इन दिनों लोग बेहिसाब मीठे होने लग पड़े हैं। नख से
लेकर शिख तक। क्यों ना हों, पैदाइश से ही गपा-गप मीठा खाना भारतीयों की वह छिछोरी
आदत होती है, जिसे छोड़ने के लिए कहे जाने पर वे आगबबूला होकर किसी के भी प्राण ले
सकते हैं। बात-बात में मिठाई खाने का बहाना ढूँढ निकालना और किलो-पसेरी मीठा
चलते-फिरते खा जाना हम भारतीयों की जन्म-जात 'विलक्षण' प्रतिभाओं में से एक
'विशिष्ट` प्रतिभा होती है, सारी दुनिया के लोग जिसे फटी आँखों से देखते हैं।
जन्म हो, मृत्यु हो, तीज-त्योहार, सगाई,
शादी-ब्याह या तलाक हो, कोई नई चीज़ खऱीदी हो, बेची हो, बिना मिठाई के किसी भी
उत्सव का आयोजन सम्पन्न होना सम्भव ही नहीं है। तब फिर एक सच्चे भारतीय का नख से
लेकर शिख तक मीठा होना तो लाज़िमी है ही। परन्तु, आधुनिक जीवन-चक्र की इस सप्रेम
भेंट के, किसी शरीर में आविर्भूत होने के बाद फिर वह शरीर चाहे गामा पहलवान का ही
क्यों ना हो, मीठा खाने के लायक ही नहीं रह जाता।
अब आप समझ गए होंगे कि मैं उस बिना जुर्म की सज़ा
की बात कर रहा हूँ जिसे 'रक्त शर्करा' या 'डायबिटीज़' कहा जाता है, जो किसी भी
कड़वे से कड़वे आदमी को भी मौका मिलते ही मीठा बना सकती है। एक बार यदि कोई मीठा हो
पड़ा, तो फिर इस मिठास को मनों-क्विंटलों से तौलते जाओ, वह कम नहीं होगी। पल-पल
बढ़ती ही जाएगी। बढ़ते-बढते अंतत: इतनी बढ़ जाएगी कि आप एक-आध शक्कर फैक्ट्री के
मालिक बनने का सपना आसानी से देख सकते हैं, बशर्ते जल्दी ही शरीर से शक्कर को अलग
कर बोरियों में भरने की कोई आधुनिकतम टेक्नालॉजी बाज़ार में आ जाए।
डॉक्टरों के हत्थे चढ़कर सफलतापूर्वक मीठा साबित
होने के बाद, (जो आजकल आमतौर पर चालीसी पार सभी, साबित होने में देर नहीं करते)
जल्दी ही कोई भी व्यक्ति इस विषय पर डॉक्टरेट कर सकता है, अचूक नुस्खों पर
ग्रंथ लिख सकता है, यहाँ तक कि सफल 'डायबिटीज़' कन्सल्टेंट भी बन सकता है, क्यों कि
उसके मीठे होने की आधिकारिक ख़बर प्रसारित-प्रचारित होते ही स्वयंभू डॉक्टरों की
फौज, जो किसी भी 'ताज़ा' मीठे आदमी के आसपास बड़ी तादात में आ जुटती है, और तुरन्त
फोकट की सलाहों का ढेर लगाकर आदमी को भारी आतंकित कर देती है, उसे इतनी सूचनाएँ
एवं ज्ञान पहुँचा जाएगी कि इन मुफ्त की सलाहों-सूचनाओं का उपयोग कर मीठा व्यक्ति
आसानी से प्रकांड विद्वान घोषित हो सकता है।
आदमी के संगी-साथी तो कई हो सकते हैं, परन्तु मीठे
आदमी का असली साथी डॉक्टर होता है, उसका असली माई-बाप। इन दोनों का साथ, दोनों में
से किसी एक के सिधारने के बाद ही टूटता है। दोनों चिरन्तन प्रेमी की तरह होते हैं।
पैथालॉजी वाले जैसे उसके रिश्तेदार से हो जाते हैं। रोज़ वहाँ जाकर जाँच के लिए खून
की भेंट चढ़ाना घर की सी बात हो जाती है।
हर मीठे आदमी के लिए शरीर में शक्कर की मात्रा का
चुम्मा-चुम्मा हिसाब-किताब रखना बही-खातों के हिसाब-किताब से भी ज्य़ादा
महत्त्वपूर्ण होता है। कितनी घट गई, कितनी बढ़ गई, बैंलेस शीट रखनी पड़ती है। घट
जाए तो मीठा ढूँढ़ते फिरो और बढ़ जाए तो इन्सुलिन। समय पर यदि यह दोनों चीज़ें नहीं
मिली तो सारी शक्कर मय शरीर के पंच तत्व में विलीन हुई समझो।
ये पैथालॉजियाँ न होती तो ग़ज़ब हो जाता। पैथालॉजी
वालों की ही मेहरबानी से रहस्य खुलता हैं कि आपने कितनी बोरी शक्कर अपने शरीर में
छुपा कर रखी है। एक आदमी की, खून में शक्कर जमा रखने की अधिकतम सीमा १४० बोरी है।
लेकिन कुछ खानदानी मीठे लोग ४००-५०० बोरी तक अपने छोटे से शरीर में छुपाए रखते हैं।
वे देश की महान स्टॉकिस्ट कहे जा सकते हैं। आप कल्पना कर सकते हैं उन गोदामों की
जहाँ शक्कर की बोरियाँ, थप्पियों में एक के ऊपर एक रखी होतीं हैं। शक्कर के मरीज़
आमतौर पर किसी गोदाम से ही दिखते हैं। सूजे हुए चेहरे वाले मोटे, तोंदू जो
उत्तरोत्तर 'सीकिया' होते जाते हैं। मैं जब भी किसी मोटे को देखता हूँ तो यही
अन्दाज़ लगाने का प्रयास करता हूँ कि आखिर यह कितनी शक्कर की बोरियाँ लिए घूम रहा
होगा। अन्दाज़ लगाना ज़्यादा कठिन नहीं है। आदमी बढ़िया दौड़-भाग रहा है, दबाकर
बरफी-गुलाबजामुन खा रहा है, तो समझ लो ट्रक ठीक-ठाक लोडेड है, आराम से घाटी-पहाड़
पार कर लेगा। आदमी मीठे से बिदक कर भाग रहा है, नाप-तौल कर खा-पी रहा है, तो समझ
लें थोड़ा ओव्हर लोडेड है। मीठे की तरफ़ देख भी नहीं रहा, चलते-फिरते लड़खड़ाकर
गिर-गिर पड़ता हो, आए दिन डॉक्टरों के पास बदहवास सा लेटा नज़र आता हो,
दवाओं-गोलियों से भी नाउम्मीद होकर बाबा रामदेव की शरण में पहुँच गया हो, तो समझलें
क्षमता से कहीं ज़्यादा शक्कर की बोरियाँ गोदाम में भरी पड़ी हैं।
सोचता हूँ जाँच के आधुनिक तरीके अगर ईजाद नहीं हुए
होते तो क्या होता? नमकीन लोगों की भीड़ में डॉक्टर लोग मीठे लोगों की पहचान आखिर
कैसे करते? मानव-मूत्र के सेम्पल को चीटियों के आस-पास छिड़क कर...? कितनी चीटियाँ
कितने समय में कितना सेम्पल चट कर जाती हैं, इसकी गणना कर? या मरीज़ को विशेष
प्रकार के चाटुकारों के ज़रिये ऊपर से नीचे तक चटवा कर? चलो भई, कल भूखे पेट आना
नहा-धोकर, चटवाई होगी। और फिर भरपूर खाना खाकर डेढ़ घंटे बाद फिर आना, पोस्ट मील
चटवाई होगी। स्वाद, मिठास की मात्रा के अनुसार इलाज तय किया जाता। मरीज़ कम मीठा है
तो कोई ख़तरा नहीं। ज़्यादा मीठा है तो परहेज़ शुरू। आदमी कुछ ज़्यादा ही मीठा पाया
गया तो परहेज़, एक्सरसाइज़, दवाओं के साथ-साथ ढेरों दुआएँ भी टेस्ट रिपोर्ट के साथ
बिल्कुल मुफ्त।
इस देश में परहेज़ एक ऐसा शाप है कि पूछो मत। सारी
दुनिया मीठों के सामने पकवान खाएगी और मीठा आदमी बेचारा मुँह ताकता रहेगा। उसे दया
की नज़र से देखा जाएगा। मौका मिलते ही एक्सरसाइज़ वगैरह का भी तकादा लगाया जाएगा।
हर वह आदमी उस गरीब को तरह-तरह की एक्सरसाइज़ों की सलाहें देगा जो कम्बख्त खुद अपनी
जगह से कभी हिलता-डुलता भी ना होगा।
मेरा सोचना है कि खानदानी अति-मीठों तो बेहद
सावधान रहना चाहिए, कब क्या हो जाए कोई भरोसा नहीं। चीटियों तक से दूर रहे तो अच्छा
है, कहीं हमला बोल पड़ी तो? गुड़ के डल्ले की तरह चन्द सेकन्डों में चट कर जाएँगी,
या शरीर की बोटी-बोटी नोच कर ज़मीन के नीचे अंधेरे बिल में ले जाएँगी, या कि पूरा
शरीर ही खींच कर ले जा सकतीं हैं। यह चीटियों की श्रद्धा पर निर्भर करता है।
समाज में आदमी की औकात के हिसाब से मीठापन पाया
जाता है। मेहनतकश मज़दूर है, मीठेपन का नामोनिशान नहीं मिलेगा। सरकारी दफ्तर के
बाबू-अफसर, बैठे-बैठे रोटी तोड़ने वाले हैं, मीठापन मिल सकता है। धन्नासेठ,
बड़े-बड़े व्यापारी, नेता-मंत्री, अफसर हों, शत-प्रतिशत मीठापन मिलेगा। जो जितना
दबाकर खा रहा है वह उतना ही मीठा मिलेगा, शरीर से भी और ज़ुबान से भी। जो जितना
ज़्यादा मीठा उसके लिए स्वर्ग के द्वार उतने ही ज़्यादा खुले हुए मिलेंगे, चौबीसों
घंटे, जब चाहो चले आओ, दरबान बिल्कुल नहीं रोकेगा।
आज के ज़माने में जब हर एक आदमी दुनियाभर की
कड़वाहट अपने भीतर भरा बैठा, रुखा, चिड़चिड़ा और सनकी होता चला जा रहा है, क्रूरता,
घिनौनेपन और अमानवीयता की मिसालें पेश करने में एक दूसरे से आगे निकलने के लिए
बेकरार है, तब काश यह कामना की जा सकती कि रक्त की यह मिठास थोड़ी-सी आदमी के
मन-मस्तिष्क में भी पहुँच जाए तो कितना अच्छा हो, सारा संसार मीठा-मीठा हो जाए।
परन्तु, यह असम्भव है, इससे आदमी के अन्तिम सफर का टिकट कटने में ज़रा-सी भी देरी
नहीं होगी।
२२ जून २००९ |