होली आती है तो रंग लेकर आती है
और जब रंग आते हैं बरसते भी खूब हैं। बहुत सारा मौज-मजा होता है। मौज मजे के लिए
रंगों के साथ बहुत से बाहरी ताम-झाम की भी जरूरत पड़ती है। सो एक गाना जो हर चौराहे,
गली-मोहल्ले, कोने-अतरे में बजता सुनाई देता है वह है- रंग बरसे भीगे चुनर वाली।
जहाँ रंग चल रहा था वहाँ भी चुनर
वाली भीग रही थी जहाँ सूखा पड़ा था वहाँ भी चुनर वाली भीग रही थी। लड़के जहाँ होली
खेल रहे थे वहाँ चुनर वाली भीग रही थ। लड़कियाँ जहाँ थीं वहाँ भी चुनर वाली। लोग
फ़्राक, सलवार, कुर्ता, साड़ी, पैंट-शर्ट में होली खेल रहे थे लेकिन प्रचार चुनर वाली
के भीगने का हो रहा था। पच्चीस साल से भीगते सुन रहे हैं चुनर वाली को। सही में कोई
इत्ता भीगता तो डबल निमोनिया हो गया होता अब तक! लेकिन लगता है कि चुनरवाली कोई
डाक्टर है। अगर ऐसा नहीं है तो उसका पिता या पति तो पक्का डाक्टर है वरना इतना
भीगने पर भी बार-बार भीगने की हिम्मत भला कोई साधारण महिला कर सकती है!
कभी-कभी मुझे यह भी लगता है कि जब
रंग बरस रहा है तो केवल चुनर वाली ही क्यों भीग रही है? बाकी लोग सूखे क्यों है?
क्या रंग बरसाने वाले बादल भी अब अपना काम पाइप लाइन के द्वारा करने लगे हैं? सीधे
लक्ष्य पर निशाना केवल चुनरवाली को भिगोना। लगता है चुनरवाली वीआईपी है। अकेले
भीगती है। वो भीगती रहती है गोरी का यार पान चबाता रहता है। पच्चीस साल से बेचारा
पान चबा रहा है। उसको पता ही नही होगा कि इस बीच कित्ते पान-मसाले आ गए हैं। पता तो
चुनरवाली को भी नहीं लगा होगा। उसको भीगने से फुरसत मिले तब तो पता चले।
ज़रा इस बात पर भी गौर कीजिए कि न
जाने कहाँ से चुनरवाली को इतनी फुरसत है कि भीगने के सिवा उसे कोई काम ही नहीं है।
होली के हफ़्ता भर पहले से भीगना शुरू कर देती है और दो दिन बाद तक भीगती रहती है।
और तो और दो होलियों के बीच भी यदा कदा बहुत बार इसके भीगने के चरचे सुनाई देते हैं
लाउडस्पीकर पर। मालूम नहीं कि उसकी उम्र क्या है, पढ़ती है, नौकरी करती है या
गृहलक्ष्मी है। लेकिन भई, कुछ भी उम्र हो, कुछ भी करती हो हैरानी मुझे यह सोचकर
होती है कि कौन-सा स्कूल कालेज ऐसा है, कौन-सा ऑफिस ऐसा है और कौन-सा परिवार ऐसा है
जिसमें इतनी फुरसत मिलती है कि कामधाम छोड़कर लगी है भीगने में। फुरसतिया होने के
बावजूद मुझे इसकी फुरसत से ईर्ष्या होने लगी है।
कभी-कभी यह भी महसूस होने लगता है
कि चुनरवाली सर्वव्यापी है। वह लखनऊ में है, कानपुर में है, बनारस में है और दिल्ली
में भी है। होना तो उसे मुंबई में भी चाहिए था लेकिन चुनरवाली यूपी की है या बिहार
की, हिंदी बोलती है या मराठी, यह जानने के बाद ही उसे वहाँ प्रवेश मिलने की संभावना
है। कुछ लोगों का कहना है कि चुनरवाली से मराठी मानुस को इतना प्रेम है कि यूपी
बिहार और महाराष्ट्र तथा हिंदी-मराठी के चक्कर से ऊपर उठकर वह वहाँ भी बेखटके भीग
रही है। मजाल है उसका कोई कुछ बिगाड़ ले। ऐसा सर्वशक्तिमान व्यक्तित्व जिसका हो उस
पर किसी का क्या बस चलता है। वह तो वही करेगी जो वह चाहेगी। उसकी मर्जी! जब चाहे
भीगे, जहाँ चाहे भीगे उसे न तो कोई रंग बरसाने से रोक सकता है न भीगने से। उसका
जहाँ जी चाहेगा रंगों की बारिश चालू करेगी और भीगना शुरू कर देगी।
कभी-कभी तो मुझे इस गाने के बोल
पर भी शंका होती है। यह जो गाना है न रंग बरसे भीगे चुनर वाली वह कुछ लोकगीत का
टाइप लगता है। अब लग गया सो लग गया। जब लग गया तो यह भी लगा कि शायद इस गाने के मूल
बोल कुछ और रहे होंगे! बिगड़ते-बिगड़ते ऐसा हो गया हो गया होगा! गाँव के दिनों की याद
आती है! गाँव में महिलाएँ ससुराल आती थीं वे अपने मायके के नाम से जानी जाती थीं।
उनके नाम नहीं लिये जाते थे। मायके के उर्मिला, रामप्यारी, बसंती आदि सब नाम गायब
हो जाते और बहू बनते ही वे पिपरौली वाली, मवई वाली, राधन वाली बन के रह जातीं! शायद
उनके मायके की याद बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाता हो लेकिन यह सच है कि लड़कियाँ
बहुएँ बनती ही अपने नाम खो देती थीं। इसी तरह होगी कोई चुनार की लड़की। न जाने क्या
नाम रहा होगा उसका। जब शादी हुई तो नाम खोकर चुनार वाली बन गई होगी। होली में जब
नई-नई बहू रही होगी तो उसका उसको भिगोते हुए होली में गीत गाया गया होगा- रंग बरसे
भीगे चुनार वाली! बाद में धीरे-धीरे चुनार का चुनर बन गया।
कभी-कभी यह भी लगता है चुनरवाली
हो या चुनारवाली पच्चीस सालों से भीग रही है बेचारी। अब तो उसकी उम्र हुई। उसको
अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। अब यह भीगने भागने की नादानी खत्म करनी चाहिए।
कही किसी दिन हालत खराब हुई तो सँभलनी मुश्किल हो जाएगी। यह सोचते हुए हम थोड़े
भावुक हो जाते हैं। जिसका नाम पच्चीस बरस से सुन रहे हैं उससे मुलाकात भले ही न हो
संवेदना के स्तर पर लो लगाव हो ही जाता है। हम जानते हैं कि आपको लगता होगा कि हम
ये सब ऐसे ही कह रहे हैं। लेकिन हमें यही लगता है तो क्या करें।
१ मार्च २०१० |