हास्य व्यंग्य

राष्ट्र प्रेम
-संजय ग्रोवर 


कहते हैं कि प्रेम अंधा होता है, मगर हम आजकल के राष्ट्र प्रेमियों को देखें, तो लगता है कि राष्ट्र प्रेम कहीं ज्यादा अंधा होता है, और कथित राष्ट्र प्रेमियों को प्रेम करने वाले कितने अंधे हो सकते है, इसका अंदाजा तो कोई अंधा भी नहीं लगा सकता। अगर आपने देश की जेब, कूटनीतिज्ञों के कान और देशवासियों के गले काटने हों तो 'राष्ट्र प्रेम' एक अनिवार्य शर्त है। राष्ट्र प्रेम ऐसा चुंगी-नाका है, जहां सत्ता की ओर सरकने वाली हर गाड़ी को मजबूरन चुंगी अता करनी पड़ती है। राष्ट्र प्रेम ऐसी दुकान है, जहां प्रेम की चा ानी चढ़ा कर ज़हर भी अच्छे दामों पर बेचा जाता है। 'राष्ट्र प्रेम' एक ऐसी सात्विक जिल्द है, जिसके पीछे छुपकर नंगी कहानियां भी ससम्मान पढ़ी जा सकती हैं। राष्ट्र प्रेम ऐसी चाबी है, जिसकी मदद से शोहरत और दौलत का कोई भी खज़ाना 'सिमसिम' की तरह खोला जा सकता है। राष्ट्रप्रेम अभिनय की वह चरम अवस्था है जहां बी और सी ग्रेड के कलाकारों का कोई काम नहीं है। राष्ट्र प्रेम रूपी मुर्गी को जो धैर्यपूर्वक दाना चुगाता है, वह रोज़ाना एक स्वर्ण-अण्डा पा सकता है। जो अधीर होकर इसका पेट काटता है, उसके हाथ से अण्डे तो जाते ही हैं, मुर्गी भी मारी जाती है।

अपने-अपने ढंग से सभी लोग राष्ट्र को प्रेम करते हैं। जनता कुछ इस अंदाज़ में प्रेम करती है कि 'जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ'। अर्थात् जल में रह कर मगरमच्छ से वैर क्या करना। जब रहना ही यहीं है, तो बिगाड़ कर क्यों रहें? पटाकर क्यों न रखें। अर्थात् जिस अंदाज़ में वह पुलिस, डाकू, माफिया, आयकर अधिकारी और आसमानी सत्ता से प्रेम करती है, कुछ-कुछ उसी तरह का व्यवहार राष्ट्र  को भी देती है। आज से कुछ पंद्रह-बीस साल पहले तक लोग 'राष्ट्र प्रेम' में इतने भीगे रहते थे कि सिनेमाघरों में फिल्म खत्म होते ही राष्ट्र गान के सम्मान में उठ खड़े होते थे। कुछ डटे रहते तो बाकी हौले-हौले, खामोश कदमों से हॉल से बाहर सरक लेते थे। इस तरह भीड़ छंट जाती और रास्ता साफ हो जाता। तब बाकी पंद्रह-बीस लोग भी बाहर आ जाते थे। बाहर आकर वे दो मिनट रुकते, अपनी साँसों को व्यवस्थित करते और गंतव्य की ओर चल देते, जहां एक कई गुना बड़ा राष्ट्र  उनकी प्रतीक्षा कर रहा होता था। इस राष्ट्र  में प्रेम की मात्रा इतनी अधिक होती थी कि लोग काली मिर्च की जगह पपीते के बीज और वनस्पति तेल की बजाय मोबिल ऑयल में तले समोसे श्रद्धापूर्वक गटक जाते थे। कहा भी है कि प्रेम से अगर कोई जहरीली शराब भी पिलाए, तो भी गनीमत होती है। यही क्या कम है कि आपके पैसे के बदले में उसने आपको कुछ दिया। न देता, तो आप क्या कर लेते?

बाज लोग मनोज कुमार की तरह फ़िल्में बनाकर भी राष्ट्र प्रेम को अभिव्यक्ति देते हैं। 'पूरब और पश्चिम' में सायरा बानो, 'रोटी, कपड़ा और मकान' में ज़ीनत अमान और 'क्रांति' में हेमा मालिनी की मार्फत मनोज कुमार दर्शकों को संदेश देते हैं कि राष्ट्र प्रेम में अगर कपड़े उतार कर बरसात में भीगना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। राष्ट्र प्रेम में अगर हम थोड़ा-सा जुकाम भी नहीं अफोर्ड कर सकते, तो लानत है हम पर। देशप्रेम की उक्त पद्धति से प्रभावित दर्शकों की आँखें भीग जाती है और मुंह से लार टपकने लगती है।

राष्ट्र प्रेम में डूब कर लोग क्या नहीं करते। नेता दंगे करवाते हैं। पब्लिक दुकानें लूटती है। खेल-प्रेमी पिच खोद देते हैं। लड़कियां 'प्लेब्वॉय' टाइप पत्रिकाओं का सहारा बनती हैं। संगीतकार धुनें चुरा लेते हैं। विद्यार्थी बसें जला देते हैं। पुलिस व सेना बलात्कार करती हैं। प्रोफ़ेसर ट्यूशन पढ़ाते हैं। दूरदर्शन नंगे कार्यक्रम दिखाता है। मां-बाप बच्चों को ठोंक-पीटकर अच्छा नागरिक बनाते हैं। बच्चे मां-बाप को गालियां देकर क्रांति की नींव रखते हैं। साधु-सन्यासी तस्करी, ठगी और बलात्कार करते है। देशद्रोही गद्दारी करते हैं।

बेरोजगारी युवक-युवतियों से मेरी अपील है कि वे आलतू-फालतू चक्करों में न पड़ें। वे राष्ट्र प्रेम करें। इससे बढ़िया धंधा कोई नहीं। अब प्रश्न उठता है कि राष्ट्र प्रेम किस विधि से करें, ताकि यह दूसरों को भी राष्ट्र प्रेम लगे और आप इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा सकें। बहुत आसान है। राष्ट्र  की कमियों को भूलकर भी कमियाँ न कहें, बल्कि ख़ूबियाँ कहें। अंधविश्वासों और कुप्रथाओं को सांस्कृतिक धरोहर बताएँ। राष्ट्र  के शरीर पर उगे फोड़े-फुंसियों को उपलब्धियाँ बताएँ। आनुवंशिक और असाध्य रोगों को अतीत का गौरव कहें। अपनी सभ्यता और संस्कृति में भूलकर भी कमियाँ न निकालें। भले ही विदेशी वस्तुओं और तौर-तरिकों पर मन ही मन मरे जाते हों, पर सार्वजनिक रूप से इन्हें गालियां दें। बच्चों को पढ़ाएँ तो अंग्रेज़ी स्कूलों में, मगर उन बच्चों के नाम संस्कृत में रखें। स्त्रियों का भरपूर शोषण करें, मगर उन्हें 'देवी' कह-कह कर।

दलितों- शोषितों-पिछड़ों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार करें, मगर ऊपर-ऊपर मानवता के गीत गाएं। तबीयत से काले धंधे करें, मगर लोगों को दिखा-दिखाकर, सुना-सुना कर राष्ट्र , धर्म और भगवान के नाम पर दान करते रहें। ऑफिस भले ही आठ घंटे लेट जाएं, मगर मंदिर में मत्था टेकने सुबह चार बजे ही जा धमकें।

उक्त सभी उपाय आज़मा कर देखें। फिर देखता हूं कि कौन माई का लाल आपको राष्ट्र प्रेमी नहीं मानता। कोई क्यों नहीं मानेगा! सभी तो राष्ट्र प्रेमी हैं।

२१ जनवरी २००८