देश के कोने-कोने में, कबाड़ में दबे मिले
युद्धास्त्रों की ऐतिहासिक घटना से कबाड़ियों के लिए नई दुनिया का प्रादुर्भाव हुआ
है। नई परिस्थितियों के मद्देनज़र बेचारे हाथ से ठेला धका-धका कर दिन-दिन भर
यहाँ-वहाँ भटकने वाले आम कबाड़ियों के दिन फिरने, और जीवन सम्मानजनक होने की
सम्भावनाएँ प्रबल हुई हैं। वे भी उन कबाड़ियों के कौशल से सीख लेकर ज़रूर कल के
महान कबाड़ी बनने की दिशा में कदम बढ़ाएँगे, जिन्होंने तमाम सुरक्षा और चौकसी की
सफलता पूर्वक बखिया उधेड़ते हुए, कबाड़े में युद्धास्त्रों की आमद का रास्ता
प्रशस्त किया है। अब घर-घर घूमकर, तौल में डंडी मारते फिरने की कोई ज़रूरत नहीं रह
गई है, और ना ही बूँद-बूँद से घट भरने की चिर-प्रतीक्षा करने की। एक बार में गंगा
नहा लो।
इस देश में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं। देश-विदेश
से हथियारों-गोलाबारूद की, 'कबाड़` के ज़रिये 'तस्करी'? वाह... इससे मौलिक और अनोखा
आइडिया दूसरा हो ही नहीं सकता। कबाड़ का कबाड़, हथियार के हथियार। इधर कबाड़ बेचकर
पैसे बनाओं उधर हथियार बेचकर। (वैसे भी आजकल देश में हथियारों के खरीददार रात-दिन
बढ़ते ही जा रहे हैं। छोटे-मोटे लड़ाई झगड़ों के लिए लोग आत्मनिर्भर होते जा रहे
हैं, ख्वामखाह कानून व्यवस्था को ज़हमत देना नहीं चाहते। अपना हिसाब आप ही निपटाकर
बड़े पैमाने पर सामाजिक कर्तव्य निभाने में लगे हैं। कबाड़ी भी अपना कर्तव्य निभा
रहे हैं।) देश भर में सक्रिय इन क्षत्रियों की आत्मनिर्भरता को बनाए रखने के लिए
महीने, दो महीने में दो-चार 'मोटे' कन्साइन्मेंट देश के बाहर से लदवाओ और यहाँ लाकर
इन शूरवीरों तक पहुँचा दो। जिसे कबाड़ चाहिए कबाड़ ले जाए, जिसे रॉकेट लाँचर,
हथगोले बगैरह चाहिए, खुशी-खुशी अपनी पसंद के हथियार छाँटकर ले जाएँ।
मिसाइलों-विसाइलों की आपूर्ति चाहिए तो निस्संकोच होकर कहें, व्यवस्था की जाएगी।
भले ही बुश के खज़ाने में सेंध मारना पड़े। इस तरह कितनों को रोज़गार भी मिलता
रहेगा। सरकार को ख्वामख़ाह रोज़गार की चिंता में क्यों दुबला होने दिया जाए?
बुद्धिमान कबाड़ियों की इस क्रांतिकारी पहल से
कबाड़ के धंधे में एक नई व्यापार-प्रणाली चलन में आना सुनिश्चित है, जो गरीब
कबाड़ियों में सफल व्यापारिक घरानों-सी कुशाग्र बुद्धि और दूर दृष्टि को जन्म देगी।
वे महँगा सूट पहनकर देश के बड़े उद्यमियों में शामिल होने की होड़ में हिस्सा ले
सकेंगे। उनमें भी 'बाज़ार' को समझने की उन्नत समझदारी का जन्म हो सकेगा। वे धंधे की
बारीकियाँ सीखेंगे और, और भी ज़्यादा बारीकी से धंधा करेंगे। जैसे कहाँ के कबाड़
में हाथ डालने से कबाड़ के साथ-साथ दूसरी कीमती सामग्री भी बटोरी जा सके, जिस तरह
कुछ सौभाग्य शालियों ने रॉकेट-बम वगैरह बटोरे। बतौर उदाहरण शराब की खाली बोतलों के
साथ भरे हुए पौवे-अद्धियाँ, दवा की खाली शीशियों के साथ कीमती टॉनिक,
एन्टीबायोटिकों की भरी हुई शीशियाँ। टी.वी. फ्रीज के खाली
कार्टूनों के साथ साबुत टी.वी. फ्रीज इत्यादि। किताबों की
रद्दी के साथ ताज़ा छपा हुआ साहित्य, पुरस्कार प्राप्त पुस्तकें आदि-आदि।
कबाड़ी और पुस्तकों का चोली-दामन का साथ रहता है।
यदि इस व्यापार-प्रणाली के सफल क्रियान्वयन के ज़रिए, कबाड़ी को प्रकाशक के गोदाम
से सीधे, पुरानी साहित्यिक पुस्तकों की रद्दी के साथ किसी पुरस्कृत पुस्तक का ताज़ा
संस्करण तौल के भाव मिल जाए तो क्या कहने। पुरस्कार प्राप्त पुस्तकों का पुरस्कृत
होने के कुछ दिनों बाद तक अच्छा मार्केट रहता है। ड्राईंग रूम में सजाने के लिए
अच्छी जो रहती हैं। इससे घर में आने-जाने वाले लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
'बुकर', 'ज्ञानपीठ' या इतर पुरस्कार मिलने के बाद, ड्राईंग रूम में किताबों की
सजावट पसंद करने वाले लोग पागलों की तरह उस पुस्तक को खरीदने के लिए दौड़ पड़ते
हैं। भले ही उसे पढ़कर कुछ समझ में ना आए, कमरा तो सजता ही है। चाहे जो हो यदि
प्रकाशक के गोदाम से ऐसी कोई जुगाड़ हो जाए तो वह गरीब भी उस दूकान के बाहर अपना
ठेला लगाकर अर्थ-लाभ कमा सकता है, जिस दूकान के गल्ले पर पुरस्कृत लेखक खुद किताब
बेचने के लिए बैठा हो। आजकल अपने ऑटोग्राफ दे-देकर बिक्री में सहयोग करने का चलन
लेखकों में काफी बढ़ रहा है। अगर बाज़ार में पुस्तक अच्छी उठ रही हो, तो हो सकता है
कबाड़ी को लेखक की रायल्टी से भी ज़्यादा कमाई हो जाए।
यह सब कुशल एवं उन्नत प्रबन्धन के विषय हैं।
कबाड़ियों को सबसे पहले वह सब सीखना पड़ेगा जो एक अच्छा मैनेजमेंट स्कूल अच्छी फीस
लेकर सिखाता है। जैसे उन अड्डों की तलाश कैसे की जाए जिसे प्रबन्धन की भाषा में
'आइडेंटिफिकेशन ऑफ टार्गेट` या बोलचाल की भाषा में 'शिकार की पहचान' कहते हैं। यानी
पहले ऐसे अड्डों को चिन्हित करना जहाँ कबाड़ के साथ-साथ और भी लाभदायक कुछ हो। फिर
उस अधिकारी को ढूँढना एवं साम-दाम-दण्ड-भेद अपनाकर उस तक पहुँचना जो कबाड़ बेचने के
लिए अधिकृत हो। उससे टर्म एंड कंडीशन, कमीशन इत्यादि के सम्बन्ध में गुप्त चर्चाओं
के दौर चलाना। वैध-अवैध सब कुछ जाँच-परख लेना। भविष्य में जाँच इत्यादि के झमेले से
बचने के लिए जो कुछ भी अवैध है वह वैधानिक तरह से सम्पन्न हो, तो अच्छा है, बाद में
लफड़े नहीं होते। वैधानिक तरह से किए गए घपले आसानी से पकड़ में भी नहीं आते। कभी
पकड़ में आने भी लगे तो `विधान' सामने आकर आसानी से बचा लेता है। तो उस आदमी से
कबाड़ खरीदने से पहले 'उसे' खरीदने का व्यावहारिक प्रयास करना और फिर उसे इस बात के
लिए तैयार करना कि वह कबाड़ के साथ असल माल-असबाब बेचकर चतुराई पूर्वक समय का लाभ
उठाए। यह सब प्रबन्धन के महत्वपूर्ण पहलू हैं, कबाड़ के धंधे में तरक्की के लिए
जिनकी शिक्षा अब समय का तकाज़ा है।
मैं देश के बड़े-बड़े शिक्षा माफियाओं का ध्यान इस
ओर खींचना चाहता हूँ। (शिक्षा शास्त्री तो अब बचे नहीं सो शिक्षा माफियाओं का ही
ध्यान खींचा जा सकता है।) तो माफिया महोदय मेरी इस महत्वपूर्ण सलाह पर ध्यान दें कि
व्यापार प्रबन्धन की शिक्षा के क्षेत्र में, यह एक नया विषय हो सकता है जिसके
शत-प्रतिशत रोज़गारोन्मुखी होने की गारन्टी दी जा सकती है। इस रास्ते पर चलते हुए
देश की आर्थिक तरक्की की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सारी दुनिया तमाम टेक्नालॉजी
झौंककर युद्धास्त्र बनाए, और हम उन्हें कबाड़ में भरकर उठा लाएँ, इससे बड़ा नफे का
सौदा और क्या हो सकता है। शिक्षा के धंधे में लगे घराने इस पर विचार कर सकते हैं।
चाहे तो पुराने कॉलेज में नई फेकल्टी खोल ले या पूरा कॉलेज ही खोल लें। विषय नया है
और संभावनाएँ अन्तर्राष्ट्रीय है। बच्चों के माँ-बाप धपा-धप टूट पड़ेंगे। अपने
बच्चों को कुशल कबाड़ी बनाने की लिए कोर्स में धड़ाघड़ एडमिशन दिलवाएँगे। फीस तगड़ी
वसूली जा सकती है। कोर्स का नाम हो सकता है 'डिप्लोमा इन कबाड़ मैनेजमेंट'।
इधर-उधर के फालतू कोर्सों में पड़े लड़के-लड़कियों
के लिए भी यह एक ज़्यादा संभावनाओं वाला कोर्स साबित हो सकता है, जिसका डिप्लोमा
लेकर वे अपना भविष्य चमकदार बनाने का सपना देख सकते हैं। फॉरेन प्लेसमेंट की
संभावनाओं से भी इन्कार नहीं किया जा सकता, क्यों कि आज नहीं तो कल बडे देशों को भी
कबाड़ मैनेजमेंट का कौशल जानने वाले विशेषज्ञों की ज़रूरत पड़ेगी ही। आखिर आज जो
हथियार वे दना-दन बनाए चले जा रहे हैं, वह कल ज़रूर 'कबाड़' में तब्दील हो जाऐगा,
'चलें' तब भी, और 'ना चलें' तब भी। ऐसे में कबाड़ मैनेजमेंट के भारतीय विशेषज्ञों
के बिना दुनिया आखिर कैसे चलेगी। सो कम्प्यूटर, इलेक्ट्रानिक्स के बूम की समाप्ति
के बाद कबाड़ मैनेजमेंट का भविष्य ही सौ टका सुनहरा दिखाई देता है।
इस परिवर्तनकारी घटना से देश भर के कबाड़ी तो
उत्साहित हैं हीं, हथियारों के खरीददार भी बेहद खुश हैं। उन्हें हथियार खरीदने के
लिए दर-दर भटकना जो नहीं पड़ेगा। उनके लिए हथियारों की आपूर्ति कबाड़ी भाई आसान कर
देंगे। आंतकवादियों, नक्सलियों, चम्बल के डकैतों और शहर भर के चोर-उचक्कों को अपने
जीवन-यापन के लिए हथियारों की भारी आवश्यकता पड़ती है। यह घर पहुँच व्यवस्था उनके
लिए भारी सुविधाजनक रहेगी। दरवाज़े पर बैठ गए और कबाड़ी वाले से मोल-भाव कर सामान
उतरवा लिया या सीधे कबाड़ी के ठीये पर जाकर अपनी पसन्द का माल छाँट-छाँट कर अलग
निकलवा लिया और ठेले पर लदवाकर घर भिजवा दिया।
जिस तरह हम देश में चने, मूँगफली
या सब्ज़ी का ठेला लगाने वालों के धन्ना सेठ बनने की कहानियाँ सुनते आए हैं, उसी
तरह अब कबाड़ियों के शौर्य की कहानियाँ भी सुनी-सुनाई जाएँगी। जैसे हम सुनते रहते
हैं, ''फलाँ आदमी चने बेचता था आज सबसे बड़ा हीरा व्यापारी है।'' हम गर्व से कह
सकेंगे कि, ''देखों यह उस कबाड़ी का कार्पोरेट ऑफिस है, जो हमारी गली में कबाड़ के
लिए गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाता था।'' या, ''देखो यह उस कबाड़ी की २६ मंज़िला
बिल्डिंग है जिसे हमने रद्दी की तौल में डंडी मारते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया था।''
जो भी हो, उन्नत व्यापार की यह प्रणाली भारतीय आम
कबाड़ियों के लिए उन भारतीय कबाड़ पन्डितों की महान देन हैं, जो व्यापार के क्षेत्र
में पहली बार 'नोबल` पुरस्कार पाने के लिए सबसे सशक्त दावेदार हो पड़े हैं। सदी का
सबसे बड़ा व्यापार मंत्र, भारत में ही अविष्कृत हुआ है, इसलिए इसके प्रणेताओं की
जल्द से जल्द खोजकर उन्हें नोबल पुरस्कार से नवाज़ा जाना चाहिए।
बहुत-सी संभावनाएँ तो अब
भी अदृष्य हैं और मेरे भी ज़हन में नहीं है। मैं तो दिनों-दिन कबाड़ से युद्धास्त्र
निकलने की घटना को टकटकी बाँधे देख रहा हूँ और आगे निकलने वाले 'असलहे' को भविष्य
की और भी विराट संभावनाओं के रूप में देखने की मानसिक तैयारी कर रहा हूँ। क्या पता
किसी कबाड़ी के यहाँ कोई लड़ाकू टैंक-वैंक ही मिल जाए, या फिर एखाद फायटर प्लेन
कबाड़ में कहीं दबा पड़ा हो... और भविष्य में बरामद होने वाला हो। संभावनाएँ अनंत
हैं बस भारतीय राजनीतिज्ञों, सुरक्षा एजेंसियों, ब्यूरोक्रेटों-सी
दृढ इच्छा शक्ति भर चाहिए। हमें तो हमेशा उत्साह से लबरेज़ ही रहना चाहिए।
१८ मई २००९ |