्या भुट्टे भूनेंगी। तुम टुच्चे इंसानों को हमें खत्म करने से ज्यादा जिन्दा रखने में इन्ट्रेस्ट है, वर्ना सोचो, तुमने साले चाँद पर पानी ढूँढने में कामयाबी हासिल कर ली, तुम चंद मच्छरों को दुनिया से खत्म नहीं कर सकते, लानत है तुम पर। डूब मरो चूल्लू भर पानी में।'' मेरी ट्यूबलाइट अचानक दिपदिपाकर जलने लगी। बात तो सही कह रहा है कम्बख्त। हमने इतने परमाणु परीक्षण कर लिए, इतनी मिसाइलें बना लीं। दुनिया को खत्म करने के लिए आज हमारे पास पर्याप्त परमाणु असला है, हम मच्छर जैसी क्षुद्र प्रजाति को समूल नष्ट नहीं कर पा रहे, कमाल है! मच्छरों से फैलने वाली नई-नई बीमारियों के शोध और अनुसंधान पर जितना खर्च किया जाता है उतने से तो मच्छरों की जड़ की जड़ से खटियाखड़ी की जा सकती है। डेंगू, मलेरिया की दवाइयों से जितनी कमाई होती है, उसके एक छोटे से हिस्से से मच्छरों का सूपड़ा साफ किया जा सकता है। मगर!!! यही तो समस्या है! अगर यही काम हो गया तो जाने कितनों की कमाइयाँ बंद हो जाएँगी। आखिर कई लोग दूसरों की जान की कीमत पर जीने के लिए ही तो दुनिया में आते हैं जैसे खिड़की की मच्छर जाली पर बैठा वह डेंगू का मच्छर का परिवार। |
२२ फरवरी २०१० |