वह पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौकीन है। हर समय किताबों
में ही खोया रहता है। मगर वह किसी कोर्स की पढ़ाई नहीं कर रहा। इस तरह की जो पढ़ाई
करनी थी, कब की पूरी कर चुका है। कोर्स की किताबों में उसकी रुचि कम ही थी। पढ़ने
के लिए तो उपन्यास, कहानी संकलन या मेगज़ीन ही उसे रुचिकर लगते थे और अब भी लगते
हैं। खाना खाते समय भी कोई पुस्तक या
मेगज़ीन सामने खोले रखता। रात को बिस्तर पर जाने से पहले भी जब तक एक दो कहानियाँ न
पढ़ लेता उसे नींद न आती।
जब कुँवारा था तो रात को न जाने कितने बजे तक पढ़ता रहता। हाथ से घड़ी उतार कर रख
दिया करता ताकि समय का पता न चले और इस तरह कहानी पढ़ने का मज़ा किरकिरा न हो पाए।
सेंट्रल लाइबरेरी का मेंबर है वह। हर दूसरे-तीसरे
दिन पुरानी पुस्तकें लौटा कर नई निकलवा लाता है। पढ़ने की उसकी स्पीड से लगता है
जैसे वह कोई बहुत बड़ा स्कॉलर हो तथा उपन्यास या कहानी विधा पर शोध कर रहा हो।
लाइबरेरी का कार्ड भी तेज़ी से भरता जा रहा है। एक बार लाइब्रेरी में पुस्तकें इशू
करने वाले ने पूछ ही लिया था, ''आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूँ?''
''कहिये।''
''क्या आप सचमुच ही इतनी जल्दी किताबें पढ़ लेते हैं? अन्यथा न लें मैं तो बस...''
प्रत्युत्तर में हल्का-सा मुस्करा कर उसने कहा था, ''बस यों ही समझ लीजिएगा।'' पर
अपने मन में इतना अवश्य सोचा था कि यह तो कुछ भी नहीं। कालेज के दिनों में तो इस से
दोगुनी स्पीड से पढ़ लिया करता था।
यार दोस्त भी उसकी इस आदत पर कटाक्ष किए बिना नहीं
चूकते, ''न्यूटन साहिब,'' दफ्तर के साथी उसे इसी नाम से बुलाते हैं, ''अगर आप इतना
ध्यान डिपार्टमेंटल एग्ज़ाम पर लगाएँ तो आपका कैरियर बन जाए। यों आँखें खराब करने
से क्या लाभ?''
उसे उनकी बात बुरी नहीं लगती। न कभी गुस्सा आता उन पर। मन ही मन हँसता है अगर
इन्हें मालूम हो जाए कि वह तो लैट्रिन में भी मेगज़ीन साथ लेकर जाता है तब तो शायद
उसका जीना दूभर कर दें।
वह एक सरकारी दफ्तर में कलर्क की पोस्ट को सुशोभित
किए हुए है। दफ्तर में भी अपनी इस आदत पर वह नियंत्रण नहीं कर पाया। साहिब ने भी कई
बार समझाया। मगर उस पर जैसे ज़्यादा देर असर नहीं रह पाता। दफ्तर का काम वह फुरती
से निबटा देता और समय मिलते ही मेगज़ीन निकाल कर पढ़ने लग जाता। साहिब ने भी, शायद
तंग आकर, रोक टोक बंद कर दी थी। भाड़ में जाए। उन्हें क्या, दफ्तर का काम तो ठीक से
करता है। पत्नी भी उसकी इस आदत से परेशान है। यह भी कैसा शौक। न खाने-पीने की सुध,
न पहनने का चाव। सामने थाली में पड़ा खाना ठंडा हो जाएगा, मगर जनाब की नज़रें
पुस्तक पर से नहीं हट सकतीं।
पत्नी भी अपनी ओर से पूरा ज़ोर लगा कर थक गई। न तो प्यार से समझाने का कोई असर हुआ
और न ही रूठने का फ़ार्मूला काम आया।
उस दिन पत्नी रसोई में चाय बना रही थी। पतीली
उठाते समय अचानक हाथ से छूट गई और खौलते हुए पानी के छींटे पाँव पर जा पड़े।
''हाय मैं मर गई'' पत्नी की चीख निकल गई।
वह कमरे मैं बैठा उपन्यास पढ़ रहा था। उपन्यास का कथानक कलाईमैक्स पर था। पत्नी की
चीख सुनकर उसने बिना पुस्तक से नज़रें उठाए ही पूछा, ''क्या हुआ?''
पत्नी की ओर से कोई जवाब नहीं आया।
एक बार पूछने के पश्चात फिर से आवाज़ देने की शायद उसने आवश्यकता नहीं समझी, या उसे
ध्यान ही नहीं रहा। पत्नी स्वंय ही कमरे में चली आई।
पति को किताब पढ़ते देख वह आग बबूला हो उठी, ''हद
हो गई। कोई मरता है तो मरे इन्हें किताबों से फुरसत नहीं। अगर पुस्तकों से इतना ही
लगाव था तो क्या ज़रूरत थी शादी करवाने की?''
पत्नी ने उस के हाथ से किताब झपट कर परे फेंक दी। वह स्तब्ध रह गया। अपलक पत्नी की
ओर देखने लगा। पत्नी का चेहरा क्रोध से तिलमिला रहा था।
''बाप रे इतना गुस्सा'' कह कर वह हल्का-सा मुस्कराया और कुर्सी की पीठ से पीठ लगा
कर थोड़ा लेट गया। पत्नी क्यों चीखी थी उसे बिलकुल याद न रहा।
पत्नी ने एक बार घूर कर उसकी ओर देखा। फिर अलमारी में से बरनोल निकाल कर पाँव पर
मलने लगी।
''क्या हुआ?'' उसने आश्चर्यचकित हो पूछा।
''क्या करोगे जानकर? अपनी किताब पढ़ते रहो'' कह कर वह फिर अंदर वाले कमरे में चली
गई।
वह सोचने पर विवश हो गया। क्या हो गया है पतनी को?
बेवजह नाराज़ हो जाती है। किताब को ऐसे फेंक दिया जैसे घर की ही कोई चीज़ हो। फट
जाती तो नई लेकर देनी पड़ती। कितना दिलचस्प कथानक चल रहा था। सारा मज़ा किरकिरा कर
दिया। अब तक तो पाँच दस पृष्ठ और पढ़ लिए होते। रसोई में काम करते समय घी का मामूली
छींटा पड़ गया होगा। फिर भी औरत जात है। जल्दी घबरा जाती है।
वह कुर्सी से उठा और कमरे के एक नुक्कड़ से पत्नी द्वारा फेंकी पुस्तक उठा लाया तथा
उसे फिर से पढ़ना शुरू कर दिया। शाम तक यह उपन्यास समाप्त हो जाए तो लाइब्रेरी बंद
होने से पहले उसे लौटा कर कोई अन्य पुस्तक ले आएगा, उसने सोचा।
कुछ देर बाद पत्नी की आवाज़ आई, ''मैं जा रही
हूँ।''
''अच्छा...'' बिना नज़रें ऊपर उठाए ही उसने जवाब दिया।
''यह भी नहीं पूछना कि कहाँ जा रही हूँ?''
पत्नी के ऐसा कहने पर उस ने गर्दन उठा कर पत्नी की ओर देखा, ''हैं, यह अटैची किस
लिए? मैं तो समझा था कि तुम...''
''बाज़ार जा रही हूँ, यही न?'' पत्नी ने बीच में ही बात काट दी, ''जी नहीं, मैं
बाज़ार नहीं मायके जा रही हूँ।''
''मगर क्यों?''
''यह भी बतलाने की आवश्यकता है?'' और वह दरवाज़े की ओर मुड़ी।
''बात तो सुन...'' वह एकदम उठ खड़ा हुआ।
''जाने दीजिए बेकार में आपका समय नष्ट होगा। इतनी देर में तो आप दो चार पृष्ठ और
पढ़ लेंगे।''
और अगले ही पल वह दरवाज़े के बाहर थी।
वह स्तब्ध-सा उसे जाते देखता रहा। उससे इतना भी नहीं हुआ कि आगे बढ़कर उसके हाथ से
अटैची छीन ले और बाजू से पकड़ कर उसे अंदर ले आए।
००० ००० ०००
पत्नी को गए पंद्रह दिन के लगभग होने को हैं। ये
दिन उसने कैसे काटे, बस वही जानता है। हर समय न जाने किन ख़यालों में खोया रहता है।
पुस्तकें पढ़नी भी छोड़ दी हैं, पत्नी का यों रूठ कर चले जाना उसके लिए असह्य हो
गया है। अपनी भूल स्वीकार कर पत्नी को पत्र लिखना उसे अपना अपमान लगता है- अपनी
मर्ज़ी से गई है।
अपने आप ही आए।
कई दिनों से वह दफ्तर भी नहीं जा पाया। बीमारी ने उसे अपने बाहुपाश में ले लिया है-
संभवत: मौसम में आ रहे परिवर्तन के कारण या समय पर भोजन न मिल पाने से। शाम को जब
वह डाक्टर से दवाई लेकर घर लौटा तो पत्नी को घर में आया देख कर खुशी से खिल उठा।
''तबीयत कैसी है? बुखार कैसे आ गया?'' उसके कुछ पूछ पाने से पहले ही पत्नी ने पूछ
लिया।
उसे हैरानी हुई। पत्नी को कैसे पता चला।
''मुझे मिसेज़ शर्मा का फ़ोन आया था। आपके बारे में उसने बताया। फ़ोन सुनते ही मैं
तो तुरंत चल पड़ी।'' पत्नी ने जैसे उसे वास्तविकता से परिचित करवा दिया।
पत्नी के लौटने की खुशी के अतिरिक्त उसे इस बात की
भी खुशी हुई कि उसे झुकना नहीं पड़ा। अपने आप गई थी, अपने आप ही लौट आई।
इधर उधर की बातें चलती रहीं। आखिर पत्नी ने पूछ ही लिया, ''आज किताबें और मैगजीन
नज़र नहीं आ रहे, क्या बात है?''
''तुम जो रूठ गई थी। मैंने तो उसी दिन सब किताबें और मेगज़ीन बाहर फेंक दिए।
लाइब्रेरी का कार्ड भी कैंसिल करवा दिया।''
''सच?'' पत्नी को जैसे विश्वास न हुआ।
''तुम्हारी कसम।''
पत्नी खुशी से खिल उठी। मन ही मन उसने स्वयं को बुरा भला कहा। बेकार में ही पति से
झगड़ा करती है। वह तो उसकी हर बात मानता है। पति का बुखार भी जैसे छूमंतर हो गया।
पत्नी ने उसकी मन पसंद डिश मटर चावल बनाए।
दोनों एक ही प्लेट में खाने लगे। चम्मच भर-भर कर
पत्नी उसके मुँह में डालती और वह पत्नी के। खाना समाप्त हुआ। रात काफ़ी घिर आई थी।
वे चारपाई पर जा लेटे। इधर उधर की बातें करने लगे।
अचानक पति ने तकिये को एक ओर थोड़ा-सा सरका कर एक मेगज़ीन उठा ली।
''यह क्या आप तो कहते थे? पत्नी आश्चर्यचकित हो उस की ओर देखने लगी।
''आज मत रोकना प्लीज़।'' वह जैसे ख़ुशामद करने लगा, ''आज तो तुम्हारे आने की खुशी
में दो चार पेज पढ़ना चाहता हूँ। कल से बिलकुल नहीं पढूँगा, तुम्हारी कसम डार्लिंग...''
और पहले की तरह ही उसने अपनी नज़रें मैगजीन के पन्नों पर जमा दीं।
२५ फरवरी २००८ |