मैंने जब कभी भी जिस किसी से
भी कुछ लिया निष्काम भाव से लिए, अनासक्त भाव से लिया।
वैसे तो मैंने किसी से कुछ लिया ही नहीं, क्यों कि मेरे
लेने में कामना भाव नहीं रहा! बिना मांगे यदि कुछ मिलता
है, तो उस लेने को लेना नहीं, ग्रहण करना कहा जाता है। लोग
स्वेच्छा से श्रद्धा भाव से देते रहे और मैं ग्रहण करता
रहा। ग्रहण करना मेरी विवशता थी, क्यों कि यदि मैं ग्रहण
करने से इनकार करता, तो देने वाले की भावन आहत होती और यह
मेरी अशिष्टता होती है। अत: मैंने अपनी भावनाओं की परवाह न
कर, शिष्टाचार का पालन करते हुए, सदैव ही दाता की भावनाओं
का ख़याल रखा।
मैंने दाताओं से स्वयं भी
कब ग्रहण किया! घर के ईशान कोण में एक छोटा-सा पूजा-घर
स्थापित कर रखा है। जब कभी कोई श्रद्धालु श्रद्धा व्यक्त
करने आया, मैंने उससे श्रद्धा सुमन ईश्वर के चरणों में
अर्पित करने की विनती की। इस प्रकार श्रद्धावान गुप्त दान
के समान श्रद्धा सुमन ईश्वर के चरणों में अर्पित करते रहे
और मैं ईश्वर का आदेश मान उनके चरणों से प्रसाद ग्रहण करता
रहा। मैंने कब कहाँ किसी से कुछ लिया! जो कुछ भी लिया
यज्ञ-फल के रूप में ईश्वर के चरणों से ग्रहण किया! भगवान
कृष्ण ने गीत में कहा है- जो पुरुष निष्काम भाव से अनासक्त
होकर कर्म करता है और अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित कर
देता है, वह पाप-पुण्य से मुक्त हो जाता है, क्यों कि उसके
अंतर्मन से कर्ता भाव समाप्त हो जाता है। वह स्वयं कुछ
नहीं करता, जो भी करता है, ईश्वर करता है। वह तो निमित्त
मात्र होता है। मेरे सभी लेनदेन-कर्म ईश्वर के चरणों में
अर्पित थे! मैं तो केवल निमित्त था, लेने वाला तो ऊपर वाला
था। हे, भद्रजनों गीत में इसे ही- योग: कर्मसु कौशलम्, कहा
गया है! आप सभी के लिए यह मेरा आशीर्वाद है और यही शिक्षा
कि मुद्र विनिमय कर्मयोग के अनुरूप करो, यही कौशल है, 'अत्रकुशलम्
तत्त्रास्तु' इसी में तुम्हारी कुशलता है!
स्वामी अद्भुतानंद जी
महाराज एक राजनैतिक दल द्वारा आयोजित चिंतन शिविर में
वचनामृत की वर्षा कर कार्यकर्ताओं को भिगो रहे थे।
'राजनीति में भ्रष्टाचार' विषय की चिंता को लेकर चिंतन
शिविर आयोजित किया गया था। स्वामी जी ने हाल में ही
राजनीति का चोला त्याग धर्म का चोला धारण किया था। वास्तव
में राजनैतिक कर्मक्षेत्र से धर्मक्षेत्र में उनका शुभ
प्रवेश 'राजनीति में धर्म' का प्रवेश था। राजनीति की
प्रदूषित गंगा को धर्म के माध्यम से प्रदूषण मुक्त करने के
महान उद्देश्य से ही उन्होंने धर्म का चोला धारण किया है।
स्वामी जी का मानना है कि जब तक राजनैतिक-धार्मिक-नेता
गठजोड़ नहीं होगा, तब तक राजनीति की पावन धारा को स्वच्छ
करना असंभव है।
स्व-चरित्र-चालीसा बखान
करते-करते स्वामी अद्भुतानंद महाराज बोले- भद्र जनों!
शिष्टाचार जीवन का सबसे बड़ा सत्य है, क्यों कि वह जीवन की
सभी विद्रूपताओं को ऐसे ढाँप लेता है, जैसे प्राकृतिक
कुरूपता को कोहरा। किंतु, यह स्वयं असत्य पर आधारित है।
और, असत्य ही शाश्वत सत्य है। इसी असत्य के माध्यम से सत्य
को असत्य सिद्ध किया जाता है। लेकिन, असत्य को असत्य सिद्ध
करना मूर्खता है, क्यों कि असत्य, असत्य है, यही सत्य है।
असत्य को यदि असत्य के द्वारा सत्य सिद्ध कर दिया जाए, तब
तो वह स्वत: सिद्ध सत्य हो ही जाता है, अत: असत्य दोनों ही
अवस्थाओं में सत्य है। वायुमंडल में दीर्घ श्वास-प्रसारण
करते हुए स्वामी जी आगे बोले- भद्रजनों! शिष्टाचार का आधार
असत्य है, यह कथन शास्त्र-सम्मत है! शास्त्रों में उल्लेख
है, 'सत्यम् ब्रुयात् प्रियम् ब्रुयात्, न ब्रुयात् सत्यम्
अप्रियम्।' सत्य बोला, प्रिय बोलो किंतु अप्रिय सत्य कभी
न बोलो, क्यों कि अप्रिय सत्य- वाचन अशिष्टता है, शिष्टाचार
के विरुद्ध है। अत: भद्रजनों, शिष्टाचार-मनकों के अनुरूप
असत्य वाचन ही शिष्ट हैं, श्रेयष्कर हैं, क्यों कि सत्य
सदैव अप्रिय ही होता है और असत्य सदैव ही प्रिय! और, सत्य
यह भी है कि मानव भी असत्य प्रिय ही है। अत: जीवन का
सर्वोच्च सत्य शिष्टाचार स्वयं असत्य पर आधारित है, यही
सत्य है! फिर सत्य बखान कर अशिष्टता के प्रदर्शन का औचित्य
क्या!
भद्रजनों! राजनीति से यदि
भ्रष्टाचार समाप्त करना है, तो उसमें शिष्टाचार का समावेश
करना होगा! मुद्रा विनिमय के शिष्ट मार्ग खोजने होंगे! ऐसा
होने पर जल में डूबे कुंभ का जल, जल में समा जाएगा और
दोनों का जल एक जल हो जाएगा अर्थात जल, जल हो जाएगा। उसी
प्रकार कथित भ्रष्टाचार भी शिष्टाचार हो जाएगा। दोनों
असत्य मिलकर सशक्त असत्य हो जाएँगे और फिर वही सत्य हो
जाएगा।
१९ जनवरी २००९ |