नेताजी आज सुबह से ही बमक रहे थे।
किसी ने फोन पर उन्हें श्रीमान कह कर संबोधित किया। वे एक बारगी ही उखड़ गए औऱ फोन
करने वाले से कहा, ''खबरदार जो मुझे सिरमान कहा। सिरमान होंगे आप और आपके बाप। पूरी
ज़िंदगी सिरमानी करते गुज़री होगी। मुरैठा बाँधे कंधे पर लाठी और गमछा लिए,
खेत-खलिहान घूमते रहे होंगे, मजूर-बनिहार से संगत रहा होगा आपका। इसलिए मुझे सिरमान
कह रहे हैं।''
मुझे उनको समझाना पड़ा, ''वे
आपको श्रीमान कह रहे थे, सिरमान नहीं, आपको समझने में
भूल हुई।''
''देखिए,'' उन्होंने मुझे भी डाँटा। ''हम सब समझते हैं। बिना समझे कारज करता से
नेता नहीं हो गए। हम गाँव-घर की बोली बोलते हैं। हम, क्या कहते हैं उसको, तदभव
परेमी हैं, आपकी तरह ततसम परेमी नहीं।''
मैं बहुत मुश्किल में था। उनसे अच्छी जान-पहचान थी। वे मुझे आदर भाव भी देते थे, पर
आज क्या हुआ कि मुझे कहना पड़ा, ''मित्रवर...''
उन्होंने बीच में ही मुझे टोककर कहा, ''यह क्या
बोल रहे हैं? आप नहीं जानते कि मैं कैसी भाखा बोलता हूँ और समझता हूँ। सीधे-सीधे
मितवा कहिए। पर यदि थोड़ा बबुआन बोली में बोलना चाहते हैं, तो मितर कहिए। पंजावड़ा
लोगों से कुछ तो सीखिए। वे कितने प्रेम से बेटों और छोटों को पुत्तर कहते हैं। क्या
आप मित्तर नहीं कह सकते?''
मुझे कहना पड़ा, ''नेता जी! अब आप नेता हो गए हैं।'' उन्होंने बीच में ही कहा,
''अजी सुनिए! आपने मुझे नेता कहा, तो मुझे एक बात याद आ गई। अभी परसों की बात है।
एक बड़े महातमा जी आए थे, सुकुल जी, अरे अपने वही सुकुल जी, जो भैंस चनसेलर है,
कहने लगे, ''ज़रा चलिए उन महातमा जी के पास। आपका कुछ हाल-चाल पूछते हैं।
आप तो जानते ही हैं जोतिखी लोग हम लोगों की
कमज़ोरी हैं। हम भी चले गए सुकुल जी के साथ। सुकुल जी उस महातमा के सामने मेरी
परसंसा करने लगे। इस पर जानते हैं ऊ महातमा क्या बोला...!
मुझे पूछना पड़ा, ''क्या बोले?''
वह बोली, ''नेती...नेती।'' हम एक बार सुना, दो बार सुना, फिर हमसे नहीं रहा गया। हम
सुकुल जी का हाथ पक़ड़े और उन्हें खींचकर रस्ते पर लाए। कहा, ''क्या जी भैंस चनसेलर
साहब, हम आपको क्या भैंस चनसलर इसी के लिए बनवाए थे कि आप हमरा इस तरह बेइज़्ज़ती
कराइए।''
भैंस चनसेलर तो भौंचक्के। कहने लगे, ''क्या हुआ जो
आप इतना उखड़े जा रहे हैं?''
मुझे ताव आ गया, कहा, ''उखड़े नहीं तो क्या करें। वह महातमा मुझसे बार-बार नेती
नेती कर रहा था जबकि सब जानते हैं कि हम नेता हैं, नेती नहीं।''
सुकुल जी ने कहा, ''वह तो आपकी प्रशंसा कर रहे थे, नेति नेति कह कर कहना चाहते थे
कि आपके बारे में अधिक कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। आपके बारे में सब जानते हैं
इसलिए वे कहते थे, ''नेति नेति...''
मैंने झुंझला कर कहा, ''हम सब समझते हैं भैंस
चनसेलर साहब! आप हमको इतना बुड़बक मत समझिए। हमको बुड़बक बनाना आसान नहीं है। बहुत
लोग कोसिस करता है...
''कौन कौन कोशिश करता है?'' मुझे पूछना पड़ा।
नेता जी थोड़ा रुककर आए, कहने लगे, ''ऊ एगो साहितकार है नं। अपने जिला का, हम उसको
एक कितबियाँ छापने के लिए एक दलाल से कुछ पैसा दिलवा दिए। उसका उपकार किए या नहीं?
लेकिन जानते हैं बदला में ऊ का दिए?
एक भरी सभा में मुझको नेता पखर कर दिए। अब बताइए
यह भी कोई बात है? ऐसे पीठ में छुरा भोंका जाता है? हम तो जानता पखर हैं, अधिक से
अधिक विधायक पखर कह जा सकते हैं। लेकिन उन्होंने मुझे नेता पखर कह दिया। नेता पखर
तो हम तब न होंगे जब हम मुखमंतरी हो जाएँगे। अभी से कोई मुझे नेता पखर कहे तो हमारा
चानस बिगाड़ना हुआ या नहीं? मुखमंतरी को मालूम होगा तो ऊ का सोचेगे? सोचेंगे ई
चिऊटा बड़ा पर निकाल रहा है।''
मुझे नेताजी को समझना पड़ा, ''वे आपको नेता प्रखर कह रहे होंगे, मतलब आपको बड़ा
नेता बता रहे होंगे।''
''अजी हम सब समझते हैं। यदि हम ऊ... अभी क्या बोले आप?''
''हाँ, हम तो यह बोल नहीं सकते। हमारी जीभ ऐसी उलट-पुलट नहीं चलती। पर उसका मानी यह
नहीं कि हम मतलब नहीं समझते। खूब समझते हैं। हम जिनगी भर दूसरों को उलुआ बनाते रहे
हैं। अब हमें तो कोई उलुआ नहीं बना सकता न? हम भाखा परेमी है तो कोई अपना रास्ता से
टस से मस नहीं कर सकता।''
विश्वास है, पाठकों में ऐसे अनेकों को, अपने भाखा-प्रेमी नेता पर गर्व होगा।
आनेवाले दिनों में भारतीय राजनीति और समाज में ऐसे भाखा प्रेमी नेताओं की संख्या
बढ़ेगी ही, घटेगी नहीं।
८ जून
२००९ |