पेट्रोल लेने के लिए पेट्रोल पम्प पर
स्कूटर रोकी तो पांडे जी को अपनी चमचमाती कार के पास कार की खूबसूरती निहारते हुए
पाया। उनका नौकर कार चमकाता जा रहा था और कार की बढ़ती चमचमाहट के साथ पांडे जी की
मुस्कुराहट भी गहरी होती जा रही थी। पांडे जी पेट्रोल पम्प के मालिक हैं।
“कहिए पांडे जी। कहीं जाने की तैयारी हो रही है?”
“अरे भाई साहब आप बड़े अच्छे मौके पर आये हैं। यह है कार्ड? शाम को जरूर आइएगा।
थोड़ा कवरेज आ जायेगा अखबार में तो अच्छा रहेगा। “
“कार्ड पढ़ा और पढ़कर सवाल दाग दिया”, यह तो किसी कवि का अभिनन्दन किया जाना है।
कौन अभिनन्दन करा रहा है और किसका?”
“कवि तो मैं हूं और अभिनन्दन समारोह एक संस्था कर रही है।“
“अच्छा तो आप भी कविता लिखते हैं और इस स्तर की कविता लिखते है कि बाकायदा मंच पर
सम्मानित किये जायें और वह भी उच्च नयायालय के एक न्यायाधीश द्वारा। बड़े छुपे
रुस्तम निकले आप।“
“और नाम नहीं पढ़े आपने?”
“हां सावित्री जी को समाज सेवा के लिए। शर्मा जी को पत्रकारिता के लिए पुरस्कृत
किया जायेगा। शर्मा जी कौन हैं और इन्होंने पत्रकारिता में कौन-सा तीर मार लिया है
जो कि पुरस्कृत किये जा रहे हैं। मैं तो इन्हें नहीं जानता।“
“अभी एक समाचार पत्र से जुड़े हैं, नये हैं...। सावित्री जी एक अधिकारी की पत्नी
हैं।“
“वाह भाई। यह अभिनन्दन समारोह है या टैलेन्ट सर्च समारोह? इस आमंत्रण पत्र को देखकर
तो लगता है कि इस संस्था को भी ‘बेस्ट टैलेन्ट सर्च’ का पुरस्कार दे दिया जाये।
वैसे आपने इस पुरस्कार को हासिल करने के लिए कितना धन खर्च किया है?”
“मजाक मत करिये... कोई पुरस्कार धन से खरीदा जा सकता होता तो बड़ा पुरस्कार खरीदता,
छोटा क्यों?”
“यह तो आपकी महानता है कि बड़ा पुरस्कार खरीदते समय आपको खुद शर्म आ रही होगी वरना
आफर तो कई आये होंगे?”
“हां, लोग आर्थिक सहायता के लिए अनुरोध करते रहते हैं। देखिए, आप अखबार को निष्पक्ष
मानते हैं, लेकिन अखबार वाले गली-गली विज्ञापन का कटोरा लिए घूमते रहते हैं। तमाम
संस्थाएं वित्तीय सहायता के लिए चकोर की तरह सरकार की तरफ आस लगाये बैठी रहती हैं।
जब सरकार उन्हें कुछ देती है तब जाकर उनका इंजन गरम होता है। इसी तरह तमाम
छोटी-मोटी संस्थाएं सांस्कृतिक धार्मिक गतिविधियों के लिए स्थानीय धन्ना सेठों पर
निर्भर रहती हैं। अगर ये तथाकथित कालाबाजारी करने वाले धन्नासेठ इन संस्थाओं को
आर्थिक सहायता न उपलब्ध करायें तो ये संस्थायें बेमौत मर जायेंगी। अगर वे संस्थायें
जीवित रहने के लिए थोड़ा ‘कम्प्रोमाइज’ कर लेती हैं तो क्या बुरा है? अगर मेरी लेखन
में रुचि है, अच्छा लिखता भी हूं तो सिर्फ सेठ होने के कारण मैं इस समाज के लायक
नहीं रहा?”
“नहीं मेरा यह आशय नहीं है... लेकिन आप से अधिक योग्य लोग नहीं हैं, जिन्हें कोई
पुरस्कार उत्साहवर्धन के लिए मिलना चाहिए?”
“जरूर है... लेकिन आप अपने गिरेबान में झांकर देखिये... आपके अखबार के प्रथम पृष्ठ
पर आपके मालिक की खबर छपती है, फोटो छपती है। मैगजीन के प्रथम पृष्ठ पर ही आपके
मालिक की कविता चित्र के साथ मोटे-मोटे अक्षरों में छपती है... क्या उनसे अधिक
योग्य लोग इस दुनिया में नहीं हैं? क्यों नहीं आप विरोध करते हैं? अगर आप “वाचडाग
आप सोसाइटी” हैं तो क्या आपका घर इस सोसाइटी में नहीं आता है? वह कबीर का कथन है न
“जो घर देख्यो आपनो, मुझसे बुरा न कोय।“
“आपका कहने का अभिप्राय है कि कुछ पैसे खर्च करके खुद को पुजवाना उपयुक्त है?”
“आपके कहने का सलीका सही नहीं है। क्या राज्यसभा में गरीबों की पार्टी के टिकट पर
उद्योगपति लोग नहीं भेजे जाते हैं? क्या गरीबों दलितों की पार्टी में योग्य लोगों
की कमी है? और फिर ज्यादा बहस करने से क्या फायदा? अगर मैने पुरस्कार खरीदा है तो
आप बतायें कि उन वरिष्ठ लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों की कौन सी मजबूरी है, जो
उन्हें इस समारोह में अध्यक्षता करने के लिए बाध्य कर रही है? उनके साहित्यकार होने
पर तो कोई प्रश्नचिन्ह नहीं है? अब आप यह मत कहिएगा कि मैंने उनको भी खरीद लिया है।
हा- हा- हा।“
२९ जून २००९ |