३१ मई, रविवार का दिन। ४०००
विद्यार्थियों को मेलबर्न में इकठ्ठे होकर प्रदर्शन की क्या आवश्यकता पड़ गई? बेकार
में कुछ छुटपुट घटनाओं को अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की क्या जरूरत पड़ी? सोंचता
हूँ कुछ तो खून-खराबा, लूट-खसोट, मारामारी दुनिया के हर कोने में होती है -
आस्ट्रेलिया में भी। फिर अगर मार खाने वाला अल्पसंख्यक और हमलावर बहुसंख्यक हो तो
यह तुरन्त राजनीतिक मुद्दा बन जाता है। एक भारतीय को यह बात समझाने की आवश्यकता
नहीं होती।
आस्ट्रेलिया में भी भारतीय
विद्यार्थियों पर हमलों के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है ऐसा क्यों न समझा
जाए? यहाँ के पुलिस कमीश्नर तक ने सुझाव देने का कष्ट किया कि भारतीयों को ट्रेन
में जोर-जोर से अपनी मातृ-भाषा में नहीं बोलना चाहिए, लैपटौप, मोबाइल इत्यादि से
अपनी संपत्ति का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। संक्षेप में ’गुड बॉय’ की तरह रहना
चाहिए। कितनी सही बात! भले ही आस्ट्रेलिया सरकार पश्चिमी देशों सहित ’नेनी-स्टेट’ (
प्रजा को ’यह करो, यह मत करो’ सिखाने वाली सरकार) बनने में विश्वास नहीं करती और
यहाँ के श्वेत नागरिकों को भी ’गुड बॉय’ बनने की सलाह नहीं देती कि मिडिया में
चिल्ल-पौ मच जायगी। फिर भी इससे यह अर्थ तो नहीं निकलता कि भारतीय द्वितीय दर्जे के
नागरिक हैं। अब लूटपाट तो
दुनिया के हर कोने में होती है। चोर के लिए काला क्या गोरा क्या! उसे तो माल से
मतलब है। अब कोई भारतीय उसकी चपेट में आ जाय तो उस पर विशेष ध्यान क्यों दिया जाय?
केवल कुछ ’चोर’ ऐसे नादान निकल जाते हैं जो ’रेसिस्ट’ गालियों में “भारत वापस जाओ”
इत्यादि चिल्लाते हुए लूट मचाते हैं या कुछ तो लूटना भी भूल जाते हैं। शायद बीयर के
नशे में होने के कारण ऐसा करते होंगे।
क्योंकि यह भी तो देखना चाहिए कि हमलावर किस तबक्के
के लोग हैं कोई भी सभ्य आस्ट्रेलियन थोड़े ही इस तरह हमला करता है! इन हमलावरों के
विरोध में पुलिस कार्यवाही करे तो पुलिस और बदनाम होती है कि वह रेसिस्ट लोगों पर
नियन्त्रण नहीं कर पा रही। काम करके ऊपर से बदनामी लेना कौन चाहेगा? इससे तो अच्छा
है चुप रहा जाय। पीड़ित लोग तो हॉस्पिटल से ठीक होकर आ जायँगे। पढ़ाई के साथ मिला कर
कुछ ज्यादा मेहनत करके याने १६ के बदले २० घंटे काम करके अपने नुकसान की भरपाई भी
कर लेंगे। इधर पिटाई करने वाले भी पीट कर संतुष्ट हो जायेंगे। हुए न एक ढेले से दो
तीर !
आस्ट्रेलिया कोई भारत तो है नहीं पर यहाँ भी ये विद्यार्थी प्रदर्शन में बड़े-बड़े
पोस्टर दिखाते चलते हैं कि “हमें न्याय चाहिए” “रेसिस्ट हमले बन्द करो” इत्यादि। इन
हमलों की बिमारी को स्वाइन फ्ल्यू से तुलना करने बैठे हैं। भारत में कौन सी
असुरक्षा नहीं है? ऊपर से वहाँ की मीडिया भी कुछ ज्यादा ही चिल्ला रही है! ग्राम
स्टैन व दो बच्चों के लिए चिल्ला लिए इतना क्या कम था ? इन विद्यार्थियों का मिशन
सिर्फ व्यक्तिगत ही तो है कोई धार्मिक प्रचार तो है नहीं कि इनके पक्ष में इतना
दिखाने और लिखने की जरूरत हो और फिर मार पड़ने का अर्थ यह तो नहीं कि विद्यार्थी
चिल्लाना भी शुरू कर दें। सुना था भारत बड़ा सहनशील देश है। कहाँ गई उसकी सहनशीलता?
और अगर मिडिया, पुलिस और राजनीतिज्ञ मिल कर कैसी चिल्ल पौ मचा सकते हैं देखना है तो
आस्ट्रेलिया की शैपल कोरबी के मामले में देखो- ड्रग लाते हुए इन्डोनेशिया में पकड़ी
गई थी पर पूरे आस्ट्रेलिया ने एकजुट हो कर साबित कर दिया था कि वहाँ का तन्त्र
कितना जंगली है – इतनी सुन्दर गोरी चमड़ी की ड्रग अपराधी को सजा देता है! उसकी तुलना
में भारतीय विद्यार्थियों के फोटो अखबार में अच्छे लगते हैं क्या? पहले से मरियल और
मार खाकर और भी मरियल हो जाते हैं।
जानते नहीं कि बेचारा आस्ट्रेलिया
’श्वेत आस्ट्रेलिया’ की नीति से अभी अभी उबरा है! इतना भी नहीं बनता कि मार चुपचाप
खा लें। यह देश छोड़ने के लिए कौन कहता है? यहाँ के विश्व-विद्यालय इन विद्यार्थियों
से होती अरबों डॉलर ( चौंकिए नहीं, यह सच है) की आय पर निर्भर हैं। जोन ब्रम्बी जो
विक्टोरिया राज्य के प्रिमियर हैं, कोई झख मारने के लिए भारत थोड़े ही आए हैं? आखिर
पेट्रोल के बाद शिक्षा आस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा निर्यात है अत: भारतीय
विद्यार्थियों को चाहिए कि वे शांति से रहें। जोन ब्रम्बी सब बदमाशों को ठीक कर
देंगे या समझा देंगे कि लड़ाई झगड़ा न करें फिर लो हो गया समाधान! भारत से छात्र यहाँ
आयें – वे अपनी फीस दें और फिर जाँय भाड़ में।
२६ अक्तूबर २००९ |