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जैसे ही खबर आई कि हिन्दी के एक जाने माने गुमशुदा 
कवि, लेखक व आलोचक को दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्हें अस्पताल मे भर्ती किया गया 
है, प्रिन्ट व इलौट्रौनिक मीडिया सीधे अस्पताल की ओर दौड़ पड़े।
पहुँचते ही आदत के अनुसार उन्होंने सवालों की झड़ 
लगानी शुरू कर दी। कब क्यों कैसे... आदि-आदि तभी एक रिपोर्टर ने सवाल किया,''दिल का दौरा पड़ने का कोई ख़ास कारण?''
 भीड़ में एक नेतानुमा साहित्यकार दिखने वाले व्यक्ति ने तुरन्त जबाब दिया,
 ''शायद साहित्यिक पुरस्कारों से वंचित रहना...''
 
ये क्या बेहूदा जबाब है प्रश्नकर्ता ने इसे घूरते हुए कहा। ये बेहूदा नहीं बिल्कुल 
सही और सटीक उत्तर है जनाब। जैसे अचेतन को साँस, मृतक को प्राण, खुजली वालों को नाखून 
व गंजे को बाल मिल जाने पर जैसे उनके चेहरों पर रौनक आ जाती है वैसी ही 
रौनक लेखकों व कवियों के चेहरे पर पुरस्कार व पुरस्कार की घोषणाओं दिखाई देने लगती 
है। यह उनके जीवन मे संजीवनी का 
काम करती है। भाषण की मुद्रा में आते ही महाशय शुरू हो गए और 
कहने लगे... अब देखिए ना जैसे आप सभी जानते हैं कि आदमी एक सामाजिक प्राणी है। अपने 
प्राणों की आहुति देकर भी समाज में उसको औरों से ऊपर उठकर विशेष ओहदा बनना ज़रूरी 
हो जाता है। इसे संक्षेप में सोशल स्टेटस के नाम से जानते हैं। ये सोशल स्टेटस भी कभी-कभी 
अच्छे अच्छों की ऐसी तैसी करके छोड़ता है उदाहरण के लिए किसी बड़े आदमी के 
फंक्शन में अगर फिल्मी हस्तियाँ ना आएँ खासकर जब तक विपाशा वासू बीडी जलाये ले वाले गाने 
में अपने जलवे व ठुमके न लगाए तब तक वहाँ पर आए मेहमानों पर उस परिवार का रौब  
नहीं पड़ता। ठीक इसी तरह कोई भी लेखक या कवि चाहे कितना ही बढ़िया लिखता हो उसकी तब तक पूछ 
नहीं होती जब तक उसे पुरस्कार न मिले। भलो ही ये पुरस्कार कैसे भी हों, किसी भी 
जुगाड़ से मिले हों पर होने चाहिए।  आज के ज़माने में 
पुरस्कार अब केवल दिखावा है। मंचों 
से कवि और कलाकार स्वयम यह कहते सुना जा सकता है कि ''आप की अनुकंपा से कि मुझे ये 
पुरस्कार मिला... वो पुरस्कार मिला'' अपने आप हथियाए गए पुरस्कारों की एक लम्बी 
लिस्ट पढ़े बिना वे मंच से नहीं उतरते। मेरे मकान के साथ लगे चौथे मकान पर हिन्दी के एक 
अच्छे लेखक रहते है उन्होंने हिन्दी की बड़ी सेवा की है। मैंने जान बूझकर जाने माने 
नहीं लिखा क्यों कि उनको जानते तो सब है पर साहित्यिक क्षेत्र में रहने वाले उन्हें 
मानते कुछ भी नहीं। जब भी पूछो कैसे हो क्या हो रहा है तो उनका नपातुला जबाब होता है 
जीवन के अतिम पड़ाव में हूँ बस लिखे जा रहा हूँ। एक रोज़ मैंने पास जाकर उनकी दुखती 
रग पर हाथ रख कर पूछ लिया... ''आपने तो ज़िन्दगी भर लिखा है। अपनी मातृभाषा की 
सेवा की है। इसके ऐवज में आप को कोई पुरस्कार उरस्कार भी मिला या नही...'' पुरस्कार 
का ज़िक्र आते ही वे आसमान की ओर निहारने लगे है और पल भर के बाद बोले, ''...पुरस्कार... अभी तो नहीं... शायद... मरने के बाद नसीब हो।'' 
कहकर वे अन्दर चले गए। पुरस्कार न पाने की पीड़ा उनके चेहरे पर साफ़ देखी जा 
सकती थी। यहाँ पर मैं एक बात साफ़ कह देना चाहता हूँ कि उन्होंने इस पुरस्कार को 
लेकर कभी भी कोई शिकायत नहीं की और ना हीं कभी पाने की कोशिश की।
 वही कवि महोदय रोज़ की तरह अगले दिन भी सुबह सुबह अखबार 
पढ़ रहे थे जिसमें समाचार कम हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती ज्यादा थीं। हालाँकि इस 
तरह की खबरो में उनकी कोई रुचि नहीं थी परन्तु एक ऐसी खबर ने उनका ध्यान अपनी ओर 
खींचा जिसे पढ़े बिना वे नहीं रह सके। मोटे मोटे अक्षरों में लिखा था- ''एक विदेशी 
प्रवासी हिन्दी में उत्कृष्ट योगदान के लिए पुरस्कृत।'' उनका माथा ठनका, सोचने लगे 
''विदेशी...वो भी प्रवासी... ये बात जम नहीं पा रही है। माना विदेशी...वो तो ठीक है 
ऊपर से प्रवासी... क्या मतलब? या तो विदेशी कह
लो या फिर प्रवासी। थोड़ा और अन्दर झाँक कर पढ़ा तो पता चला इनके दादा के 
दादा भारत से काफी अर्सा पहले भारत को छोड़कर विदेश गमन कर गए थे याने सौ साल 
गुज़रने के बाद इनके पीछे प्रवासी शब्द आ चिपका।  वे तार तार हो गए.. जब देखो हिन्दी के और हिन्दी 
के नाम पर ज़्यादा से ज्यादा पुरस्कार विदेश में रहने वाले ही खींचकर ले जाते है। 
सच्चा हिन्दी साहित्यकार और सच्चा हिन्दी सेवक देशवालों से भी पिटता है और 
प्रवासियों से भी। जो जिस दर्द का मारा होता है उसे उस दर्द का ज्ञान होता है जाके 
पैर न फटी बेवाई सो क्या जाने पीर पराई। यहाँ भी तो यही हो रहा है। कवि जी फिर 
सोचने लगे ''पुरस्कार...'' कौन-सा... किस नाम से... किस के द्वारा... कितने का... 
आजकल लाख दो लाख का लगता है जैसे सौ दोसौ रुपए का हो। ऐसे पुरस्कार पाने वाले और 
देने वालों की सख्या भी हज़ारों लाखों में पहुँच गई है। पुरस्कार न हुआ 
रेवड़ी हो गई। भाई कवि है तो... ज़ाहिर है कवि को कवि से ही जलन होगी। कवि से जलन नहीं होगी तो क्या 
मिरासी होगी? सीधा-सी बात है, इस प्रकार की पुरस्कार की घोषणा उनकी आत्म सम्मान पर 
चोट लग गई।  फिर उनके मन में एक सवाल कौंधा। ये महाशय अगर 
विदेश से है तो कौन से देश से है। क्या ये अमेरिका, कैनडा से है या योरोप, मिडलईस्ट 
या फिर वेस्टइन्डीज़ से क्यों कि जहाँ तक पुरस्कारों का सवाल है,
भारत में पुरस्कार भी 
सबको देश के अनुसार ही दिया जाता है जो जितना अमीर देश से होगा उसको उतना ही ऊँचा 
और मँहगा पुरस्कार दिया जाएगा चाहिए उसने भले एक ही कविता क्यों नही लिखी हो या एक 
छोटी पत्रिका निकाली हो। खबर में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई वो उसे बड़े गौर से पढने 
लगे थे। पढ़ते पढ़ते सोचने लगे कि आखिर ये पुरस्कार उन्हें किस विधा पर दिया जा रहा 
होगा कविता, गीत, लेख, आलोचन, आलेख या फिर टी.वी. सीरियल पर। ऐसा कुछ भी तो नहीं 
लिखा था। हाँ... सीरयलों का ज़िक्र आया तो आजकल जिसे देखो 
हाथ में मोबायल बगल में एक फाईल दबाये चार आदमियों के बीच ऐसे दिखावा करते है कि 
जैसे जाने कितने व्यस्त हो और पूछो तो कहेंगे- फला सीरियल लिख रहा हूँ। फलां फ्लोर 
में है। चार पाँच पर बातचीत चल रही है। देखा जाय तो ये लोग हिन्दी के लेखकों से कई 
गुना अच्छे है। नाम का नाम हो रहा है और दाम के दाम कूट रहे है। सरकार को चाहिए 
इनके लिए अलग से एक नया पुरस्कार शुरू करे जैसे टी वी साहित्य शिरोमणि। छोटे पर्दे 
का बड़ा बादशाह आदि आदि। मेरे देश मे इन पुरस्कारों का इतना महत्व है कि कई 
लोग इस पर पी-एच. डी. ले सकते है। अब यह दूसरी बात है कि पीएच.डी. भी पुरस्कार की 
तरह 
बिना लौबी से जुड़े तो मिलने से रहा। आप लेफ़्ट से जुड़ना चाहेंगे या राईट से। वैसे 
लेफ़्ट में ज़्यादा फ़ायदा है क्यों कि आजतक जितने भी पुरस्कार मिले है उनमें लेफ़्ट 
से जुड़े हुए लोग अधिक हैं यकीं नहीं होता तो लिस्ट उठाकर देख लें। पर इन कविजी का 
क्या होगा जे ना तो लेफ़्ट से है और ना राईट से। ये बेचारे तो सीधे साधे विचार धारा 
से जुड़े हैं।  लौबी की बात आई तो मेरे देश में इन दो लौबियों के 
साथ-साथ विदेश लौबी का भी बड़ा हाथ है विदेशी लेखक हो और उसके पीछे विदेशी लौबी ना 
हो ये कैसे हो सकता है। यहाँ के लेखकों में अपने प्रचार प्रसार के पर्याप्त साधन और 
सुविधायें है। पैसा है और ब्रॉड बैंड है जिसके द्वारा वो भारत जैसे गरीब देश से 
किसी भी पुरस्कार को हथियाने का माद्दा रखते हैं। २० अप्रैल २००९ |