मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि किसी की तारीफ़ करना अपनी शामत
बुलाना है। हम सभी मानते हैं कि किसी के अच्छे कार्यों के लिए उसकी समुचित प्रशंसा
अवश्य होनी चाहिए। अगर हम उसकी तारीफ़ नहीं करते हैं तो उसके साथ बेइंसाफ़ी होती
है। लेकिन तारीफ़ करना ख़तरे का काम है। ऐसा ज़ोखिम उठाना सबके बस की बात नहीं।
शब्दों का संतुलन ज़रा-सा बिगड़ जाए तो बनता काम भी बिगड़ जाएगा। काजल को कालिख
बनते देर नहीं लगती। अतः तारीफ़ भी एक कला है। इसमें संयम और संतुलन बहुत ज़रूरी
है। वह नहीं रहा तो तारीफ़ एक बला है।
इस कला को सँवारने
के प्रयास में मैंने इसे बला के रूप में झेला है और आज भी वक़्त-बेवक़्त झेलता हूँ।
यद्यपि प्रशंसा मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है, फिर भी वह संजीवनी का काम करती
है। कई अवसरों पर मैंने इसी के कारण दूसरों की सहायता और कृपादृष्टि पाई है। किंतु
हमेशा पाने वालों को एक दिन कुछ खोना भी पड़ता है। आज हालत यह है कि मेरी पत्नी से
लेकर पनवाड़ी तक ने मेरे विश्वास की जड़ हिला दी है और मुझे इस निष्कर्ष पर पहुँचा
दिया है कि भूखे पेट सो जाओ किंतु किसी की तारीफ़ मत करो।
एक दिन जब मैं तनिक उमंग में था कि मैंने पानवाले मंसाराम जी की
तारीफ़ कर दी- भाई मान गया। बनारस की गलियों में इतने पानवालों को देखा लेकिन जैसा
बीड़ा आप बनाते हैं उसकी बात ही अलग है। आपका पान कमाल का होता है। मंसाराम जी
मुस्कराते हुए मेरी बातें पीते रहे। मुझे क्या पता था कि उन पर नशा इतना चढ़ेगा।
मैंने मात्र अपने ग्राहक धर्म का निर्वाह किया था। उसके पीछे शायद मेरे अचेतन में
यह भाव रहा हो कि बेचारे मंसाराम जी सुबह आठ बजे से रात के ग्यारह बजे तक गणेश जी
की तरह पालथी मारे बैठे रहते हैं। वे सैंकड़ों होंठों को लाल करते हैं। इस सेवा के
बदले आखिर उन्हें मिलता ही कितना है। पान के लिए बाज़ार दर से अधिक पैसे देने की
हिम्मत तो मुझमें नहीं थी और कौन नहीं जानता कि हमारे मुल्क में ऐसी हिम्मत पर हर
फरवरी में पाला पड़ जाता है। इसलिए धनबल के अभाव में मैं उन्हें केवल आत्मबल ही दे
सकता था। बाज़ार से खाली झोला लिए मैं भले ही लौट आऊँ किंतु मैं आत्मबल से कभी खाली
नहीं रहता। वही मोरल बूस्टिंग मैंने मंसाराम जी की कर दी थी। एवज में उनका आत्मबल
इतना उफना कि अब वे मौके-बेमौके बिना विचार किए मुझे पुकार कर सड़क पर से खींच लेते
हैं- बाबू जी, पान खाते जाइए। मुझे खाना पड़ता है। तारीफ अब मेरे लिए टैक्स बन गई
है।
हवा पाकर जितना गुब्बार नहीं फूलता, उससे अधिक तारीफ़ पीकर आदमी
फूलता है। जो जितना फूलता है उसके फट पड़ने के मौके भी उतने ही जल्द आते हैं। मेरे
मुहल्ले में एक सज्जन के नौकर का बड़ा नाम था। वह हर प्रकार का व्यंजन बना लेता था।
ऐसा बनाता था कि खानेवाले हर ग्रास में उसकी प्रशंसा करते थे। मैंने भी सुना कि
साग-सब्ज़ी और मीट-मछली बनाने में उसका कोई सानी नहीं। मैंने अपने घर के एक परोजन
में बुलाकर रसोई का भार उसे ही सौंप दिया। मेरे घर के लोग और अतिथि बार-बार उसका ही
नाम लेते- मथुरा प्रसाद का क्या कहना! मथुरा
प्रसाद ने चौका सँभालते ही तरह-तरह की चीज़ों की फ़र्माइश की। लोग दौड़-दौड़कर उनके
आदेश का पालन करने लगे। कभी वे झींकते, इतनी लौंग से काम नहीं चलेगा और मँगवाइए।
कभी कहते, तेल कम है, जीरा साफ़ नहीं है। सौ ग्राम इलायची और मँगाइए। उनकी
फ़र्माइशों से हमारे घरवालों को अहसास होने लगा कि वाकई आज तक हमने सब्ज़ी के नाम
पर केवल घास, भूसा खाया है। सब्ज़ी तो आज खाएँगे। मथुरा प्रसाद जी के बनाए कोफ्ते
का मज़ा आज आएगा।
लोग खाने बैठे। मुँह में सब्ज़ी डालते ही लोग
थूकने लगे। अपने प्रशंसकों की उमगती भीड़ में मथुरा प्रसाद जी ने सब्ज़ी में नमक दो
बार डाल दिया था। आलोचना सुनते ही वे वहाँ से हट गए। बच्चों ने आकर ख़बर दी, बरामदे
में बैठे मथुरा प्रसाद जी रो रहे हैं।
प्रशंसा में बल तो है पर है वह बहुरूपिया। इस सत्य
का साक्षात्कार मैंने अपने ही परिवार में किया है। जिस बात की प्रशंसा मेरे दोस्त
कर जाते हैं उस पर मेरी श्रीमती जी काफी गदगद रहती है। वही प्रशंसा यदि मैं कर दूँ
तो उसे खुशामद या मतलबपरस्ती के खाते में डाल दिया जाता है। दोस्तों के कारण ही
मेरी गति साँप-छछूंदर की हो जाती है। पत्नी की प्रशंसा करूँ तो खुशामदी कहलाऊँ, चुप
रहूँ तो मनहूस कहलाऊँ। कभी-कभी तो मुझे यह कह दिया गया कि आपने शादी ही क्यों की,
आपको तो सन्यासी बनकर पहाड़ों में जाकर बस जाना चाहिए था। अतः मैंने नियम बना लिया
है कि चुप रहना ठीक नहीं है। गूँगे का मुँह कुत्ता चाटे। कुछ-न-कुछ बोलते रहना
चाहिए। अतः जब भी वे कोई नई साड़ी पहनती हैं, मैं तारीफ़ के लिए मानसिक तैयारी कर
लेता हूँ। कुछ दिनों तक वे मेरी बातों पर शक करती रहीं, झूठ-सच के अनुपात का
निर्धारण करती रहीं। अब उन्हें विश्वास हो गया है, मेरी शामत आ गई है। भोजन में जिस
चीज़ की मैं तारीफ़ कर देता हूँ, वह चीज़ मुझे हफ़्तों खानी पड़ती है। एक बार मैंने
उनकी बनाई करेले की कलौंजी की तारीफ़ कर दी थी। फल यह हुआ कि मेरी थाल में चार रोज़
तक कलौंजी ही परोसी जाती रही। पाँचवें दिन अज्ञात भय से मैंने चुप्पी साध ली। उस
दिन वे नाराज़ हो गईं, आपको तो मेरी बनाई कोई चीज़ पसंद ही नहीं आती।
तारीफ़ 'दारू' का काम करती है। जो पी ले वह नशे
में झूमने लगे। इसका असर बच्चों पर भी पड़ता है। एक बार मेरे बेटे ने अपनी स्लेट पर
एक चिड़िया का चित्र बना डाला। चित्र क्या था, टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें थीं।
बाल-मनोविज्ञान की किसी पुस्तक में मैंने पढ़ा था कि प्रशंसा पाकर बच्चों में
स्वावलंबन का विकास होता है। मैंने उस चित्र की तारीफ़ कर दी और मन में कामना की,
मेरे बच्चे में कलात्मक प्रतिभा का विकास करो। मेरा बेटा इतना खुश हुआ कि मैं जहाँ
जिस काम में भी व्यस्त रहता वहीं वह अपना नया चित्र लेकर हाजिर हो जाता था। मैं
बार-बार उसकी तारीफ़ करता। चित्र बनाकर बेटा नहीं थका लेकिन तारीफ़ करके मैं थकान
महसूस करने लगा। जी इतना ऊबा कि किसी दोस्त से मिलने के बहाने मुझे घर छोड़ बाहर
जाना पड़ा।
नौकरी में जो स्थान इन्क्रीमेंट और बोनस का है वही
स्थान निजी जीवन में प्रशंसा का है। तारीफ़ होती चले तो काम में भी मन लगता है।
कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। पर दूसरों की यह कार्यक्षमता हमारे लिए कभी-कभी
गले की फाँसी बन जाती है। इसका अनुभव मुझे उस दिन हुआ जिस दिन मैंने अपने कवि मित्र
की नई रचना की सराहना कर दी। उस दिन मेरा मूड भी अच्छा था क्यों कि दफ़्तर में बोनस
की बकाया राशि मिली थी। बैंक बैलेंस ठीक हो तो दूसरों से उदारतापूर्वक व्यवहार करने
में कोई संकोच नहीं होता। लेकिन रोज़-रोज़ तो बोनस मिलता नहीं। प्रशंसा पाकर कवि
मित्र रोज़ ही संध्या में अपनी रचनाओं के साथ मेरे घर हाज़िर होने लगे। मेरी
असभ्यता इतनी मुखरित नहीं हुई थी कि मैं उन्हें साफ़-साफ़ कह दूँ कि जाइए, आज आपकी
कविता सुनने का मेरा मूड नहीं है। उस दिन घर में बच्चे की गलती से दो किलो दूध गिर
कर बर्बाद हो गया था। इस महँगाई में ऐसी बर्बादी पर जब मैं अपनी किस्मत को कोस रहा
था कि कवि जी आ गए और मुझे बसंत ऋतु में खिले फूलों के सौंदर्य पर रची कविता की
प्रशंसा करनी पड़ी। प्रशंसा का वह कष्ट मुझे आज तक नहीं भूला है।
अपने दोस्तों के किन्हीं कामों की तारीफ़ करना
हमारी तमीज़ के दायरे में आता है। उसी दायरे का ख़याल कर मेरी मति मारी गई और मैंने
अपने दोस्त की रेडियो-वार्ता सुनकर उससे कुछ अंशों की तारीफ़ कर दी। दो हफ़्ते बाद
रात के साढ़े दस बजे उन्होंने मुझे सूचित किया कि ग्यारह बजे दूरदर्शन पर मेरी
कविता अवश्य सुनिएगा। तारीफ़ करके मैं बुरा फँसा। दो मिनट की कविता सुनने के लिए
मुझे साढ़े ग्यारह बजे रात तक जागना पड़ा। नहीं सुनता तो मैं दूसरे दिन उन्हें किन
शब्दों में बधाई देता!
सोचता हूँ, अब किसी की तारीफ़ नहीं करूँगा। चुप्पी
साध लेना ही उचित है। पर एक ख़तरा सामने है। भोजन करते समय पत्नी के सामने मेरी यह
प्रतिज्ञा नहीं निभेगी क्यों कि वे पूछेंगी, खीर कैसी है, जवाब में मेरा सिर हिलाना
उन्हें बुरा लगता है। वे चाहती हैं, मैं जुबान हिलाऊँ। वह भी उनके अनुकूल। अतः
तारीफ़ से मैं छुटकारा नहीं पा सकता, चाहे वह बला ही हो।
१५ जून २००९ |