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हास्य व्यंग्य

बीटी बैंगन बनाम देसी बैंगन
-गुरमीत बेदी


अब आप कहेंगे कि बैंगन तो बैंगन ही होता है जी, चाहे देसी हो या विदेशी, बीटी हो या बिना बीटी, ब्यूटीफुल हो या बदसूरत, इससे क्या फर्क पड़ता है और इस पर क्या फिजूल की बहस करनी?  लेकिन लोकतंत्र की मजबूती के लिए बहस भी उतनी ही जरूरी है न जी, जितनी रिश्वत लेने के लिए नेताओं के भीतर अंतरात्मा होना जरूरी है। लिहाजा हम गली-कूचों में, मोहल्लों-चौबारों में, पान खिलाने वालों से लेकर हजामत बनाने वालों की दुकानों पर बैठकर यही बहस करेंगे कि हमें कौन से बैंगन का इस्तेमाल अपने लिए करना चाहिए और कौन-सा बैंगन विरोधियों के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए।

तो लीजिए कद्रदानों, मेहरबानों और महँगाई की चक्की में पिस रहे भद्रजनों, आज का विषय है- बीटी बैंगन बनाम देसी बैंगन। आज हम इसी विषय पर चर्चा करके यह साबित करेंगे कि देसी बैंगन और बीटी बैंगन में उसी तरह ज़मीन-आसमान का फर्क होता है जैसे सरसों के साग के साथ मक्की की रोटी खाने और डबलरोटी खाने में फर्क होता है...। वैसे तो उदाहरणरूपी कई और तीर भी हैं लेकिन अपुन व्यवस्था का मजाक नहीं उड़ाना चाहते और न ही पहले से डिस्टर्ब हकूमत को और डिस्टर्ब करना चाहते हैं। अपना मकसद तो केवल समस्याओं के चक्रव्यूह में घिरे मुल्क के आम आदमी के बदन पर गुदगुदी करना है ताकि वह खिलखिलाकर हँसे और ताली बजाए। इससे व्यायाम होता है और तन-मन स्वस्थ रहता है।

हमें सियासतदानों के अंदरूनी झगड़ों की तरह किसी पचड़े में नहीं पड़ना। पचड़ेवाजी में पड़ने से बंदा विवादास्पद हो जाता है। अपुन सिर्फ और सिर्फ दोनों किस्मों के बैंगनों पर ही चर्चा करेंगे। चर्चा की शुरुआत हम इस बात से कर सकते हैं कि देश में जब सब्जियों के राजा कहलवाने वाले भले-चंगे देसी बैंगन पैदा हो रहे हैं और इन बैंगनों को खा-खाकर मुल्क की तरुणाई अंगड़ाई ले रही है तो किसी के मन में बीटी बैंगन उगाने का खयाल आया ही कैसे! बीटी बैंगन की बजाए मुल्क में अच्छे खिलाड़ी पैदा करने, अंतर्राष्ट्रीय खेलों में अधिक से अधिक पदक जीतने का खयाल किसी के मन में क्यों नहीं आया! मुल्क में दालें महँगी हो रही हैं, रसोई गैस महँगी हो रही है, पेट्रोल और डीजल महँगे हो रहे हैं, केसर और कस्तूरी महँगे हो रहे हैं, नैतिकता लुप्त हो रही है... लेकिन इस तरफ ध्यान देने की बजाए बीटी बैंगन उगाने की काहे को सोची जा रही है! जितना वक्त वैज्ञानिकों ने बीटी बैंगन का आविष्कार करने पर बर्बाद किया, उतने वक्त में तो वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में ऐसे नेता तैयार कर सकते थे, जिन्हें रिश्वत में मिले नोटों के बंडल पकड़ते हुए करंट लगता हो, या जिन्हें गरीबों के खून-पसीने की कमाई चूसने से सख्त नफरत हो, जो जनता के विश्वास की कद्र करना जानते हों, जिनके भीतर राजनीति की गंदगी दूर करने की दृढ़ इच्छाशक्ति हो...।

चलो अगर, ऐसे नेता प्रयोगशाला में तैयार नहीं हो सकते या ऐसा प्रयोग करने के खिलाफ अधिकतर लीडर एकमत हों तो कम से कम देसी बैंगनों को ही तवज्जो दी जाए, लोगों को महँगी-महँगी दालें खाने की बजाए देसी बैंगन खाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। मुल्क में होने वाले सभी समारोहों में शाल-टोपियाँ, पगड़ियाँ, गदा व तलवारें भेंट करने की परंपरा को तिलांजलि देकर केवल और केवल देसी बैंगनों के हार बनाकर माननीयों के गले में डाले जाएँ। सभी होटलों, ढाबों के अलावा संसद औऱ विधानसभा की कैंटीनों में भी देसी बैंगन की डिशें परोसा जाना कानूनन अनिवार्य बनाया जाए, देश के कवियों, शायरों और साहित्यकारों को देसी बैंगनों के महिमामंडन के लिए साहित्यिक पुरस्कारों से नवाज़ा जाए और उन्हें नकद नारायण के साथ-साथ श्रीफल की जगह देसी बैंगन भेंट किए जाएँ। इसी तरह सरकारी और निजी क्षेत्र के सभी कर्मचारियों को मासिक वेतन के साथ देसी बैंगनों का एक-एक पैकेट अवश्य दिया जाए। इससे मुल्क में कार्य संस्कृति के साथ-साथ बैंगन संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा।... आने वाले समय में अखबारों में यह खबर पढ़ने को भी मिलेगी कि भारत ने विश्वगुरु के साथ-साथ बैंगन गुरु का खिताब भी हासिल कर लिया है।

रही वैज्ञानिकों की यह दलील कि बीटी बैंगन में रोग प्रतिरोधक क्षमता है तो यह दलील मानते हुए हम यही अर्ज करेंगे कि हम हिंदोस्तानियों के भीतर तो गंदी बस्तियों और फुटपाथों में भिनभिनाती मक्खियों के बीच खतरनाक बीमारियों से बचे रहने की अदभुत क्षमता पहले से ही मौजूद है। फिर हम बीटी बैंगन के लिए कपड़ेफाड़ बयानबाजी काहे को करें!

जब हम इस मुल्क में मिलावटी चीजें खा सकते हैं तो देसी बैंगन क्यों नहीं! चर्चा को विराम देते हुए अपुन तो यही कहेंगे- देसी बैंगन खाओ और मस्त हो जाओ!

१५ मार्च २०१०

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