''मैं एक लेख लिखने जा रहा हूँ'' मैंने पत्नी से
कहा।
''और तुम कर ही क्या सकते हो, तुम्हें लौकी छीलना तक तो आता नहीं है इसलिए लेख ही
लिखो।'' पत्नी ने आदत के अनुसार मेरे काम को निरर्थक और हेय प्रदर्शित करते हुए कहा
और लौकी छीलती रही।
''लेख का विषय है 'पत्नी से लड़ने का मज़ा'।'' मैंने उसकी बात पर ध्यान न देकर अपनी
बात आगे बढ़ाई।
''मैं तो हमेशा से कहती आ रही हूँ कि तुम्हें मुझसे लड़ने में मज़ा आता है इसलिए
तुम बात बेबात हमेशा लड़ते रहते हो।'' अपने तुनकने अंदाज़ में वह बोली।
''मैं लड़ता हूँ।'' मैंने सवाल जैसा कुछ कहा।
''और क्या मुझे मजा आता है?'' उसने भी उत्तर में प्रश्न जैसा किया।
''अरे भाई ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती।'' मैं एक निष्कर्ष पर सहमति बनाना चाहता
था।
''ताली बजाने की कौन कह रहा है? पर चांटा तो एक हाथ से मारा जाता है। और लड़ाई में
तालियाँ नहीं बजाई जातीं। तालियाँ बजाने के लिए तो तुम ढेर सारे सम्मान समारोहों
में जाते रहते हो जहाँ दूसरों के लिए दोनों हाथों से ताली बजा कर खाली हाथ लौट आते
हो।''
''तो क्या दूसरे के गले में पड़ी मालाओं को लाकर फिर से तुम्हारे गले में डाल
दूँ!''
''एक बार डाली थी उसे ही अब तक भुगत रही हूँ।'' पत्नी ने ज़ोर-ज़ोर से लौकी को
काटना शुरू कर दिया था।
''भुगत तो मैं रहा हूँ। तुम तो राज कर रही हो।''
''किस पर राज कर रही हूँ?''
''मुझ पर पूरे घर पर।''
''घर की नौकरानी होने को घर पर राज करना कहते हैं? इसी भाषा ज्ञान के आधार पर
साहित्यकार बने घूमते हो, और दूसरों के सम्मान समारोह में गरिमा बढ़ाते रहते हो।''
''अरे भाई तुम मालकिन हो, रानी हो इस घर की।''
मुझसे इतना सुनना था कि वह चौके में गई और वहीं से बरतन फेंकने शुरू कर दिए।
''अरे ये क्या कर रही हो तुम!'' मुझे बरतनों की चिंता थी।
''तुम्हें मालकिन होने का नमूना दिखा रही हूँ। इन सारे बरतनों का इस्तेमाल मैं करती
हूँ और इन्हें धोती माँजती पोंछती हूँ, पर इनमें से किसी पर भी मेरा नाम नहीं सब पर
तुम्हारा नाम खुदा हुआ है- इस चम्मच पर भी।'' उसने आखिरी आइटम के बतौर चम्मच फेंकते
हुए कहा।
''अरे भाई मैं भी आखिर तुम्हारी प्रजा हूँ। तुम रानी हो इस घर की। यह पूरा घर
तुम्हारा है।''
''मेरा?''
''और क्या?''
वह तेज़ी से बाहर गई और दरवाज़े से मेरी नेमप्लेट उतार लाई और बोली, ''पढ़ो इस पर
क्या लिखा है?''
''इसे तो रोज़ ही पढता हूँ।''
''यह किसका नाम है?''
''मेरा, और किसका?''
''और यह नेमप्लेट उस घर के बाहर लटकी रहती है जिसकी तुम मुझे मालकिन बता रहे हो, उस
घर के बाहर तुम्हारे नाम की प्लेट लटकती है।''
'' पर मैं हैड आफ दि फेमिली हूँ, इस घर को चलाने के लिए कमाता हूँ, इस घर को मैंने
बनवाया है। इसलिए मेरे नाम की प्लेट लगी है।''
'' वही तो मैं भी कह रही हूँ कि तुम इस घर के लिए लौकी तक नहीं छीलते फिर भी
नेमप्लेट और बरतनों तक पर तुम्हारा नाम है और मैं सारे दिन इस घर के लिए खटती हूँ
तो मुझे अच्छे मैनेजमेंट की नीति के अनुसार मालकिन कह कर मूर्ख बना रहे हो। पर तुम
भी क्या करो, तुम्हें भी आए दिन मूर्ख बनाया जाता रहता है, सम्मान समारोहों के
आमंत्रण पत्रों पर लिखा रहता है कि पधारिए और गरिमा बढ़ाइए। पर इसका साफ़ अर्थ होता
है कि आइए भीड़ बढाइए और करतल ध्वनि में योगदान दीजिए। भीड़ भी इसलिए इकट्ठी की
जाती है ताकि उस आधार पर अनुदान की अधिक राशि जुगाड़ी जा सके।'' पत्नी ने इतना
बोलने के बाद भी लंबी साँस नहीं ली और मेरी अगली बॉलिंग पर छक्का मारने के अंदाज़
में मेरे उद्गारों की प्रतीक्षा करने लगी।
''अरे भाई मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सभी एक दूसरे के काम आते हैं। आज मैं जिनके
लिए जाता हूँ कल वे मेरी अनुदान याचिका में वातावरण बनाने में सहयोगी होंगे इसी आशा
में...''
''इसका मतलब सब एक दूसरे को मूर्ख बना रहे हैं।'' पत्नी ने मेरे वाक्य को अपनी तरह
से पूरा किया।
''तुम्हें तो मेरी हर बात बुरी लगती है'' मैंने खीझ कर कहा।
''हर बात नहीं, हर ग़लत बात... और तुम कभी ठीक बात कहते भी नहीं हो।''
''हाँ मैं तो पूरी तरह गलत हूँ। एक ठीक तो केवल तुम ही हो।'' इतना कह कर मैंने
पत्नी की तरफ देखा तो पाया कि उसके आँसू बह रहे थे। एकदम से करुणा उमड़ती-उमड़ती रह
गई जब देखा कि वह प्याज काट रही थी और वे आँसू उसके कारण बह रहे थे।
''नहीं मैं भी गलत हूँ।'' जब पत्नी ने यह कहा तो मुझे लगा कि उसे पश्चाताप हो रहा
है। मैं भावुक होता उसके पहले ही वह बोली, ''तुम हमेशा समारोहों से खाली हाथ नहीं
आते हो अपितु हमेशा ही तुम्हारे हाथों में कुछ होता है।''
''क्या?'' मैंने आश्चर्य से पूछा ही नहीं आश्चर्य हुआ भी।
''अगले किसी समारोह में गरिमा बढ़ाने का निमंत्रण पत्र'' पत्नी ने कहा।
मैं अपने कमरे में लौट आया। लेख लिखने के लिए...
३ मार्च २००८ |