हास्य व्यंग्य | |
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चार
निलंबितों की वार्ता |
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चार निलंबित जन सिर पर हाथ धरे
गंभीर मुद्रा में बैठे हुए थे। बाद में प्राणायाम में रत हो गए। काफी देर तक सिर झुकाए रहने के बाद एक ने सिर उठाकर कहा, ''हमारे साथ सरकार ने अन्याय किया है। क्या एक हमीं हैं, जो ग़लत काम करते हैं? और भी कई लोग भ्रष्टाचार कर रहे हैं, जिन्हें 'सस्पेंड किया जाना था, लेकिन गाज गिरी हमारे ऊपर। मैं समझ नहीं पाता कि आखिर सरकार छापामार कार्रवाई काय कूँ करती है? हमें मौका दिया है तो क्या उसका लाभ भी न उठाएँ? हर कोई सरकारी नौकरी में माल सरकाने की नीयत से ही तो आता है न। दूसरा निलंबित होने के बाद कुछ-कुछ दार्शनिक किस्म का हो गया था। किसी पुराने निलंबित अधिकारी से मिलिए, तो वह दार्शनिक जैसा व्यवहार करता है। लोग उसे पागल भी समझते हैं, लेकिन वह निलंबन के कारण चिंतक हो जाता है। ज्ञानचक्षु खुल-से जाते हैं। दार्शनिक बने निलंबित अधिकारी ने कहा, ''हाँ भई, आप ठीक कहते हैं। लेकिन कहा गया है न कि जब ससुरे बुरे दिन आते हैं तो वे मोबाइल या एसएमएस करके नहीं आते कि भैये, अब हम तुम्हारे पास पहुँचने वाले हैं। वैसे सच पूछा जाए तो हमने न जाने कितने लोगों का बुरा ही किया। अब, जब अपनी बारी आई है तो निलंबित होने का खिताब पाने का दु:ख क्यों करें? हाय, दु:खी हो कर मेरे भीतर से अचानक एक कविता भी फूट पड़ी है, सुन लो- ''दोस्त, रिश्तेदार सारे सब अचंभित हो गए। दूसरे ने तीसरे से पूछा, ''अच्छा
प्रियतम जी, आप किस आरोप में निलंबित हुए थे?'' तीसरे जेलप्रसाद ने कहा, ''मैं भी तो रिश्वतखोरी के मामले में निलंबित हुआ था। अपने देश में ज़्यादातर निलंबन रिश्वत के मामले में ही होते हैं। तो भाई साहब, मैं आपको बताऊँ, कि जब मैं टिम्बकटू में पोस्टेड था तो मानो स्वर्ग-लोक में पहुँच गया था। पैसा खुद चल के मेरे पास आता था और कहता था, कि 'सर प्लीज, कैच मी'। मैं कैच कर लेता था। घर आई लक्ष्मी को कौन ठुकराता है भला? लेकिन इस समाज के कुछ दुर्जन किस्म के लोगों से हमारा सुख न देखा गया और मेरे खिलाफ 'बदमाशों' ने शिकायतें शुरू कर दीं। आखिरकार मैं बाहर के भाव में चला गया। साल भर हो गए निलंबन के। कोई ऊपरी कमाई नहीं। तनखा भी कटकर मिल रही है। ये तो अच्छा हुआ कि हराम की कमाई का 'बैंक बैलेंस' जमा कर चुका था, वरना अपने जो शौक हैं, उनकी पूर्ति कैसे हो सकती थी?'' चौथे निलंबित काष्ठकुमार छाती पीटते हुए कहा, ''मेरी कथा भी सुन लो भई। मेरे हाथ में तो पूरा जंगल था। जंगल में मंगल ही मंगल था। बस, एक दिन एक शैतान मन में आ बसा। गाय-बकरियों को घास-पत्ता चरते देखते रहता था। अपने मन में भी एक दिन विचार आया कि क्यों न अपन भी पूरा जंगल का जंगल चर जाएँ। जो काम गाय कर सकती है वो मनुष्य क्यों नहीं कर सकता है? कुछ पाने के लिए त्याग तो करना ही होता है। बिना त्यागी बने, सुख नहीं मिलता। सो, मैंने भी अपने आदर्श का त्याग कर दिया और लगा जंगल खाने। उधर जंगल कम होता गया, इधर मेरी हवेली तनती गई। पैसा आता गया तो हम भी तनते गए। तनते-तनते एक समय ऐसा भी आया, जब मेरा घर एक दर्शनीय स्थल में तब्दील हो गया। लोग शहर आते तो लोगों से पूछते शहर के दर्शनीय स्थलों के नाम बताइए। हर कोई मेरे महल का नाम बता देता। बस, नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर। लोगों की नज़र लग गई। सरकार के दोनों कान भर दिए गए। और एक दिन घर पर ज़बर्दस्त छापा पड़ा और अपुन का काम हो गया। जंगल का अमंगल करने के चक्कर में हमहू निलंबित हो गए। कभी हम निलंबन आदेश को, कभी अपने महल को देखते हैं। जंगल साफ़ होने से बच चुका है। यही मेरा सबसे बड़ा दु:ख है। मूरख सरकार। झाड़-झंखाड़ का करेगी क्या? मुझे चरने देती, महल बनाने देती, लेकिन बड़ी क्रूरता के साथ मेरे ऐशोआराम के सारे सामान जब्त कर लिए गए। अब हम रात-रात भर जाग-जाग कर अपने निलंबन की वापसी का इंतज़ार करते हैं।'' चारों निलंबितों ने अपने-अपने
ऐतिहासिक कारनामों के बारे में एक-दूसरे को ईमानदारी के साथ जानकारी दी। फिर
एक-दूसरे के कंधों पर सिर रख कर कुछ देर तक आँसू बहाते रहे। चारों इस बात से समहत
थे कि भले ही हम लोग भ्रष्टाचार के मामले में पकड़े गए लेकिन पूरी कोशिश करेंगे कि
हमारे प्यारे-प्यारे बच्चे न पकड़े जाएँ। उन्हें समझाएँगे, कि रिश्वत कैसी ली जाए।
मैं तो एक पुस्तक भी लिखने वाला हूँ, कि रिश्वत से बचने के सौ टिप्स। इसे इंटरनेट
पर भी डाल देंगे। तरह-तरह के काले कारनामों से कैसे बचें, इसके टिप्स भी अलग से दिए
जाएँगे। हम अपनी ग़लतियों से सबक लेकर उनका भविष्य सँवार सकते हैं। बिना रिश्वत के
तो ऐश संभव नहीं। क्यों भई, कैसा है सुझाव?'' चारों निलंबितों ने कसम खाई कि हम अपने-अपने बच्चों को भ्रष्टाचार में ट्रेंड करेंगे ताकि वे रंगे हाथों न पकड़े जाएँ और बेचारे हमारी तरह निलंबन का दुख न भोगें। अलबत्ता चंद सालों में ही इतना पैसा कमा लें कि बर्खास्त भी हो जाएँ तो कोई फ़र्क न पड़े। जेलप्रसाद ने एक और बढिय़ा सुझाव दिया, ''क्यों न हम लोग एक वेब साइट ही बना लें-निलंबित डॉट कॉम। इस साइट के माध्यम से हम दुनिया के तमाम निलंबितों को एकजुट करेंगे। अपन एक संगठन ही बना लेते हैं, 'निलंबित अधिकारी संघ'। जो कोई भी निलंबित हो, हम लोग उसकी मदद करें। रिश्वत लेते हुए पकड़े गए हैं, तो रिश्वत दे कर कैसे छूटें, इसकी ट्रेनिंग दी जाए। अपन सरकार से मिलें और कहें, कि आप हमें निलंबित कर दें तो करें, लेकिन हमारे नाम अखबारों तक तो न पहुँचाएँ। इमेज खराब होती है। मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाते। अब उनकी बात और है जो बेशरमी के महाकाव्य को रटे हुए हैं। उनको कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन हमारे जैसे महान इज़्ज़तदार लोगों को निलंबित हो कर कैसा-कैसा तो लगता है।'' सबको सुझाव पसंद आया। उन्होंने निर्णय किया कि कल ही सीएम से मिलेंगे, कि वे कुछ करें। सबके सब भयानक आशावादी होकर अपने-अपने घरों की ओर चल पड़े। इस तरह वे चार निलंबित लोग बहुत सारे निलंबितों के प्रेरणास्रोत बन चुके थे। १९ अक्तूबर २००९ |