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                        आदमी प्रसिद्धि पाने के लिए 
                        क्या-क्या नहीं करता? वह 
                        अजीबो-ग़रीब तरीके अपनाता है। कुछ लोग साँपों से खेलते 
                        हैं, उन्हें चूमते हैं। कुछ अपने चेहरे पर मधुमक्खियों को 
                        चिपका कर घूमते हैं। कुछ अपने बालों से बाँधकर बस या ट्रक 
                        खींचते हैं, तो कुछ दाँतों के बल पर पानी के जहाज़ को। और 
                        कुछ नहीं तो लोग अपने नाखूनों और दाढ़ी-मूँछों को ही बढ़ा 
                        कर अपना नाम 'गिनीज़ बुक' में दर्ज करवाना चाहते हैं।
                        
                         सचमुच यह दुनिया कला और 
                        कलाकारी की है। जो जितनी अधिक कला दिखलाता है, वह उतना ही 
                        बड़ा कल आकार का दल-बल वाला कलाकार समझा जाता है। साहित्य 
                        में भी प्रसिद्धि पाना, नाम कमाना एक कला है, पर हर कला के 
                        कुछ पेटेन्ट 'गुर' होते हैं। यदि इन गुरों को जान लिया 
                        जाए, मान लिया जाए, तो घोंचू व्यक्ति भी अपने समय का 
                        'सशक्त हस्ताक्षर' बन सकता है। साहित्यकार कहलाने के लिए 
                        और लोगों तक नाम पहुँचाने के लिए यह काम ज़रूरी है कि आपकी 
                        रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपें और छपती रहें। अगर 
                        आजकल पत्र-पत्रिकाओं की भरमार है, तो लेखकों की भी कोई कमी 
                        नहीं। संपादक प्रवर न तो हर लेखक को घास डाल सकते हैं और न 
                        उसे पाल सकते हैं। यदि आपकी किसी संपादक से जान-पहचान या 
                        साँठ-गाँठ नहीं है, तो घबराइए मत, ज़रा तसल्ली रखिए।
                        पहले उँगली पकड़िए, 
                        फिर उसके बाद पहुँचा। उँगली पकड़ने का मतलब है कि रचनाएँ 
                        ऐसी लिखें, जो आसानी से छप सकें। पत्र-पत्रिकाओं में 
                        पर्वों-त्योहारों, महापुरुषों की जयंतियों, पुण्य तिथियों, 
                        ऐतिहासिक घटना-प्रसंगों के स्मृति-दिवसों आदि पर उनसे 
                        सम्बन्धित रचनाओं के छपने की पूरी-पूरी संभावना रहती है। अब लोग अधिकतर जीने के 
                        लिए नहीं खाते, बल्कि खाने के लिए जीते हैं। पत्रिकाएँ ऐसे 
                        पेटू-वीरों का विशेष ख़याल रखती हैं। उनमें व्यंजन बनाने 
                        की विधियों को उसी प्रकार भरपूर स्थान मिलता है, जैसे 
                        शोध-ग्रंथों में उद्धरणों को। इन व्यंजनों पर खूब लिखा जा 
                        सकता है, लेकिन वे स्वादिष्ट और चटपटे ही नहीं, पढ़ने में 
                        अटपटे भी लगने चाहिए। जैसे - मूँगफली की चटनी, कद्दू का 
                        हलवा, बताशों का रायता, खोवे की पकौड़ियाँ, घुइयाँ का 
                        अचार। महिलाओं की केश-सज्जा से 
                        लेकर बिवाइयाँ फटने और एड़ी की सुरक्षा तक, जुल्म ढाने और 
                        निंदिया भगाने वाली आकर्षक बिंदिया से लेकर पाँवों के 
                        बिछुओं तक सभी सौन्दर्य-प्रसाधनों और आभूषणों से सम्बन्धित 
                        जनाने लेख बिना किसी हीला-हुज़्ज़त के, व्यावसायिक 
                        पत्र-पत्रिकाओं की बार-बार शोभा बढ़ाते हैं और लेखकों को 
                        पैसा भी दिलाते हैं। आप भी कैलेंडरवादी लेखक 
                        बनिए और विभिन्न अवसरों के अनुकूल रचनाएँ तैयार कर-कर के 
                        भेजते रहिए। इन रचनाओं के लिए सामग्री जुटाने में 
                        दस-पन्द्रह साल पहले की पत्रिकाओं से काफी मदद मिल सकती 
                        है। नए लेबिलों के साथ साहित्य में भी सैकेंडहैंड माल खूब 
                        बिकता है। महान साहित्यकारों की 
                        जन्म या पुण्य तिथि पर ताजे या बासे फोटो लेकर मसाला-लेख 
                        लिख मारें। भले ही दिवंगत साहित्यकारों की सन्तानें शहरों 
                        में शानदार कोठियाँ बनाकर मौज-मस्ती का जीवन बिता रही हों 
                        और वे कभी भूलकर भी अपने गाँव के पुश्तैनी घर की तरफ़ न 
                        झाँकती हों, लेकिन आप उस मकान के रख-रखाव पर सरकार तथा 
                        साहित्य-प्रेमियों द्वारा ध्यान न दिए जाने व उसकी दुर्दशा 
                        पर विधवा-विलाप अवश्य करें। इससे स्वर्गवासी साहित्यकार का 
                        भला चाहे न हो, पर आपका भला निश्चित रूप से होगा। आपके ऐसे 
                        लेख बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में ज़रूर छपेंगे। उनसे आपको नाम 
                        भी मिलेगा और पारिश्रमिक-स्वरूप नामा भी। प्राय: हर पत्र-पत्रिका 
                        में संपादक के नाम पत्र छपने के लिए एक स्तंभ हुआ करता है। 
                        आप भी नियमित रूप से संपादकों के नाम पत्र लिखते रहिए। 
                        पत्र में कोई सुझाव हो, न हो, पर पत्रिका के निरन्तर ऊँचे 
                        उठते स्तर और उसके अद्वितीय संपादन-कौशल की प्रशंसा अवश्य 
                        हो। अपनी प्रशंसा किसे नहीं भाती? आपके पत्र ज़रूर छपेंगे। 
                        लोग पढ़ेंगे और आप संपादक की नज़र में भी चढ़ेंगे। 
                        धीरे-धीरे आपकी रचनाओं को भी जगह मिलने लगेगी।  अगर आपके पास पैसा है, तब 
                        तो आपका लेखक होना उतना ही आसान है, जितना किसी गुंडे का 
                        नेता बन जाना। कुछ पत्रिकाओं को चंदा भेजना शुरू कर दें। 
                        आपकी एक ही रचना कई-कई पत्रिकाओं में दिखाई पड़ने लगेगी। 
                        उन पत्रिकाओं में भी, जो लेखक से अप्रकाशित रचना ही चाहती 
                        हैं। इतने पर भी बात न बने, तो बढ़िया-सा सोम-रस या किसी 
                        मेनका को पटाकर संपादक जी की सेवा में संप्रेषित कर दें। 
                        यह अमोघ अस्त्र साबित होगा। किसी पत्रिका में जब भी 
                        कोई रचना छपे, तो अपने यार-दोस्तों से 'संपादक के नाम 
                        पत्र` में उसकी तारीफ़ कराने से कतई न चूकें। बड़े से बड़े 
                        वीतरागी भी यश के भूखे होते हैं, पर वे अपने मुँह मियाँ 
                        मिट्ठू कैसे बनें? ऐसे लोग उधार खाए बैठे रहते हैं कि कोई 
                        उन पर कुछ लिखे। अत: आप ऐसे लोगों से मिलिए। उनसे 
                        'इंटरव्यू' लीजिए। वे आपको आदरपूर्वक बैठाएँगे। चाय-नाश्ता 
                        कराएँगे। प्रश्नावली भी खुद ही बनवा देंगे और भेंटवार्ता 
                        को किसी अच्छी पत्रिका में छपने की व्यवस्था भी खुद करवा 
                        देंगे। अपने संयोजकत्व में जब-तब 
                        कवि-सम्मेलन कराना भी साहित्य में प्रसिद्धि पाने का एक 
                        गुर है। कवि-सम्मेलन में ऐसे कवियों को बुलाएँ, जो आपको भी 
                        अपने यहाँ बुलवा सकें। पैसा भी मिले और नाम भी। आम के आम 
                        और गुठलियों के दाम भी। किसी की पुस्तक प्रकाशित 
                        होते ही उसके विमोचन की लगाम आप अपने हाथ में थाम लें। 
                        कवि-सम्मेलनों का उद्घाटन और पुस्तकों का विमोचन ये दोनों 
                        काम पत्र-पत्रिकाओं के संपादक महोदयों से ही करवाएँ। 
                        उन्हें सपत्नीक बुलाएँ। उनकी डटकर खातिरदारी और सेवा करें। 
                        बाद में उनसे मेवा पाएँ। परिचित कवियों-लेखकों के 
                        वंदन-अभिननंदन के आयोजन को आप अपना मिशन बना लें। खर्च का 
                        भार वहन करने के लिए किसी लक्ष्मीवाहन सेठ को फाँस लें। 
                        जल-पान का तगड़ा प्रबंध रखें और उसकी पूर्व सूचना निमंत्रण 
                        के साथ ही प्रचारित करा दें, ताकि भीड़ खूब रहे। जिसका 
                        अभिनंदन हो, उसे प्रशस्ति-पत्र, शॉल, नारियल के साथ-साथ 
                        रुपयों की थैली (नए रिवाज के अनुसार चैक) दिलवाएँ। यह 
                        पुण्य कार्य आप किसी बड़े साहित्यकार, संपादक अथवा प्रकाशक 
                        को मुख्य अतिथि बना कर उसके कर-कमलों से करवाएँ। इस तरह एक 
                        तीर से दो निशाने साधेंगे। एक तो आप मुख्य अतिथि के साथ 
                        लाभदायक परिचय की डोर में बँधेंगे, दूसरे अभिनंदित व्यक्ति 
                        आपका अत्यन्त आभार मानेगा और बदले में कभी आपका भी 
                        अभिनंदनन करके उऋण होने की ठानेगा। सठियाये यानी साठ साला 
                        साहित्यकारों को भी न भूल जाएँ। उनके षष्टिपूर्ति के आयोजन 
                        को भी धूमधाम से मनाएँ और उनके निकट आकर अपना काम बताएँ। प्रसिद्ध महापुरुषों के 
                        साथ पत्र-व्यवहार करें और जब कुछ पत्र इकट्ठे हो जाएँ, तो 
                        उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में या पुस्तक रूप में प्रकाशित 
                        कराएँ। मृत लेखकों और कवियों से, चाहे आपका सम्बन्ध रहा हो 
                        या न रहा हो, अपने साथ उनके अन्तरंग परिचय पर अवश्य लिखें। 
                        उम्र के अनुसार जो भी रिश्ता सम्भव हो, उसे उनसे जोड़ दें। 
                        बताएँ कि उनके साथ आपकी दाँत काटी रोटी थी। आप उनकी नाक के 
                        बाल थे, हाथ के रूमाल थे। लिखने की प्रेरणा आपको उनसे ही 
                        मिली। जेल में साथ-साथ रहे। दो-चार बातें ऐसी भी जड़ दें, 
                        जिन्हें कोई न जानता हो, उनके घरवाले भी नहीं। जैसे-एक बार 
                        वे शेर का शिकार करने गए थे। उस समय आपने उनकी जान बचाई 
                        थी। उनके घटित-अघटित प्रेम-प्रसंगों को भी अपनी कल्पना के 
                        रंगों में रंग दीजिए। ऐसे करामाती लेख आसानी से छप जाएँगे 
                        और आपका सिक्का भी जमाएँगे।  आजकल साहित्य में एक नई 
                        विधा चल पड़ी है - परिचर्चा। इसे बातचीत, परिसंवाद, एक 
                        सार्थक बहस आदि अनेक नाम दिए जा सकते हैं। इस विधा में 
                        लिखने से छपने की काफी सुविधा रहती है। परिचर्चा में 
                        दिमागी खर्चा कुछ नहीं। आयोजक को बस आरम्भ में विषय का 
                        खुलासा करना पड़ता है। बाकी सारा मिर्च-मसाला तो परिचर्चा 
                        में भाग लेने वालों का होता है। ज़रूरत पड़ने पर खुद भी 
                        उनकी ओर से लिखा जा सकता है। परिचर्चा सम्बन्धी विषयों की 
                        कोई कमी नहीं। सामयिक-असामयिक सैकड़ों विषय हो सकते हैं। 
                        यथा - दीवाली है या दिवाला?, होली के रंग : साली के संग, 
                        होली : कहाँ गई वह ठिठोली?, फागुन में देवर के तेवर, आपका 
                        पहला प्यार : सफलता या हार? खौफ़नाक फिल्में : दिल को 
                        बहलाएँ या दहलाएँ? सास-बहू का सम्बन्ध : काँटों की चुभन या 
                        फूलों की सुगन्ध? भ्रष्टाचार : कैसे पाएँ पार? आदि-आदि। 
                        परिचर्चा में विभिन्न क्षेत्रों के प्रसिद्ध और प्रमुख 
                        लोगों, उनकी धर्मपत्नियों, बेटे-बेटियों व बहुओं को ही 
                        सम्मिलित करें या फिर उन्हें, जिनके साथ संपादकों का 
                        अच्छा-खासा मेल-मिलाप हो। लेख निश्चित रूप से छपेगा। किस 
                        संपादक की माँ ने धौंसा खाया है कि ऐसे लेख को छापने का 
                        लोभ संवरण कर सके।  सिंह और सपूत की भाँति आप 
                        भी लीक छोड़ कर चलें। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर 
                        कभी-कभी कुछ ऐसा बिंदास, सनसनीखेज, ऊटपटाँग या अश्लील भी 
                        लिखें, जो हंगामा खड़ा कर दे, जो लोगों में चर्चा और 
                        वाद-विवाद का विषय बन जाए, जो धार्मिक मान्यताओं तथा 
                        परंपराओं पर भी चोट करे। राम की अपेक्षा रावण को श्रेष्ठ 
                        बताएँ। लिखें कि आर्य गो-माँस खाते थे। सीता वनवास में 
                        नहीं, रनवास में रहीं। कंस परमहंस था। समाज के पथ-भ्रष्टक 
                        थे तुलसीदास। उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द दलित-विरोधी थे। 
                        निराला ने की साहित्यिक चोरी। गांधी जी ने दी देश को 
                        बर्बादी की आँधी। ऐसी बातों को पढ़ कर कुछ लोग साँड़ की 
                        तरह भड़केंगे, तड़केंगे। न भी भड़कें-तड़कें तो आप खुद 
                        किसी से कुछ लिखवाकर उन्हें भड़का दें और उसका तीखा उत्तर 
                        दें। उत्तर-प्रत्युत्तर का लम्बा सिलसिला आपके लिए लाभदायक 
                        सिद्ध होगा। अगर आप पर कोई मुक़दमा ठोंक दे तो और भी 
                        अच्छा। नेकी और पूछ-पूछ। आप रातों-रात शोहरत की बुलन्दियों 
                        को छूने वाले लेखक माने जाएँगे और लोग आपको सालों तक नहीं 
                        भूल पाएँगे। इस्लामी मज़हब के खिलाफ़ लिखने पर प्रसिद्धि 
                        के अतिरिक्त देश विदेश घूमने का लाभ फ्री में मिलता है। एक 
                        महिला लेखक ने हाल ही में यह सब पाया है। एक और पुरुष लेखक 
                        इसके कारण विश्व भर में इतना विख्यात हो गया कि उसके अधेड़ 
                        होने के बावजूद एक कमसिन हसीन बाला उस पर लट्टू हो गई और 
                        उससे शादी रचा ली। उसकी प्रतिबंधित पुस्तक भी खूब बिकी। 
                        दोनों हाथों में लड्डू और कई-कई।  आपकी वेश-भूषा और चाल-ढाल 
                        भी साहित्यकारों जैसी हो तो सोने में सुहागा। ढीला-ढाला 
                        कुर्ता-पाजामा पहनें। कन्धे पर थैला धारण करें। जूतों का 
                        स्थान चप्पलों को दें। बाल बड़े-बड़े और रूखे-सूखे रखें। 
                        बीड़ी-सिगरेट और सुरा का शौक़ भी पाल सकते हैं। तात्पर्य 
                        यह कि आप चाहें थोड़ा लिखें, पर बड़े साहित्यकार जैसे 
                        दिखें।  अगर आप खुशकिस्मती से 
                        रेडियो, टी.वी. या किसी व्यावसायिक पत्रिका में काम करते 
                        हैं, तब तो आपके ठाट ही ठाट हैं। मज़े से परस्पर 'गिव एण्ड 
                        टेक' की पॉलिसी ग्रहण कीजिए। दूसरों को अपने यहाँ मौक़ा 
                        दीजिए और उनकी नौका में खुद सवार होकर मौज लीजिए। साहित्य 
                        की दलदली भूमि में जब आपकी जड़ें कुछ जम-थम जाएँ, तो आगे 
                        कदम बढ़ाएँ। अपनी कृतियों को किसी बड़ी पूछ वाले व्यक्ति 
                        को समर्पित करें। स्वयं ही उन पर अच्छी कलम-तोड़ समीक्षाएँ 
                        लिखें और उन्हें मित्रों के नाम से छपवाएँ। जुगाड़ भिड़ाएँ 
                        और पुरस्कार पाएँ। साहित्य के क्षेत्र में भी राजनीति और 
                        गुटबाज़ी का बोलबाला है। अत: यह ज़रूरी है कि आप किसी गुट 
                        में शामिल हो जाएँ और उससे तब तक चिपके रहें, जब तक आपका 
                        काम बनता रहे। उसके बाद चाहें तो किसी अन्य शक्तिशाली खेमे 
                        में घुस जाएँ या अपनी फेंटी अलग बना लें।  किसी पत्रिका का प्रकाशन 
                        चालू कर दें। (भले ही वह अनियतकालीन हो) पारिश्रमिक न सही, 
                        पर लेखकों को उसका लोभ अवश्य देते रहें। वैसे भी छपास के 
                        मारे नये लेखकों की ढेर सारी मौलिक और अप्रकाशित रचनाएँ 
                        आपकी पत्रिका में छपने के बहाने आने लगेंगी। उनमें जो 
                        रचनाएँ दमदार जान पड़ें, उन्हें थोड़े से हेर-फेर के साथ 
                        नए शीर्षक देकर अपने नाम से छपवाएँ। पत्रिका प्रकाशित करने 
                        के पैसे न जुटा पाएँ तो वेब पत्रिका शुरू कर दीजिए। 
                        रातोंरात प्रसिद्ध होने का अवसर आपके आगे हाथ बाँधकर खड़ा 
                        हो जाएगा। चाहे कहानीकार कहलाइए, चाहे निबन्धकार के रूप 
                        में नाम कमाइए। चाहे हास्य-व्यंग्य लेखक बन जाइए, चाहे 
                        कविराज की पदवी पाइए। खुद ही लिखना पड़े तो आसान रास्ता 
                        अपनाइए। 'छंद-मुक्त कविता' तथा 'हाइकु' में हाथ आजमाइए।
                         जीवन में एक-आध बार यह 
                        ढिंढोरा पीटना भी न भूलिए कि आपके यहाँ चोरी हो गई और 
                        उसमें आपकी वर्षों की मेहनत से लिखी कई पांडुलिपियाँ भी 
                        चली गईं। अथवा किसी यात्रा के दौरान आपकी अटैची खो गई, 
                        जिसमें कुछ ऐसी श्रेष्ठ कृतियाँ थीं, जो प्रकाशित होने पर 
                        युगान्तरकारी सिद्ध होतीं। लोगों को विश्वास दिलाने के लिए 
                        आप अखबार में विज्ञप्ति भी निकलवा सकते हैं कि कृतियों को 
                        पहुँचाने वाले को पुरस्कार दिया जाएगा। पुरस्कार की राशि 
                        अच्छी-खासी तय कर दें, क्यों कि वह देनी तो है नहीं। 
                         आप अपनी आर्थिक तंगी और 
                        भूखों मरने की ख़बर भी फैला सकते हैं, साथ ही पान की या 
                        परचूनी की दुकान खोल लें, तो और भी सुन्दर। झूठे अश्क भी 
                        रश्क का कारण बन जाएँगे। आप घोषणा कर दें कि साहित्य आपके 
                        लिए एक साधना है, तपस्या है, धर्म है। चाहे कुछ हो, आप 
                        उससे मुँह न मोड़ेंगे। इससे आपको सहानुभूति और प्रशंसा 
                        मिलेगी। प्रकाशक और संपादक उदारता बरतेंगे। आपके साहित्य 
                        की थोक और रिटेल सेल बढ़ जाएगी। आपकी इमेज बनेगी, जो 
                        स्वर्गवासी होने के बाद भी काम आएगी, याद की जाएगी। 
                         सारांश यह कि यदि आप इन 
                        सब बातों की गाँठ बाँध लेंगे, तो आपका रंग-बिरंगा झंडा 
                        हमेशा ऊँचा तना रहेगा, आपका रुतबा बना रहेगा। साहित्य के 
                        क्षेत्र में आप सौ फीसदी विश्व-विजय करके दिखलाएँगे। 
                        १२ 
                        जनवरी २००९ |