लूट चाहे राम-नाम की ही क्यों न हो, रामभरोसे
रहनेवालों के हाथ कुछ भी आनेवाला नहीं। यहाँ तो गीता की शरण जाना ही अभीष्ट है-
कर्मण्ये वाधिकारस्ते, अर्थात लूटने के कर्म का पूरा अधिकार है तथा लूटने के बाद
क्या होगा- मा फलेषु कदाचन। इसकी चिंता मत कर।
लूटने को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया जा
सकता है। व्यक्तिगत लूट और सामाजिक लूट। सामाजिक लूट को पारिवारिक लूट, क्षेत्रीय
लूट, राष्ट्रीय लूट एवं अंतर्राष्ट्रीय लूट में वर्गीकृत किया जा सकता है। धार्मिक
लूट राजनीतिक लूट के अनुरूप व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों में समान अर्थ रखती है।
हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी में लूट क्रिया, कर्म भी
है और भाग्य भी। कर्मवादी संपूर्ण बुद्धि, शक्ति, चातुर्य, छल-प्रपंच से लूटते हैं
तो भाग्यवादी 'अजगर करे न चाकरी' वाले फॉर्मूले से लूट में से अपना हिस्सा घर बैठे
प्राप्त करते हैं। भाषिक लूट और साहित्यिक लूट का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि
लूट लकार और धातु में अभिन्न संबंध है। क्यों कि धातु की लूट ही सर्वश्रेष्ठ मानी
जाती है। तथापि शब्दों और शैली की लूट का अपना पृथक इतिहास है। जहाँ तक साहित्य में
लूट का प्रश्न है, पुरस्कारों/सम्मानों की लूट की तो छूट है ही, रचनाओं की लूट के
भी कीर्तिमान साहस और सामर्थ्य के अनुरूप स्थापित हैं। भाषांतर/भावांतर/रूपांतर
जैसे अस्त्रों के बल पर माफियाओं का साहित्य में दबदबा ही नहीं, आतंक भी है। श्लोक
का दोहा, दोहे की ग़ज़ल, ग़ज़ल की कव्वाली, कव्वाली का हाइकु, हाइकु की कहानी के
मैटीरियल की लूट के चमत्कार के समक्ष राजनीतिक आतंकवाद संधि करने का दंडवत करता है
तो शोध कार्यों की जस-की-तस लूट न केवल 'लूट' के महत्व का प्रतिपादन करती है अपितु
क्रिया, कर्म के साथ कर्ता की वीरता का झंडा भी ऊँचा करती है।
फिल्मी भाषा और फ़िल्मी साहित्य अब चूँकि भाषा
साहित्य का अभिन्न एवं महत्त्वपूर्ण अंग है, इसलिए 'लूट सर्वत्र व्याप्ते' की तर्ज़
पर हमें तो लूट लिया मिलके... भरतपुर लुट गयो रात मेरी अम्मा... पूरी फ़िल्म
रैली...
सिकंदर, तैमूर, फ्रांसीसी, अंग्रेज़, शक, हूण,
जर्मन- अब जिसकी ताक/घात लगी, लूटकर ले गए। तो न जाने कितने 'लट' कर यहाँ के हो गए।
लूट का पूरा पता तो तब चलेगा जब दूसरे ग्रहों पर भाषा-संस्कृति, योग-वियोग बरामद
किए जाएँगे।
लूट केवल नेता, व्यापारी, लेखक ही नहीं करते हैं।
दर्शक, पाठक, श्रोता, उपभोक्ता, ग्राहक, मतदाता भी पीछे नहीं हैं। दर्शक चक्षुरस,
श्रोता कर्णरस, पाठक पठरस लूटता है तो ग्राहक एक दो मूल्य में दो, चाँदी, सोना और
सिक्के बंपर प्राइज में कार भी लूट ले जाते हैं। दर्शक कवि की जोकरी देख लोट-पोट हो
जाते हैं। श्रोता द्विअर्थी, बहुअर्थी संवादों से कल्पनाओं के नग्न चित्र लूटते
हैं, तो मतदाता वोट के बदले नोट, थैली, झंडी, पोस्टर और बीड़ी ही लूटते देखे जा
सकते हैं।
लूटना और लुटना एक-दूसरे के सहयोगी हैं। एक के
बिना दूसरे की कल्पना ही निराधार है। कई बार तो पता ही नहीं चलता कि लुट कौन रहा है
और लूट कौन रहा है? लुटता दिखनेवाला ही लूटनेवालों को लूट ले जाता है। ये
कारीगरी/जादूगरी गली, नुक्कड़, सड़क, बस-रेल, महफ़िल में सर्वत्र सर्वदा देखी जा
सकती है। लंगर, विद्यालय, गोशाला, भंडारा आदि करते हुए दोनों हाथों लुटाते
दिखनेवाले कितने शालीन ढंग से लूटते हैं, इसे वे भी नहीं जान पाते जो लुटते हैं।
मज़ेदार स्थिति तो तब होती है जब लूटनेवाले लुटने
के लिए बेचैन घूमते हैं। विनय-याचना, आग्रह, सॉर्स, फोर्स- सबका प्रयोग करते हैं,
फिर उन्हें लूटनेवाला नहीं मिलता। मंच पर चिल्लाते कवि की कविता लूटना तो दूर कोई
सुनता तक नहीं। बेचारा कवि कविता का गट्ठर लिए घूमता है कि कोई श्रोता-समीक्षक लूट
ले। ब्रजवासी चाहते हैं कि कन्हैया उनके माखन/प्रेम को लूटे। भक्तों की आकांक्षा
रहती है कि भगवान यदि न लूटें तो कोई तैमूर सरीखा ही लूट ले जाए। इसके अतिरिक्त ऐसे
लोग भी हैं जो अन्याय, अत्याचार, आतंक, डेमोक्रेसी से तंग आकर चाहते हैं कि यमदूत
उनके प्राण लूट ले जाए, परंतु जब ऐसा नहीं होता तो वे डूबकर, लटककर, सल्फास खाकर ही
अपने प्राण लुटा देते हैं।
सप्तवर्षियों को लूटकर वाल्मीकि ही संत कवि नहीं
बन गए, सिकंदर अधिकांश देशों को लूटकर अपना नाम अमर कर गया। जो मत और मतपेटियाँ लूट
सके, वे बड़े-बड़े मंत्री तक बन गए और लूटने का हौसला न कर सकनेवालों की ज़मानत
जब्त होकर राजनीति से बाहर हो गए और राजनीति को ही गालियाँ देने लगे। धोबी के
कुत्ते की भाँति न घर के रहे और न घाट के, जबकि सीना तानकर लूटनेवाले वीरप्पन बन
गए।
जो दस लकीरों को रटते रहे, संस्कृत में फेल हो गए
और केवल लूट लकार का आचरण करनेवाले आचार्य/प्राचार्य और न जाने क्या-क्या बन गए।
साधना करनेवाले आराधना करते रहे और केवल शीर्षक बदलकर पूरी की पूरी रचना/पुस्तक
उड़ानेवाले पुरस्कार के साथ नमस्कार के अधिकारी बन गए। जिनकी प्रशंसाओं के कालपात्र
किसी युग में खोदकर निकाले जाएँगे तो वे महाकवि, महान लेखक, महान दार्शनिक, महान
राजनीतिज्ञ माने जाएँगे ही। आज भी साहित्य मंदिरों में विराजकर उन लेखकों और
रचनाकारों पर कुटिल मुसकान बिखेरकर चिढ़ा रहे हैं, जो लूटने का साहस न कर सके।
जब से लूट लकार का संस्कृत से लोप हुआ, तभी से
संस्कृत बोलचाल की भाषा नहीं रहीं। संस्कृत को लूटनेवाली भाषाएँ उससे आगे निकल गईं।
अंग्रेज़ी के वैश्वीकरण का प्रमुख कारण लूट की छूट है। उसने रोमन की लिपि ही नहीं
लूटी, फ्रेंच, फारसी, अरबी, जर्मन, रशियन, हिंदी आदि भाषाओं के शब्द जमकर लूटे और
आज सबको सिरमौर। बेचारे हिंदीवाले हिंदी औऱ हिंदीवालों को ही लूट रहे हैं।
थोड़ा-बहुत प्रयास फारसी की ग़ज़ल ने उर्दू के गलियारे से लूटने का किया भी, सो पचा
न सके। अब हाइकु को उड़ा रहे हैं, जो हिंदी के चुटकुले का मुकाबला भी नहीं कर पा
रहा है। ऐसा इसलिए है कि पूरे मनोयोग और ईमानदारी से लूटने का उपक्रम नहीं हो रहा।
३ अगस्त २००९ |