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हास्य व्यंग्य

जीवन दो दिन का  
शरद तैलंग


कुछ दिनों से लोग मुझे कुछ सिरफिरा समझने लगे है। सबको शिकायत है कि शहर में एक नामी संत के प्रवचन का आयोजन चल रहा है और मैं अपने घर पर ही पड़ा रहता हूँ। अधर्मी व्यक्तियों के लिए जितने भी विशेषण हो सकते है उन सभी से वे मुझे सम्मानित कर चुके है। एक दिन मैंने भी तय कर ही लिया कि जब पूरे शहर के कुछ पुरुष एवं बहुत-सी महिलाएँ वहाँ जाते हैं तो मैं भी अपनी जन्मपत्री में ठोकर मार ही दूँ। जितना बड़ा पंडाल एवं धन उस प्रवचन के आयोजन के लिए लगाया गया था उसके अन्दर तो सैंकड़ों गरीब एवं मध्यमवर्गी जोड़ों के सामूहिक विवाह का आयोजन सम्पन्न हो सकता था। संत जी जन समुदाय को जो बातें बता रहे थे सभी लोग उन बातों को अनेक बार सुन चुके थे तथा सब कुछ जानते हुए भी इस तरह सुनने में व्यस्त थे जैसे पहली बार ही सुन रहे हो। उन्होंने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहस्योद्घाटन किया कि ये जीवन दो दिन का है। मैंने अपने पास में बैठे एक सज्जन से पूछा, ''भाई साहब क्या जीवन वास्तव में दो दिन का ही है?''
वे बोले, ''हाँ जब ये कह रहे हैं तो दो दिन का ही होगा।''
मैंने पूछा, ''इनका ये कार्यक्रम कितने दिन और चलेगा?''
वे बोले, ''सात दिन।''
''पर जीवन तो दो ही दिन का है, बाकी पाँच दिन का क्या होगा?''
वे बोले, ''दो दिन का मतलब दो दिन नहीं होता ज़्यादा होता है।''
मैंने पूछा, ''कितना होता है?''
वे बोले, ''इसका किसी को पता नहीं वो तो कहने के लिए दो दिन का होता है मानने के लिए नहीं।''
''जब इनकी बाते सिर्फ़ कहने के लिए ही हैं मानने के लिए नहीं तो फिर सुनने से क्या लाभ?''
''हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश तो ज़िन्दगी में लगा ही रहता है। यहाँ तो सब सुनने के लिए ही आते हैं यदि उन बातों पर अमल करेंगे फिर तो सभी संत नहीं हो जाएँगे।''
मुझे उनकी बातें संत की बातों से अधिक प्रभावशाली लग रहीं थीं।
मैंने उनका पीछा नहीं छोड़ा, ''पर एक और दूसरे संत हैं वो तो कहते हैं कि दो दिन का तो जग में मेला होता है और चार दिन की जवानी होती है।''
''वो ग़लत कह रहे हैं। कहने वाले तो जीवन और मेले को भी चार दिनों का भी कह सकते हैं और दस दिन का भी। खुद हमारे शहर में मेला पन्द्रह दिन का होता है। कई लोग तो चाँदनी भी चार दिन की बताते हैं पर होती कहाँ है। अभी इस संत का प्रवचन चल रहा है तो जीवन दो दिन का ही मानना पड़ेगा दूसरे संत का चलेगा तो वे जितने दिन का कहेंगे उतने दिन का मान लेंगे।''
''दूसरे संत दो दिन का मेला क्यों बताते हैं?'' मैंने फिर पूछा।
''ये दूसरे संत जो दो दिन का मेला बता रहे हैं क्या इन संत से बड़े हैं।''
''अब संत तो संत ही होता है उसमें क्या बड़ा और क्या छोटा।''
''वाह ऐसे कैसे बड़ा छोटा नहीं होता है। क्या उनके लंबी-लंबी दाढ़ी है? क्या वे सिर्फ़ धोती ही पहनते हैं और नंगे बदन रहते हैं? क्या बहुत-सी साध्वियाँ उनके साथ-साथ चलती है? क्या वे हवाई जहाज़ से यात्रा करते हैं? क्या उनके फ़ोटो महलों से शौचालयों तक लगे रहते हैं? क्या बड़े-बड़े नेता भी उनसे आशीर्वाद लेने आते हैं? क्या उनके बड़े-बड़े आश्रम हैं? यदि ये सब विशेषताएँ उनमे हैं तभी वे बडे संत कहलाएँगे।''
''नहीं वे दूसरे संत तो साधारण कपड़े ही पहनते है लेकिन है बहुत ज्ञानी।''
''काहे के ज्ञानी। संत होने के लिए तो गैटअप भी तो संत जैसा होना चाहिए नहीं तो कौन उनको संत मानेगा। खाली ज्ञान या विद्वान होने से ही कोई संत थोड़े ही हो जाएगा।''
''लेकिन हम ग़लत बात क्यों मानें कि जीवन दो दिन का है?''
''नहीं मानोगे तो उनके भक्त तुम्हारे घर में तोड़-फोड़ कर देंगे और यदि उनको ज़्यादा गुस्सा आ गया तो तुम्हारी हत्या भी कर सकते है। संतों की बातों का अनुसरण उनके अनुयायियों के लिए करना आवश्यक नहीं है फिर तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारा जीवन भी दो ही दिनों का था। उनके सामने बड़े-बड़े सूरमा भी कुछ नहीं कर सकते। मैं ही कौन-सा उनकी बात मान रहा हूँ। मेरा तो जीवन हर माह की पहली तारीख को शुरू होता है तथा छह सात दिन चलता है उसके बाद तो मरण ही मरण है। कई लोगों का पन्द्रह दिन का हो जाता है। राज नेताओं का चुनाव नतीजे आने के बाद शुरू होता है तथा उनका जीवन जीवनभर या कई-कई पीढ़ियों तक चलता है।

मैंने एक दूसरे सज्जन से जो उन संत का प्रवचन कम और इधर उधर अधिक देख रहे थे से भी पूछ ही लिया कि क्या उनका जीवन भी दो दिन का ही है।
वे बोले, ''मेरा जीवन तो इन जैसे संत महात्माओं के प्रवचन के इन कार्यक्रमों के चलते रहने से ही चलता है इस आयोजन में टेन्ट तथा दरी गद्दों का ठेका मेरे ही पास है अब चाहे वो दो दिन का बताएँ या दस दिन का। जीवन जितने अधिक दिनों का बताएँगे मेरे लिए तो उतना ही अच्छा है। तुम्हें यदि दो दिन का कम लगता है तो तुम चार दिन का मान लो। तुमने क्या सुना नहीं कि 'उम्रे दराज माँग के लाए थे चार दिन दो आरजू में कट गए दो इंतज़ार में'। इससे तो यही जाहिर होता है कि जीवन दो दिन का हो न हो चार दिन का तो होता ही होगा। बहादुर शाह ज़फ़र की आत्मा उनके शरीर में प्रवेश करके बाहर निकल गई थी।
''परन्तु कुछ मापदंड तो हो कि जीवन दो या चार दिन का किस हिसाब से है।''
वे बोले, ''मान लीजिए मनुष्य की आयु १०० वर्ष है तो फारमूला यह है कि मनुष्य की आयु को दो से या चार से भाग दीजिए फिर जो भागफल आए उतने वर्ष को एक दिन के बराबर मान लेना चाहिए। वैसे यहाँ प्रवचन सुनने कुछ ऐसे भी है लोग आए हुए है जिनको अपना जीवन पारिवारिक कलह, ज़मीन जायदाद के झगड़ों, शारीरिक कष्ट, संतान के भविष्य की चिन्ता, बेटे बहुओं के दुराचरण तथा अनेक कठिनाइयों से एक दिन का भी भारी लग रहा है। संत के प्रवचन में जीवन को दो दिन का सुन कर कम से कम वे कुछ समय के लिए संभवत: यह सोचकर खुश तो हो लेते होगे कि चलो अब वो दो दिन करीब ही होंगे जब उनके कष्टों का अन्त होने वाला होगा।

मैं यह सोच कर घर वापस आ गया कि जब जीवन के बारे में ही अलग-अलग मत हैं तो अपना जीवन किसी अच्छे काम में ही क्यों न लगाऊँ क्यों कि मेरे हिसाब से तो जीवन का कोई भरोसा नही कि वह कितने दिन का हो।

२३ फरवरी २००९

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